दुधमुंहे बच्चों का झगड़ा


मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥७/७॥

              इस श्लोक की व्याख्या प्रश्नात्मक रूप से—
 यदि सूर्य कहे मेरा प्रकाश सारे संसार को प्रकाशित करता है तो क्या सूर्य और उसका प्रकाश परस्पर भिन्न हैं ? दूसरी बात यदि आपके मन में शंका है कि परतरं कहकर भिन्न दो पदार्थों की तुलना क्यों ? तो क्या आप यह नहीं जानते कि इसी श्लोक में जब यह कह रहे हैं कि मुझसे भिन्न यत्किंत् जगत अर्थात जो कुछ देखने सुनने और समझने में आ रहा है जो जो देखने सुनने समझने में नहीं आ रहा है, वह सब कुछ मैं ही हूं । तो यहां पर कहने का तात्पर्य यह है कि जब मुझसे भिन्न और कुछ है ही नहीं तो मुझसे बढ़कर और कोई श्रेष्ठ कैसे हो सकता है ? क्या परतरं का यह अर्थ समझने का प्रयत्न किया ? 
                  इसके अतिरिक्त इससे पहले आपने यह नहीं पढा क्या ? 👉 अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ७/६ जो स्वयं ही संपूर्ण जगत का कर्ता और उसका नाश करने वाला है, उससे भिन्न यह सब करने वाला उससे परतरं अर्थात उससे अन्य कोई श्रेष्ठ कैसे हो सकता है ? जीवनं सर्वभूतेषु ७/१० तो जब जीवन भी वही है तो उससे भिन्न आप क्या हो ? अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ७/२४ का अर्थ क्या करेंगे ? अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ९/११ का अर्थ क्या करेंगे ? जो भेद दृष्टि करके कहने वाले एक शरीर में ही व्यापक सत्ता को बांधते हैं ? ठीक इसके आगे राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः किसके लिए और क्यों कहा ? अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ९/१९ में अमृत और मृत्यु अर्थात जीवन और मृत्यु अथवा स्वास्थ्य और रोग अथवा औषधि और जहर मैं हूं, से आप क्या कहेंगे ? ठीक इसी श्लोक के अन्तिम चरण में ‘सत और असत मैं हूं’ के पश्चात ऐसा क्या छूट जाता है जो सत् असत् से भिन्न है ? क्योंकि यदि कुछ भिन्न है तो उसके कहा— ‘यत्किञ्तित जगत्’  अर्थात इसी वाक्य में सत् असत् से यदि कुछ भिन्न हो तो वह भी उसी में समाहित हो गया फिर ऐसा क्या बचा जिससे द्वैत सिद्व करना चाहते हैं ?
                 इतना ही नहीं— अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । अहमादिश्च मध्यं च  भूतानामन्त एवं च १०/२० अर्थात जब वही संपूर्ण प्राणियों की आत्मा है तो आप आत्मा के अतिरिक्त अपनी किस सत्ता वाले हो ? जब अहं का अर्थ परमेश्वर ही प्राणियों का आदि अन्त और मध्य है तो इन तीनों से भिन्न आप क्या हो और किसको लेक आप द्वैत सिद्ध करना चाहते हो ? इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना १०/२२ अर्थात जब मन और प्राणियों की चेतना भी भगवान हैं तो मन और चेतन्यता से भिन्न आप जड़ कौन हो ? क्या आप स्वयं को जड़ मानते हो ? मृत्यु और उत्पत्ति मैं हूं १०/३४ तो आप मैं से भिन्न क्या हो ? इत्यादि पर विचार किया ? अर्जुन कहता है— त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ११/३७ अर्थात सत् असत् और उससे भी जो आतीत है वह सब तुम ही अक्षर ब्रह्म हो ? तो अब क्या शेष रह गया है जिससे उससे भिन्न सिद्ध होना कुछ शेष रह गया हो ?  यह आपके द्वारा उद्धृत प्रथम श्लोक के पूर्वार्द्ध का संक्षिप्त विचार रहा । 

               उत्तरार्ध को और संक्षिप्त करना चाहूंगा । भगवान कहते हैं— 
ये चैव सात्विका भावा राजसास्तासाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु मयि ॥७/१२॥
        अर्थात जो भी सात्त्विक, राजस, तामस भाव हैं वे सब मुझसे उत्पन्न हैं किन्तु मैं उनमें और मुझमें नहीं हैं । इसके आगे इन्हीं तीनो गुणों से संपूर्ण जगत का व्याप्त होना और इन गुणों से मोहित हुए द्वारा अविनाशी ब्रह्म को न जाने जाने की बात कहते हैं ७/१३ । जिसका विवरण संक्षेप में इस प्रकार समझिए—
              मिट्टी से निर्मित घड़ा मिट्टी से अभिन्न है यदि मिट्टी घड़े से निकाल ली जाये तो घड़े की अपनी कोई सत्ता नहीं बचती । अतः घड़ा मिट्टी में नहीं है । तथापि जिस समय घड़ा दिख रहा है उस समय भी वह मिट्टी से अभिन्न ही हैं । किन्तु मिट्टी घड़े में नहीं है क्योंकि घड़ा तो मिट्टी की ही उपाधि अलग से कोई घड़ा होता तो उसमें मिट्टी के होने न होने का प्रश्न होता । अतः मिट्टी में घड़ा और घड़े में मिट्टी नहीं है । तथापि व्यहार (अज्ञान) दशा में मिट्टी और घड़े का भिन्न व्यवहार सिद्ध है, ज्ञान दशा में नहीं । इसी प्रकार कटक कुंडल में स्वर्ण और स्वर्ण में कटक कुंडल असंभव है तथापि अज्ञान दशा में यह भी सिद्ध है । दीवाली उत्सव के समय बनने वाले शक्कर के भिन्न-भिन्न खिलौने शक्कर से भिन्न नहीं हैं तो भी बच्चा मचल जाता है और कहता मुझे घोड़ा ही चाहिए, हाथी ही चाहिए, मैं गधा या गीदड़ नहीं लूंगा और बेचने वाला किसी आकृति की नहीं बल्कि शक्कर के ही भाव के अन्तर्गत घोड़ा और हाथी देता है और पिता भी कहता है हां बेटे तू घोड़ा हाथी ही ले । अब जैसे नाना प्रकार के घट मिट्टी में पिरोये हैं, नाना प्रकार के आभूषण स्वर्ण में पिरोये हैं, नाना प्रकार के खिलौने शक्कर में पिरोये हैं वैसे परमेश्वर में सब पिरोये हैं यह घड़े का मिट्टी से, आभूषण का स्वर्ण से, खिलौनो से मिट्टी की जिस भाव से कुम्हार, स्वर्णकार और पिता अभिन्नता देखता है है जिसे बच्चा नहीं जानता वह दृष्टि ही यहां सूत्र है । जैसे गणित को हल करने के लिए कहा जाता अमुक सूत्र से हल करो तो वहां कोई धागा लेकर तो नहीं बैठ जाता, हल का अर्थ कोई खेत जोतने वाला हल तो नहीं ले आता । इसी प्रकार परमात्मा में जिस दृष्टि से यह संपूर्ण जगत देखा जाता है वह दृष्टि ही सूत्र है । इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं— विमूढा नानु पश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषा १५/१० अर्थात अज्ञान इस तथ्य को नहीं जान सकता है, इसे आत्मा-अनात्मा का विवेक रखने वाला ज्ञानी ही जानता है ।
                इसी ज्ञान को जानने के लिए संशय रहित समग्र ज्ञान ७/१ कराने के लिए ही ज्ञान-विज्ञान ७/२ नामक सप्तम अध्याय का प्रारंभ किया गया है जिसका विवरण अध्याय ग्यारह तक दिया गया है । जो अध्याय सात को नहीं समझ सका वह गीता को त्रिकाल में भी नहीं समझ सकता । इसी समग्र रूप को समझने के लिए ही—
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि  च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥७/३०॥
               यहां पर अधिभूत अर्थात तमोगुण का कार्य स्थूल जगत, अधिभूत अर्थात रजोगुण का कार्य सूक्ष्म अर्थात जीव भाव, अधियज्ञ अर्थात सत्त्वगुण का कार्य इन दोनो का अधिष्ठान अर्थात इन पर अनुग्रह करके स्थिरता प्रदान करने वाला कारण शरीर— इन तीनो सात्त्विक राजस और तामस गुणों के सहित जो माम् का अर्थ ‘मैं’ का लक्ष्यार्थ इन तीनो गुणों से अतीत आत्मा को जानने वाले को ही ब्रह्म से अभिन्न बुद्धि वाला और परमतत्त्व को जानने वाला बताया है । जिसका विवरण अध्याय आठ है । यह समग्र रूप का वर्णन गीता में स्वयं कृष्ण करते हैं । किन्तु जो हठधर्मिता के कारण अपने भिन्न मत की रक्षा के लिए आत्मा-परमात्मा को भिन्न सिद्ध करने में लगे रहते हैं वे राजसी गुण वाले हैं १८/२१ और जो भगवान को किसी शरीर और मूर्ति में बांधकर एक लोटा जल चढ़ाकर, एक अगरबत्ती,फूल अर्पित करके उतने मात्र से कृतकृत्य मानते हुए यही पूर्ण भगवान हैं यह समझते हैं वे तामसी हैं १८/२२ । गीता में राजसी और तामसी की बड़ी निंदा की गई है । इन्हीं के लिए असुर और राक्षस एवं बुद्धिहीन कहा गया है ९/१२। जबकि सात्त्विक का लक्षण संपूर्ण भिन्न-भिन्न प्राणियों में एक ही आत्मा को देखना बताया गया है । अतः यह एक ही आत्मा को देखना भी एकमेवाद्वितीयं का जीता जागता प्रमाण है । यही केवलाद्वैत है । यही सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म, वासुदेवः सर्वम् ७/१९ है  । इस प्रकार भेद दृष्टि रखने वाला तो परमेश्वर को तो जानता ही नहीं है तथापि जो एकामेवाद्वितीयं नामक परमार्थ तत्त्व के अहं में आकर व्यवहार दशा को भूलकर मूर्ति पूजा उपासना की निंदा करते हैं वे भी परमेश्वर तत्त्व से द्वैतवादियों की तरह वैसे ही अनभिज्ञ हैं जैसे एक बच्चा शक्कर के खिलौने में शक्कर से अनभिज्ञ है । जब तक समग्र रूप समझ में नहीं आ जाता है तब तक उसको निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार को लेकर कलह करना दो दुधमुंहे बच्चों के झगड़े से अतिरिक्त और कुछ नहीं है । ओ३म् !  


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