क्या निष्काम शास्त्र का उपदेश व्यर्थ है ?
क्या निष्काम शास्त्र का उपदेश व्यर्थ है ?
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प्रयोजनम् अनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।
उक्त अर्ध श्लोक ही प्रचलन में है, यह श्लोक कहां का है ? पूर्ण श्लोक क्या है ? अभी तक सामने नहीं आया है । उस स्थानीय इसका क्या प्रयोजन होगा यह भी कहना कठिन है तथापि उसका — “बिना प्रयोजन के, बिना उद्देश्य के मूर्ख भी किसी कार्य प्रवृत्त नहीं होता” यह जो अर्थ है उसमें अपि शब्द का प्रयोग हुआ है, जिससे स्पष्ट किया गया है कि जब मूर्ख भी बिना प्रयोजन, बिना उद्देश्य किसी कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है तो ज्ञानी कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं ।
इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि शास्त्रों का निष्काम कर्म के लिए किया गया उपदेश व्यर्थ हो जाता है, कारण कि जैसे बिना धुंवा के अग्नि संभव नहीं है वैसे ही बिना पाप-पुण्य रूप दोष के कर्म भी संभव नहीं है, ऐसी स्थिति में ज्ञानी जिसे मोक्ष चाहिए, जिसके लिए सभी कर्मों का निषेध किया गया है वह कर्म कैसे कर सकता है ? यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक है । तो इसके लिए सर्वप्रथम मूर्ख के विरुद्ध अपि से जो ज्ञानी का अध्याहार किया गया है वह ज्ञानी न होकर बुद्धिमान यानी विवेकशील/विचारशील के लिए कहा गया है, यह पहले समझकर रखना चाहिए ।
यहां कर्म को पहले तीन भागों में विभाजित कर लेना चाहिए (१) मूर्ख का कार्य, (२) बुद्धिमान का कार्य और (३) ज्ञानी का कार्य । इसमें मूर्ख का कार्य है मात्र लोभ युक्त शिश्नोदर परायणता । बुद्धिमान का कार्य है स्वयं के योगक्षेम की रक्षा करते हुए समाज के लिए भी कुछ करना और यश प्राप्त करना । यहां इन दोनों के ही कार्य सकाम कहे गये हैं, जिसका मात्र इसी संसार से संबंध रहता है । दोनों के जीवन में असंतोष नामक विशेष अतिथि का निवास रहता है । परन्तु सुखानुभूति और दुःखानुभूति में दोनों की भिन्नता अवश्य होती है । अतः इनके लिए निष्काम कर्म का न तो शास्त्र उपदेश करता है और न ही किसी बुद्धिमान को करना चाहिए ।
परन्तु जो तीसरा ज्ञानी है, वह भी सकाम ही है जिसके दो विभाग आवश्यक है । पहला जो सगुण साकार परमेश्वर की प्राप्ति या प्रसन्नता के लिए ही इच्छा से सभी कर्म करता है कि ईश्वर प्रसन्न हों और मुझे दर्शन दें । यह सकामता निम्न कोटि की है, क्योंकि इसमें धैर्य नहीं होता है, परमेश्वर ने अभी तक दर्शन नहीं दिया, शायद वे प्रसन्न नहीं हुए, अवश्य मेरे किये जाने वाले परमेश्वर निमित्तक कर्म में कोई दोष है । इत्यादि ।
इसमें दूसरा भी सकाम कर्मी ही है जो परमेश्वर का न दर्शन चाहता है और न ही प्रसन्नता, क्योंकि उसकी दृष्टि में परमेश्वर सम होता है उसका दर्शन न तो स्वरूप से भिन्न होता है और न ही वह कभी संतुष्ट या असंतुष्ट नामक विकारों से युक्त होता है । ऐसे सम परमेश्वर की मोक्ष की कामना से नैष्कर्म्य सिद्धि हेतु कर्म करता है, क्योंकि बिना नैष्कर्म्य सिद्धि के मोक्ष त्रिकाल में भी संभव नहीं है यह सकामता उच्च कोटि की है ।
परन्तु यह दोनो ही कोटि का कर्म परमेश्वर निमित्तक है, इसके अतिरिक्त उस साधक का अपना कोई सांसारिक निजी अन्य प्रयोजन न होने के कारण ही ऐसे सभी कर्म निष्काम कोटि में कहे जाते हैं । इन कर्मों में अग्नि में धुंवें के समान कोई दोष नहीं होता है, वे कर्म सर्वथा निर्दोष होते हैं । अतः मोक्षार्थी को, ईश्वर दर्शनाभिलाषी को ऐसे कर्म निर्द्वंद्व होकर करना ही चाहिए, क्योंकि कर्मों में द्वन्द्व ही तो कल्मष है । जैसे सामान्य कोई भी स्त्री हो स्त्री कोटि में ही गिनी जाती है, परन्तु माँ कभी भी स्त्री कोटि में नहीं गिनी जा सकती है । माँ मात्र माँ होती है स्त्री नहीं, इसी प्रकार ईश्वर एवं मोक्ष निमित्त कर्म कर्म नहीं हो सकते हैं, वे तो परम लक्ष्य की प्राप्ति के साधन मात्र हैं । कर्म तो संसार की ही प्राप्ति निमित्तक होते ईश्वर या मोक्ष के नहीं । इस प्रकार पूर्वोक्त अर्ध श्लोक में कर्मों में सकामता से ही प्रवृत्ति दिखाई देने पर भी शास्त्र के निष्काम कर्म के उपदेश में कहीं भी कोई भी व्यर्थता नहीं है, बल्कि यह स्पष्ट किया गया है कि कर्म तो अवश्य ही करना चाहिए, फिर चाहे वह मूर्ख (अज्ञानी) हो अथवा ज्ञानी (विवेकशील) । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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