वर्णमाला (मातृकाओं) की महिमा एवं अनुस्वार प्रयोग
वर्णमाला (मातृकाओं) की महिमा
=====================
हमारी सनातन संस्कृति की महिमा तो देखिए कि हमारे यहां वर्णाक्षरों को भी मातृका (देवी) कहते हैं । यह वर्णाक्षर ही वैखरी कहलाते हैं । इन मात्रिकाओं का प्रारंभ अकार से होता है । यह अकार ही संपूर्ण सृष्टि की सृजनात्मक जननी है । इसके आगे से माया प्रपञ्च शुरू हो जाता है और जब माया प्रपञ्च जहां से समाप्त होता है वहाँ ज्ञकार की प्राप्ति होती है अर्थात अकार से उत्पन्न होकर जब प्राणी माया में फंसकर कर अत्यन्त क्षरण को प्राप्त हो जाता है अर्थात क्षकार मातृका ठीक ठीक अपनी गोद में ले लेती है तब आता है त्रकार मातृका की याद । वह त्राहि त्राहि करने लगता है । त्राहि त्राहि करने पर ज्ञकार मात्रा की बड़ी कृपा हो जाती है और वह अपनी अहैतुकी कृपा वशीभूत होकर अपनी गोद में लेकर ज्ञानी बना देती है और वह संसार एवं आत्मा/परमात्मा के यथार्थ तत्त्व को जानकर समस्त मातृकाओं के त्रास से त्राण (रक्षा) प्राप्त कर लेता है । यह हमारे सनातन संस्कृति की महानतम् महिमा है । परन्तु जब तक प्राणी क्षकार को प्राप्त होकर त्रकार की शरण नहीं लेता है सीधे ज्ञकार को ग्रहण करता है तब वह अपने आपको ज्ञानी माने वाला अकार के आधीन होकर ज्ञकार के भ्रम में फंसकर अज्ञ (अज्ञानी) बना रहता है । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
अनुस्वार प्रयोग
==========
अनुसार का प्रयोग अनुस्वार के बाद आने वाले क वर्ग के सभी अक्षरों के साथ ङ् के रूप में प्रयुक्त होता है, जैसे गङ्गा, कङ्घा आदि, जब च वर्ग का वर्ण अनुस्वार के पश्चात् आये तब अनुस्वार का प्रयोग ञ् के रूप में होता है जैसे चञ्चल आदि, जब ट वर्ग के वर्ण से पहले अनुस्वार हो तो ण् के रूप में प्रयुक्त होता है जैसे ठण्ड, त वर्ग के वर्ण से पहले न् का प्रयोग होता है जैसे मन्त्र, तन्त्रिका आदि । प वर्ण के आने पर अनुस्वार म् के रूप में प्रयुक्त होता है जैसे पम्प, शम्भु, सम्मान आदि । इसके पश्चात ऊष्मा आदि य से लेकर अन्त तक अनुस्वार का प्रयोग वर्ण के ऊपर ही होता है जैसे अंश आदि । परन्तु यही अनुस्वार जब पदान्त होता तब वही अनुस्वार अर्ध मकार के रूप में प्रयुक्त होता है । जैसे अर्ध श्लोक पूर्ण होने पर तथा श्लोक के अन्त में अर्ध मकार का प्रयोग होता है । जैसे ॐ ह्लीं यहां ह्रीं पदान्त हो जाने के कारण अशुद्ध है ॐ ह्रीम् यह शुद्ध होगा , जबकि इसी ह्रीम् के अन्त में पुनः ॐ लगा देने से ह्रीं ॐ हो जायेगा जायेगा । अब अनुस्वार पदान्त न होनो के कारण उक्त रूप ह्रीं ही शुद्ध है । इसी प्रकार अनुस्वार का प्रयोग संस्कृत में सर्वत्र समझना चाहिए । हिन्दी का अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है अतः वहां सब खिचड़ी चलती है । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
टिप्पणियाँ