जीव की नित्यता एवं अभिन्नता


जीव की नित्यता एवं अभिन्नता 
समझ में भले अन्तर हो किन्तु विरोध गीता और वेदान्त में बिल्कुल नहीं है । वेदान्त प्रतिपाद्य जो ज्ञान की पराकाष्ठा है वह अन्त में भगवती गीता ने न सत्तन्नासदुच्यते १३/१३ द्वारा कह दिया है । इसमें कोई विरोध नहीं है । तथापि वेदान्त वाक्य कहते हैं — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” “ईशावास्यमिदं सर्वम्” । इन वाक्यों का चिन्तन करना है कि वह यदि प्रकृति से परे है तो सर्वम् कैसे हो सकता है ? और यदि वह सर्वम् नहीं हो सकता है तो फिर एकमेद्वीय कैसे हो सकता है ? इस प्रकार श्रति वाक्य और हमारे विचारों में असंगति बैठ जायेगी, किन्तु जब श्रति वाक्य और हमारे विचार एक वाक्यता को प्राप्त हो जाते हैं वही प्रमाण है । अतः श्रुति के साथ अपने विचारों में कितना तालमेल है इसका अनुसंधान करना चाहिए । विरोध दूर हो जायेगा । 
अब गीतोक्त — “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” कहा गया है वह किस लिये कहा गया है ? इसके लिए इससे पूर्व का प्रसंग देखना चाहिए । यहां अर्जुन को मरने मारने का भय व्याप्त है जिसके निवारण हेतु पहले शरीर और आत्मा (जीवात्मा) को भिन्न दिखाकर शरीरों की अनित्यता सिद्ध करना तथा आत्मा की नित्यता सिद्ध करना आवश्यक था । अतः शरीरों को अनित्य और आत्मा को नित्य कहा गया है । इसके आगे फिर आत्मा की छहों विकारों से भिन्नता एवं अप्रमेयत्व सिद्ध करके एकमेवाद्वितीयत्व सिद्ध किया गया है । यही वेदान्त प्रतिपाद्य आत्मा का स्वरूप है । यह द्वितीय अध्याय उपक्रम मात्र है । अतः इसकी व्याख्या आगे सत्रहवें अध्याय तक की गई है । सातवें अध्याय से लेकर पन्द्रहवें अध्याय तक ज्ञान विज्ञान का कथन किया गया है । उसी के अन्तर्गत आत्मा की व्यापकता और आत्मा की ही जगत से अभिन्नता बताने के लिए ही कहा — “मत्तः परतरः नान्यत्किञ्चिदस्ति” यह “आत्मैवेदं सर्वम्” वेदान्त वाक्य का प्रतिपादन कर दिया । परन्तु यह आत्मा ही सब कुछ कैसे है इसको स्पष्ट किया “सदसच्चाहम्” सत् क्या है और असत् क्या ? तो यह ग्रंथ के उपक्रम से भिन्न हो नहीं, सकता है,  उपक्रम में असत् और सत् को क्रमशः शरीर और आत्मा के रूप में ही परिभाषित करता है । अतः यहां भी वही अर्थ शरीर और आत्मा (जीवात्मा) लिया गया है । कारण कि यहां अपनी कुछ विभूतियों का वर्णन किया गया है जिसके उपसंहार में कहा गया है “अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन” यहां अमृत और मृत्यु स्वयं को बताया है, इस पर शंका हो सकती है कि अमृत और मृत्यु परस्पर विरोधी हैं तब आप दोनों कैसे हो सकते हो ? इसके लिए “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति” के अनुसार समझ लेना चाहिए कि जैसे शरीर और आत्मा परस्पर विरोधी हैं फिर भी कभी मैं शरीर, कभी मैं आत्मा और कभी आत्मा सहित शरीर एवं कभी शरीर सहित आत्मा दोनो का एकत्व हो जाता है जबकि शरीर असत् है और आत्मा सत् अर्थात नित्य है । इसी अभिन्नता को यहां सदसच्चाहम् द्वारा दर्शाया गया है तभी वह आगे के प्रसंगानुसार यज्ञादि कर्म के द्वारा स्वर्ग लोक का भोक्ता होगा, अन्यथा निर्विकार और अन्तःकरण रहित होने पर यह प्रसंग ही अप्रासंगिक हो जायेगा । 
अब यदि जीवात्मा को अन्तःकरण के कारण अनित्य माना जाये तो, ईश्वर की सर्वरूपता, नित्यता भी सिद्ध नहीं होगी और आत्मैवेदं सर्वम् सहित सभी वेदान्त और तत्संबंधी गीता आदि स्मृति वाक्य निरर्थक सिद्ध होंगे और भगवान का यह कहना भी निर्थक होगा “अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः” ।
इसके अतिरिक्त तेरहवें अध्याय में शरीर (क्षेत्र) एवं शरीरी (क्षेत्रज्ञ) ये दो विभाग करके कहते हैं — “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि”  जब भगवान स्वयं क्षेत्रज्ञ अर्थात शरीर को जानने वाले क्षेत्रज्ञ हैं तो क्षेत्रज्ञ के साथ अपि कहने की क्या आवश्यकता थी ?  इससे भी यही सिद्ध होता है कि भगवान कहना चाहते हैं कि क्षेत्रज्ञ तो मैं हूं ही लेकिन “क्षेत्र भी मैं ही हूं ऐसा जान” यह अपि के द्वारा भगवान का आशय समझना चाहिए तभी “क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानम्” का कथन आगे के प्रसंगानुसार युक्ति संगत बैठेगा, कारण कि आगे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ दोनों ही रूपों में या मात्र जीव रूप में चार्वाकों की तरह न समझ ले अतः इसका भी निराकरण करते “न सत्तन्नासदुच्यते” अर्थात मैं न क्षेत्र हूं और न क्षेत्रज्ञ । मैं अर्थात जो अहमर्थक आत्मा है वह इन दोनों ही क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, शरीर-शरीरी (जीवात्मा) से परे पूर्णतः छहों विकारों से परे हूँ । यही बात दूसरे अध्याय में अविकारी और अप्रमेय इत्यादि कहकर सिद्ध की जा चुकी है । यही विशुद्ध, अन्तःकरण निर्मल सबका प्रकाशक विशुद्ध आत्मा है । जिसे अगले प्रसंगानुसार इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञानने योग्य कहा गया है ।इस प्रकार जीवात्मा का लय अर्थात अभाव नहीं होता है अन्यथा वह शरीर के समान ही असत् नाशवान हो जायेगा और श्रुत्युक्त जीव की नित्यता का व्याघात होगा । मात्र अंतःकरण से संयुक्त होने के कारण जो जीव नामक उपाधि को धारण किया था उस उपाधि मात्र का त्याग होगा । यही उपाधि शरीर रूप विकार और आत्मा से भिन्न एवं असत् अर्थात नाशवान कही जा सकती है उपाधि रहित अप्रमेय, निर्विकार अद्वितीय आत्मा नहीं । ओ३म् !
                                          स्वामी शिवाश्रम 

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