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आप्तकास्य का स्पृहा ?

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           प्रश्न उठता है कि श्रुति के कथनानुसार ‛तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति’ छा.उ.६/२/३ उसने इच्छा की कि मैं बहुत प्रकार की प्रजा वाला हो जाऊं और उसने तेज आदि क्रम से सृष्टि रचना की अर्थात वह बहुत होगया, तो क्या वह परमेश्वर भी कामना वाला है ?           उत्तर― यह प्रश्न युक्तसंगत नहीं है क्योंकि पूर्व प्रसंग के साथ विरोध उत्पन्न होगा, पहले कहा― एकमेवाद्वितीयं ६/२/२ अर्थात वह सजातीय विजातीय और स्वगत भेद से रहित अद्वय है । और सृष्टि उसके द्वारा मानने पर तीन में से कम से कम एक भेद स्वगत तो मानना ही पड़ेगा । स्वगत भेद मानते ही वह किसी न किसी शरीर वाला हो जायेगा, फिर सजातीय की सृष्टि करेगा उसकी स्थिति के लिए विजातीय की भी सृष्टि करेगा । जैसे जीव का विजातीय उसका आहार है । इस प्रकार स्वयं वह शरीर युक्त होने से तीनो दोषों से युक्त होकर विनाश को प्राप्त होगा अतः एकमेवाद्वितीयं, अविनाशी, नित्य आदि श्रुति का विरोध उत्पन्न होगा । इसके लिए माण्डूक्य कारिका में सृष्टि के विभिन्न कारणों ...