गीता में भगवान प्रणव और सामवेद ही क्यों ?

गीता में भगवान प्रणव और सामवेद ही क्यों ?
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गीता में भगवान कहते हैं कि प्रणवः सर्व वेदेषु अर्थात संपूर्ण वेदों में प्रणव मैं हूँ, तथा वेदानां सामवेदोऽमि अर्थात वेदों में साम वेद मैं हूँ । परन्तु इनकी विशेषता क्या है जो भगवान इन्हें साक्षात स्वयं के रूप में प्रतिपादित करते हैं । तो देखिए —
          प्रणव ही एक ऐसा मंत्र है जिसका उच्चारण चार प्रकार से किया जाता है — (१) ह्रस्व (२) दीर्घ (३) प्लुत और (४) नाद अथवा तार ध्वनि । ये चार प्रकार उच्चारित होने पर भी वेदों में मात्र तीन ही स्वरों का वर्णन आता है — (१) उदात्त (२) अनुदात्त (३) स्वरित अर्थात मिला जुला । इन तीनों ही स्वरों में चारों प्रकार के प्रणव भेदों को गया जाता है । परन्तु स्वर तो सात होते हैं उनका ज्ञान कौन बतायेगा ? चारों विभागों को तीनों स्वरों में एवं सातों स्वर भेदों में गायन की विधि सामवेद बताएगा । जो निम्न दिये गये हैं । जिनके गायन का फल परमार्थ के साथ ही लोक में स्वास्थ्य रक्षा भी है । 
               इस प्रकार एकमात्र प्रणव ही ऐसा है जिसकी व्याप्ति सर्वत्र है । आपने देखा होगा कि गायक गायन के समय बीच बीच में अलाप करते हैं, उसमें भी भिन्न भिन्न प्रकार की तरंगें उत्पन्न करते हुए आनन्दानुभूति करते और कराते भी रहते हैं । यह अलाप अधिकांश लोगों को पता भी नहीं होता है कि यह क्या और क्यों है ? परन्तु उसे वे राग का एक अंग मात्र मानते हुए राग को अधिक निखारने, सुन्दर बनाने तथा मनोरंजन करने कराने का साधन मात्र मानते हैं, परन्तु ध्यान से जब सुनेंगे तब लगेगा कि वह अलापा जाने वाला और कुछ नहीं बल्कि प्रणव की चौथी तार ध्वनि हैं, जो वीणा के तारों की विभिन्न झंकारों की तरह ध्वनि उत्पन्न करती हुई आनन्द रस से सराबोर कर रही है, इसीलिए नाद ध्वनि को ही तार ध्वनि भी कहते हैं । प्रणव ही अचिन्तनीय शान्ति प्रदान करने वाला,उद्गीथ तथा ब्रह्म प्राप्ति का एकमात्र साधन है —
              “ 'साम' शान्ति प्रदान करने वाले मन्त्रगान हैं । परमात्मा की भक्ति में साधक जब एकाग्रचित्त होकर मन्त्रगान करता है, तब उसे अनिर्वचनीय शान्ति प्राप्त होती है ।
          सामवेद मधुर रस का भण्डार है। वेदों में 'ॐ' का महत्त्व सर्वोपरि है । यह मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। 'ॐ' के आलाप लेने से मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। 'ॐ' प्रणव है, उद्गीथ है। साम का रस ही यह उद्गीथ है।
           भारतीय संस्कृति का चरम ब्रह्म से साक्षात्कार का है। विधिपूर्वक सामगान करने वाला व्यक्ति ही 'ब्रह्म' के निकट पहुंच पाता है। इस 'सामगान' के लिए अभ्यास और साधना की आवश्यकता होती है। शुद्ध उच्चारण में मन की संगीतमयी संगति जब हो जाती है, तब परमात्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति होने लगती है ।” (सामवेद भूमिका से)
               छान्दोग्योपनिषद् साम वेद का ही अंग है । तत्त्वमसि जो ज्ञानियों का मुकुट मणि है वह इसी का महामंत्र है, जिसकी शरणागति से परम तत्त्व का अभेद ज्ञान होता है । इस प्रकार प्रणव और साम वेद की तुलना अन्य मंत्रों और ग्रंथों से की भी नहीं जा सकती है, क्योंकि वे दोनो ही अतुलनीय हैं । विचार करो आज चारों ओर हमारे ध्यान के अंग से चुरा कर बनाया गया मेडिटेशन फैला हुआ है, वह मेडिटेशन भी बिना प्रणव के संभव नहीं है । अतः वे प्रणव और साम दोनों मिलकर हम सब की की रक्षा करें ।
            शेष आगे का भाग कोष्ठक अंश को छोड़कर सामवेद भूमिका से लिया गया है कारण कि लोग यह जान सकें कि वेदों में सामवेद का क्या महत्त्व है और भगवान (सभी) वेदों में (प्रणव और) सामवेद ही क्यों हैं ? —
                उदात्त स्वरों का व्यवहार सामवेद में निराले ढंग से हुआ है। 'नारदीय शिक्षा' में कहा गया है
अथातः स्वरशास्त्राणां सर्वेषां वेदनिश्चयम् । 
उच्चनीचविशेषाद्धि स्वरान्यत्वं प्रवर्त्तते ॥
                                           (नारदीय शिक्षा सूत्र १/१ ) 
          अर्थात् अब सब स्वरशास्त्रों का वर्णन वेद निश्चय ही करते हैं; क्योंकि ऊंचे और नीचे के विशेष स्वर-भेद में यह लक्षित होता है।
            नारदीय शिक्षा में गान-विद्या के 8 स्वरों का उल्लेख किया गया है- 'षड्ज', 'ऋषभ, ' 'गान्धार, ' 'मध्यम,' 'पंचम,' 'धैवत' और 'निषाद'।
             उदात्त स्वरों में निषाद और गान्धार स्वर आते हैं । अनुदात्त स्वरों में ऋषभ और धैवत तथा स्वरित में षड्ज, मध्यम और पंचम स्वर आते हैं ।
 उदात्ते निषादगान्धारावनुदात्तऋषभधैवतौ। 
स्वरितप्रभवा ह्येते षड्जमध्यमपंचमा ॥ 
                                   नारदीय शिक्षा सूत्र २/२
            सामवेद में स्वरों के लिए विशेष संज्ञाओं का प्रयोग किया जाता है — १ प्रथन, २ द्वितीय, ३ तृतीय, ४ चतुर्थ, ५ मन्द्र, ६ क्रष्टु और ७ अतिस्वार । इन्हें साम - मन्त्रों का पाठ करने वाले उच्चारित करते हैं ।
             मध्यम स्वरों में इन नामों का विशेष महत्व है । साम उद्गाता का प्रथम स्वर ही वेणु का 'मध्यम' है, द्वितीय स्वर 'गान्धार' है, तृतीय स्वर 'ऋषभ' है, चतुर्थ स्था 'षड्ज' है, पंचम स्वर धैवत' है, छठा स्वर 'निषाद' है और सप्तम स्वर का नाम 'पंचम' है।
            इस प्रकार साम-मन्त्रों के गायन में उतार चढ़ाव का ध्यान इन स्वरों के माध्यम से रखना चाहिए —
 १ मध्यम, २ गान्धार, ३ ऋषभ ४ षड्ज, ५ मन्द्र या धैवत, ६ क्रष्टु या निषाद और ७ पंचम या अतिस्वार। 
           (अब सातों स्वरों के गायन में प्रयुक्त होने वाले बल स्थानों का वर्णन करते हैं, इसमें यह समझना चाहिए कि जिस स्वर में जिस स्थान को बल पड़ता है वही स्थान उस स्वर से पूर्ण प्रभावित और स्वस्थ रहता है । इसके अतिरिक्त कुछ अलग से रोग निवारण संकेत बीच में ही दे दिया गया है ।)
               मध्यम स्वर- नाभि से उठा वायु उर, हृदय, कण्ठ और शीर्ष से टकराकर ध्वनि के रूप में उत्पन्न होता है, तो इसे पंचम स्वर कहते हैं । (इसका अर्थ हुआ इस स्वर से श्रवण शक्ति बलवान होती है । )
             गान्धार स्वर- नाभि से उठा वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराता हुआ नासिका में पवित्र गन्ध लाता है, तब उसे 'गान्धार' स्वर कहते हैं । (इसका अर्थ हुआ कि घ्राण (नाक) संबंधित लोगों का नाश होता है)
           ऋषभस्वर- नाभि से उठने वाला वायु कण्ठ और शीर्ष से टकराकर जब बैल की भांति नांदता है, तो उसे 'ऋषभ स्वर' कहते हैं । (इसका अर्थ हुआ इससे गले के रोग नष्ट होते हैं ।)
              षड्ज स्वर — ये स्वर नासिका, कण्ठ, उर (छाती, फेफड़े), तालु, जिह्वा और दन्त इन छः स्थानों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए इन्हें 'पद्म' कहा जाता है ।
              धैवत स्वर- इन पूर्व में उठे हुए स्वरों को जब अतिसन्धान किया जाता है, तब उसे 'धैवत स्वर' कहते हैं।
निपाद स्वर- जिस कारण समस्त स्वर बैठ जाते हैं या धूमिल पड़ जाते हैं, या दब जाते हैं, तब उसे 'निषाद स्वर' माना जाता है ।
             पंचम या अतस्वर- इसके उच्चारण में प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान नामक पांचों प्राणों का उपयोग होता है इसलिए इसे पंचम स्वर कहते हैं । कोकिला (कोयल) पंचम स्वर में कुहकती है । इसके उच्चारण में क्षिति, रक्ता, संदीपनी और आलापनी नाम की चार श्रुतियां लगती हैं ।
                                          स्वामी शिवाश्रम

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