पुराण लेखन पर प्रश्नचिह्न
पुराण लेखन पर प्रश्नचिह्न (१)
यहां पद्मपुराण के उत्तर खण्ड अध्याय २३६ के अनुसार तामस (असत्) शास्त्रों का प्रतिपादन करने वाले आचार्यों के नाम दिये गये हैं जो बड़े बड़े ज्ञानियों के भी पतन का हेतु कहे गये हैं । शीर्षक का लक्ष्य दूसरे भाग में स्पष्ट होगा । ओ३म् !
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पार्वतीं प्रतीश्वरवाक्यम्
शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि तामसानि यथाक्रमम् ।
येषां श्रवणमात्रेण पातित्यं ज्ञानिनामपि ॥१॥
पार्वती के प्रति ईश्वर (शिव) का वाक्य है — देवि ! मैं क्रमशः तामस-शास्त्रों को बताऊँगा जिनके श्रवण मात्र से ही बड़े-बड़े ज्ञानियों का भी पतन हो जाता है ॥१॥
प्रथमं हि मयैवोक्तं शैवं पाशुपतादिकम् ।
मच्छत्यावेशितैर्विप्रैः संप्रोक्तानि ततः परम् ॥२॥
मैंने ही प्रथमतः पाशुपतादि शैवशास्त्र को बताया है । पश्चात् मेरी शक्ति से ही आविष्ट हुए ब्राह्मणों ने अन्यान्य शास्त्रों को कहा है ॥२॥
कणादेन तु सम्प्रोक्तं शास्त्रं वैशेषिकं महत् ।
गौतमेन तथा न्यायं साङ्ख्यन्तु कपिलेन वै ॥३॥
कणाद महर्षि ने तो महान् वैशेषिक शास्त्र को बताया है । उसीप्रकार गौतममहर्षि ने न्यायशास्त्र को बताया और कपिल महर्षि ने सांख्यशास्त्र का निरूपण किया ॥३॥
द्विजन्मना जैमिनिना पूर्व वेदमथार्थतः ।
निरीश्वरेण वादेन कृतं शाखं महत्तरम् ॥४॥
महर्षिजैमिनि ने निरीश्वर वाद का आश्रय लेकर वैदिक अर्थ से परिपूर्ण एक महान् शास्त्र की रचना की, जिसे, पूर्व-मीमांसा कहते हैं ॥४॥
धिषणेन तथा प्रोक्तं चार्याक्रमतिगर्हितम् ॥५॥
उसी प्रकार आचार्य बृहस्पति ने अत्यन्त गर्हित (निन्दित) चार्वाकशास्त्र को रचा ॥५॥
दैत्यानां नाशनार्थाय विष्णुना बुद्धरूपिणा ।
बौद्धशास्त्रमसत् प्रोक्तं नग्ननीलपटादिकम् ॥६॥
तथा भगवान् विष्णु ने बुद्ध का रूप धारण कर दैत्यों के विनाशार्थ नग्ननीलपटादि असत् बौद्ध-शास्त्र का उपदेश किया ॥६॥ ओ३म् !
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पुराण लेखक पर प्रश्नचिह्न (२)
प्रथम भाग में विभिन्न असत् शास्त्रों के आचार्यों के नाम दिये गये हैं किन्तु यहां के छः श्लोक एक ही आचार्य का विधिवत प्रतिपादन करते हैं । जिनको कुछ तथाकथित वेदविरोधियों (वैष्णवों) ने मायावादी के नाम से प्रचारित करके निंदा की है, वह किस प्रकार निंदा की है यह पद्मपुराण के उत्तर खण्ड अध्याय २३६ के अनुसार समझ लेना चाहिए । हमने चित्र में विषेश को हाईलाइट किया है ताकि यहां के किये गये अर्थ को संदिग्ध होने पर उतने अंश में आकर्षित किया जा सके । ओ३म् !
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मायावादमसच्छासं प्रच्छन्नं बौद्धमेव च ।
मयैव कथितं देवि ! कलौ ब्राह्मणरूपिणा ॥७॥
हे देवि ! कलियुग में ब्राह्मण का रूप धारण कर मैंने ही मायावाद के रूप में असच्छास्त्र को कहा है। वह मायावाद, बौद्धशास्त्र का ही एक प्रच्छन्न रूप है ॥७॥
यहां पर भगवान शंकर देवी पार्वती को स्वयं के अवतार द्वारा मायावादी असत् शास्त्र की रचना करने वाला बताया है जिसे बौद्ध ग्रंथों का प्रच्छन्न रूप कहा है । यहां ध्यान देने की बात यह है कि कुछ तथाकथित वैष्णव इसी श्लोक के आधार पर आचार्य शंकर को ही कलंकित करने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं । यद्यपि आचार्य शंकर का यहां स्पष्ट नाम तो नहीं आया है तथापि उन्हीं पर ये आक्षेप क्योंकि किया जाता है ? यह आगे स्पष्ट होगा ।
👉साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि प्रत्येक श्लोक में भगवान शिवा पार्वती जी को यहां किये गये कार्य को भूतकाल में किया हुआ बताते हैं । यही मेरे इस पद्मपुराण पर विशेष रूप से श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा लिखित होने पर प्रश्नचिह्न का कारण है । यद्यपि यह कल का मेरा निजी संदेह था परन्तु जब शोध किया तब पाया कि मैं अकेला ही पुराणों के लेखक पर सन्देह करने वाला नहीं हूं । ऐसे लोगों की संख्या बहुत है जो आर्यसमाजी भी कदापि नहीं हैं ॥७॥ अब आगे —
अपार्थं श्रुतिवाक्यानां दर्शयँलोकगर्हितम् ।
कर्मस्वरूपत्याज्यत्वमत्र च प्रतिपाद्यते ॥८॥
इसमें वैदिक वाक्यों की व्यर्थता दिखाते हुए, कर्म के (लोकनिन्दित) स्वरूप का त्याग करना बताया गया है ।
यहां पर श्रुति वाक्यों को व्यर्थ बताया गया है जबकि अगले श्लोक में नैष्कर्म्य का विधान किया गया है, इससे यह सिद्ध होता है मोक्षार्थी के लिए लोकनिन्दित सकाम कर्म ही है जिसका स्वरूप से त्याग अनिवार्य है, और यह भी प्रसिद्ध है कि गीता में भी सकाम और लोकविरुद्ध (विकर्म) की निंदा भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं की है, उसी को आचार्य शंकर ने अपने भाष्य के माध्यम से परिपुष्ट किया ॥८॥
सर्वकर्मपरिशाभैष्कर्म्यं तत्र चोच्यते ।
परात्मजीवयोरैक्यं प्रयात्र प्रतिपाद्यते ॥९॥
समस्त कर्मों का त्याग करते हुए नैष्कर्म्य का प्रतिपादन किया गया है । किन्तु यहाँ पर मैंने जीवात्मा एवं परमात्मा की एकता बताई है ।
यहां पर सभी सकाम कर्म का त्याग करके भलीभांति नैष्कर्म्य का प्रतिपादन किया गया है, क्योंकि निष्काम कर्म किये बिना नैष्कर्म्य सिद्धि संभव ही नहीं है, यही भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, जिसे आचार्य शंकर ने अपने भाष्य के माध्यम से जन जन तक पहुंचाया है । दूसरी बात यहां जो कही गई है कि “जीवात्मा और परमात्मा की एकता ।” तो यद्यपि “जीवो ब्रह्मैव नापरः” यह सूत्र निरालम्बोपनिषद का है तथापि विवेकहीन प्रचारकों ने यह आरोप भी आचार्य शंकर पर ही लगाया है कि यह उनकी कृति है ॥९॥
ब्रह्मणोऽस्य परं रूपं निर्गुणं दर्शितं मया ।
सर्वस्य जगतोऽप्यस्य नाशनार्थ कलौ युगे ॥१०॥
इस प्रकार ब्रह्म के श्रेष्ठ निर्गुण रूप को प्रदर्शित किया है। कलियुग में इस संपूर्ण जगत् के नाश के लिये ही — ।
यहां पर भगवान शंकर निर्गुण रूप की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं जो कि आचार्य शंकर का परम प्रिय उद्घोष और जीवन शैली रहा है । या यूं कहें कि जीते जी तद्रूपता को प्राप्त भी थे और अपने अनुयायियों को भी उपदेश दिया । परन्तु आगे कहते हैं कि यह स्वरूप यद्यपि श्रेष्ठ है तथापि कलियुग में संसार के नाश के लिए इसका प्रतिपादन किया है, यह बात तो वर्तमान में स्पष्ट दिख रही है कि लोग निर्गुण निराकार के भ्रम में पड़कर स्वधर्म-स्वकर्म का त्याग करके परधर्मी होकर तितिक्षा रहित आधुनिक सुविधाओं से युक्त परावलंबी होकर स्वयं को नष्ट करते हुए दूसरों को नष्ट कर रहे हैं । परन्तु निर्गुण अर्थात निर्विशेष तत्त्व का प्रतिपादन करने वाला आचार्य शंकर की समानता करने वाला अब तक न पैदा हुआ है और न ही इस कलियुग मैं पैदा होगा ॥१०॥
वेदार्थवन्महाशास्त्रं मायावादमवैदिकम् ।
मयैव कथितं देवि ! जगतां नाशकारणात् ॥११॥इति
वेदार्थ से पूर्ण होते हुए भी अवैदिक मायावाद को एक महान् शास्त्र के रूप में; हे देवि ! मैंने ही कहा, जिसका एक मात्र उद्देश्य जगत् को नष्ट करना ही था ।
यहां भगवान शंकर इस शास्त्र को वेद के गंभीर अर्थ से परिपूर्ण होते हुए भी मायावादी और अवैदिक शास्त्र बताया है । यहां भी यह #जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि जो वेद के गंभीर अर्थ (लक्ष्य) से परिपूर्ण ग्रंथ हो वह मायावादी और अवैदिक कैसे हो सकता है ? जिसे मात्र जगत के नाश के लिए ही लिखा गया है ।
अधिकं तु ब्रह्ममीमांसाभाष्ये प्रपञ्चितमस्माभिरिति ॥१२॥
इसी कथन को हमने ब्रह्म मीमांसा-भाष्य में बड़े विस्तार से कहा है ।
अन्त में भगवान शंकर कहते हैं कि इस उपरोक्त निर्गुण तत्त्व निरूपण और वेदार्थ को प्रकाशित करने के लिए मैने ही ब्रह्म मीमांसा (जिसे शारीरिक भाष्य भी कहा जाता है) मैने ही लिखा है । जबकि आचार्य शंकर ही स्वयं साक्षात शिवावतार कहे गये हैं और उन्होंने ही ब्रह्म भाष्य लिखा है, यह सर्वविदित है ॥१२॥
शंका — यहां पद्मपुराणान्तर्गत जो यह आख्यान आया है इसमें भगवान शिव ने देवी पार्वती जी से भूत काल में स्वयं के द्वारा की गई कृति का उल्लेख करते हैं इस आधार पर प्रश्न उठता है कि, क्या पद्मपुराण आचार्य शंकर के अवतरण के बाद लिखी गई ? और बाद में भी लिखी गई तो कितने समय बाद लिखी गई ? जब इस प्रसंगा को शिव ने पार्वती जी से कहा तो वह कौन शुक के अंड़े के सामान अधिकार प्राप्त सुन सका और सुनने के कितने समय बाद लिखा गया ?
यदि वैष्णव जन, विशेषतः स्कॉन वाले इस लेख के आधार पर आचार्य शंकर को ही मायावादी मानते हैं तो उन्हें इस बात को हर परिस्थिति में स्वीकार करना ही होगा कि यह पद्मपुराण श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी द्वारा कदापि नहीं लिखी गई है और आचार्य शंकर के अवतरण के बाद लिखी गई है । फिर व्यास कृत अठ्ठारह पुराणों में अमान्य होने के कारण यह पुराण ही अप्रमाणित और शैवों स्मार्तों के प्रति अत्यधिक ईर्ष्या के कारण ही किसी ने शीघ्र ही कुछ ही सौ वर्ष पूर्व में लिखा गया है ।
मायावाद के विषय में अगर कहा जाये तो तो वाममार्गी, कापालिकों का मायावाद जगत प्रसिद्ध है जिनका आचार्य शंकर ने खंडन करके उनका ह्रास कर दिया । वैष्णवों का एक संप्रदाय था “पाञ्चरात्र” इनके मायावाद को कहना भी कठिन है ये परम तामसी प्रकृति के उपासक रहे हैं और यन्त्र मन्त्र ही इनकी परम साधना रही है जिसका आचार्य शंकर ने खंडन करके पूर्णतः विनाश ही कर दिया । अभी तक तो ये परंपरा कहां चल रही है ? चल भी रही है या नहीं ? यह भी नहीं जानता । इस आधार पर जिनकी दाल आचार्य शंकर और उनके अनुयायियों के सामने नहीं गली वे लोग ही इस प्रकार की ईर्ष्या से प्रेरित होकर पुराण आदि रचाना करके वेद विरुद्ध जनमानस को भ्रमित करने के लिए ही यह षड्यंत्र रचते हुए चले आ रहे हैं । विवेकीजन ऐसे छद्म ग्रंथों की पहचान करें और ऐसे ग्रंथों एवं उन ग्रंथों के अनुयायियों से बचाकर अपना अपना कल्याण करें ।
सूचना : - सनातन धर्म की सुरक्षा हम सबका कर्तव्य है किसी एक व्यक्ति या संप्रदाय विशेष का नहीं । अतः अपनी अपनी साधना में मस्त रहो दूसरे पर इतनी उंगली मत उठाओ कि वह उंगली ही टूट जाये । यदि मेरे सामने बार बार यही स्थिति उपस्थित होती रही तो मैं और भी पुराणों का खंडन कर सकता हूं युक्ति और प्रमाण दोनो ही प्रकार से । अतः निवेदन है कि कृपा करके सभी पुराणों को साधना के रूप में साधन सामग्री जुटाने हेतु उपयोग करके स्वयं के और दूसरों का भी कल्याण करने में तत्पर हो जायें । निंदा बिल्कुल न करें,अन्यथा यह विवाद अपने ही विनाश के लिए विधर्मियों को अवसर अवश्य देगा । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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