आसुरी तन्त्र



आसुरी तन्त्र 

        परमात्मा को तीन रूपों में भारतीय संस्कृति में पूजा जाता है । वे तीन स्वरूप हैं — सगुण-साकार, सगुण-निराकार तथा निर्गुण-निराकार । परमात्मा का यही तीसरा स्वरूप निर्विशेष कहलाता है । 

       इसमें पहले स्वरूप सगुण साकार की उपासना कही गई है । यह उपासना प्राणियों के तमोगुण से ऊपर उठने के लिए होती है, रजोगुण में स्थिरता प्रदान करती है । ऐसा उपासक लाखों प्रयत्न के बाद भी मूर्ति आदि पूजा, यज्ञ आदि से तब तक ऊपर नहीं उठता है जब तक उसके आराध्य की उस पर कृपा न हो जाये । आराध्य की कृपा से संत मिलन होता है और तब उसके सगुण-निराकार की उपासना का सोपान प्रारंभ होता है ।  पहले जिस परमात्मा को किसी मूर्ति आदि बाह्य पदार्थों में अनुभव करता था, अब उसे हृदय में अनुभव करेगा, यह स्वरूप सबके हृदय में यद्यपि विद्यामान है — हृदि सर्वस्य विष्ठितम्   श्रीमद्भ. गी. १३/१७, हृदि सन्निवाष्टः १५/१५, हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति २८/६१ । तथापि बिना ईश्वर कृपा और संत के उपदेश के प्रत्यक्ष नहीं होता है ।

          यह साधक की शुद्ध सत्त्वगुण की स्थिति है । वेद जिसका वर्णन करते हैं वह तीनो गुणों के अन्तर्गत ही हो पाता है, उसके आगे तो ‘नेति नेति’ के अतिरिक्त और कुछ भी कहने में असमर्थ हो जाते हैं । भगवती गीता में भी उसे मात्र ‘न सत्तन्नासदुच्यते’ १३/१२ ही कहा गया है । यही त्रिगुणातीत वह स्थिति है जिसके बाद उसका इन त्रिगुणात्मक वेदों से संबंध समाप्त हो जाता है । इसी स्थिति के लिए ही गीता ने “यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके” २/४६ कहा है ।

        अब #शंका हो सकती है कि तो क्या भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को “निस्त्रैगुण्यो भव” २/४५ कहकर सगुण साकार और सगुण निराकार दोनो का त्याग करके निर्गुण निराकार की उपासना करने को कहते हैं ?

            तो इसका समाधान यह है कि जो वेदों का विषय नहीं है वह वाणी का भी विषय नहीं हो सकता है और जो वाणी का विषय ही नहीं है तो उसकी उपासना के लिए स्वरूप वर्णन कैसे बनेगा ? और जिसका वर्णन ही नहीं हो सकता है उसकी उपासना भी कैसे हो सकती है ? निर्गुण निराकार एक स्थिति जो उपासना की पराकाष्ठा का फल है । अतः उसकी उपासना नहीं हो सकती है । उसके लिए इस पूरे श्लोक को उसके पूर्व प्रसंग सहित समझना होगा ।

                 लोग सगुण साकार (चाहे वह प्रतिमा आदि के माध्यम से हो या यज्ञ आदि के माध्यम से) के उपासक अधिकांश स्वर्ग बैकुंठ आदि लोकों की कामना से ही उपासनाएं करते हैं जो कि लोकों की नश्वरता वेदों में प्रतिपादित ही है, ऐसी कामना युक्त सगुण साकार की उपासना को गीता २/४२-४४ तक निंदित करते हुए कहा ‘त्रैगुण्य विषया वेदाः’ अर्थात वेद तीनों गुणों के ही विषय हैं वहां प्राप्त माध्यमों से जो भी उपासना की जायेगी वह परिवर्तनशील गुणों के अनुसार ही फल भी परिवर्तनशील (नाशवान) होते हैं । अतः पहले उन तीनों गुणों से प्राप्त होने वाले तमोगुण प्रधान पृथ्वी के भोग, रजोगुण प्रधान स्वर्ग के भोग और सत्त्वगुण प्रधान ब्रह्म, वैकुंठ आदि लोक की प्राप्ति की कामना का पहले त्याग कर दे क्योंकि वे सभी नाशवान हैं और कामना ही तमोगुण में ले जाने वाली रजोगुण की परिणति है, कामना का त्याग करते तमोगुण सहित रजोगुण की स्वतः निवृत्ति हो जाती है । 

           इस प्रकार रजोगुण का त्याग करते ही योगक्षेम की चिंता समाप्त हो जायेगी,  और योग क्षेम की चिन्ता समाप्त करने का एक ही उपाय है ‘निर्द्वन्द्वः’ २/४५, निर्द्वन्द्व होने के बाद कहते हैं ‘नित्यसत्त्वस्थः’ अर्थात नित्य सत्तगुण में स्थित हो जाओ । यह है सगुण निराकार की स्थिति में जाने का द्वितीय सोपान । इस समय जब साधक उसके व्यापक स्वरूप का विचार करेगा, उस निराकार परमेश्वर की व्यापकता का जब चारों ओर गुण दिखाई देने लगेगा, तब उसे वह व्यापकता वाले गुण से संपन्न निराकार परमेश्वर का हृदय देश में साक्षात्कार कर लेगा । जिस समय सगुण-निराकार का साक्षात्कार हो जायेगा उसके पश्चात ही जो रजोगुण से ऊपर उठकर सत्त्वगुण में स्थित होने पर भी साधन साध्य आदि की सूक्ष्म योगक्षेम की चिन्ता बची थी वह भी मिट जायेगी, तब वह होगा “निर्योगक्षेम” २/४५ अर्थात अब सगुण-निराकार के साक्षात्कार से वह योगक्षेम से पूर्णतः ऊपर उठ जायेगा । अब उसके जीने मरने, पाने खोने का जो भय था पूर्णतः समाप्त हो जायेगा, तब वह होगा ‘आत्मवान् ’ २/४५ ।

               आत्मवान् अर्थात जहां वेदों की गति नहीं है जिसका उपदेश नेति नेति अथवा न सत्तन्नासदुच्यते के अतिरिक्त कुछ नहीं होता वह उस आत्मा अर्थात सर्वात्मा वाला हो जायेगा अर्थात वह पूर्णतः त्रिगुणातीत आत्मभाव से अभिन्न हो जायेगा, यही निर्गुण-निराकार का स्वरूप है । जिसके कहा गया है— 

त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ २/४५ ॥ यह इसका का भावार्थ होगा । और तब —

यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके ।

तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥२/४६॥ सार्थक होगा । अतः हम जब तक क्रमशः तामस राजस एवं सात्त्विक गुणों से ऊपर नहीं उठेगें तब तक सीधे निर्गुण-निराकार (निर्विशेष) की उपासना की बात करना,  अहं ब्रह्मास्मि का उद्घोष करना,  जीवो ब्रह्मैव नापरः का दम्भ करना स्वयं और समाज को नष्ट करने वाले आसुरी तन्त्र से अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता है । ओ३म् !

                                 स्वामी शिवाश्रम 


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