प्राजापत्य,चान्द्रायण व्रत

         हमारे शास्त्रों में सबसे कठोर ब्रत प्राजापत्य या चान्द्रायण व्रत को माना गया है जो गौहत्या, ब्रह्महत्या जैसे दुर्दांत पापों के नाश के लिए प्रसिद्ध हैं । लोग अक्सर इन व्रतों के विषय में पूछते रहते हैं, अतः संक्षिप्त विवरण यहां उद्धृत करूंगा—

त्र्यहं प्रातस्त्रयहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम् ।

त्र्यहं परं च नाश्नीयात्प्राजापत्यं चरन्द्विजः ॥

         प्राजापत्य का आचरण करता हुआ द्विज तीन दिन सबेरे,तीन दिन सायंकाल और तीन दिन बिना किसी से कुछ मांगे ही जो कुछ मिल जाये उसे ही खावे । इसी को प्राजापत्य व्रत कहते हैं ॥ मनुस्मृति अ.११/२११॥

गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः  कुशोदकम् ।

एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सान्तापनं स्मृतम् ॥

          गोमूत्र,गाय का गोबर, गाय का दूध, गाय का दही, गाय का घी, कुश का जल इन सबको मिलाकर भोजन करे, दूसरे दिन उपवास करे इसी को कृच्छ्रसान्तापन व्रत कहते हैं ॥ मनुस्मृति अ.११/२१२॥

एकैकं ग्रासमश्नीयात्त्र्यहाणि त्रीणि पूर्ववत् ।

त्र्यहं    चोपवसेन्त्यमतिकृच्छ्रं    चरन्द्विजः ॥

         तीन दिन सबेरे एक ग्रास और तीन दिन शाम को और तीन दिन बिना मांगे अन्न भी एक-एक ग्रास खाय इसी को अतिकृच्छ्रचान्द्रायण व्रत कहते हैं ॥ मनुस्मृति अ.११/२१३॥

तप्तकृच्छ्रं  चरन्विप्रो  जलक्षीरघृतानिलान् ।

प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी समाहितः ॥

          ब्राह्मण नित्य एक बार स्नानकर एकाग्रचित्त होकर प्रत्येक तीन-तीन दिन क्रम से गरम जल, गरम दूध, गरम घी और गरम वायु का सेवन करे ( अर्थात जल, दूध, घी तीन-तीन दिन क्रमशः लेकर अन्त में तीन दिन पूर्णतः निर्जल रहे ) इसी को तप्तकृच्छ्र व्रत कहते हैं ॥ मनुस्मृति अ.११/२१४॥

यतात्मानोऽप्रमत्तस्य द्वादशाहमभोजनम् ।

पराको नाम कृच्छ्रोऽयं सर्वपापापनोदनः ॥

       संयत चित्त होकर मन और इन्द्रियों को रोककर बरह दिन उपवास करने को पराक व्रत कहते हैं ।जो कि सभी पापों का नाश करने वाला होता है ॥ मनुस्मृति अ.११/२१५॥

एकैकं ह्रसयेत्पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत् ।

उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं     व्रतम् ॥

           कृष्ण पक्ष में तिथि के अनुसार एक-एक ग्रास कम करके और शुक्ल पक्ष में एक-एक ग्रास बढ़ाकर भोजन करे, इसको चान्द्रायण व्रत कहते हैं ॥ मनुस्मृति अ.११/२१६॥

एतमेव   विधिं   कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे ।

शुक्लपक्षादिनियतश्चरंश्चान्द्रायणं व्रतम् ॥

        शुक्ल पक्षादि से पूर्वोक्त प्रकार से (अर्थात तिथि के अनुसार) व्रत को यवमध्यम चान्द्रायण व्रत कहते हैं । (इस श्लोक में यव का स्पष्ट उल्लेख है अतः इस आहार में यव (जौं) की ही प्रधानता है, जिसे गाय को खिलाकर उसके गोबर से संग्रहीत जौं का प्रयोग विद्वानों द्वारा माना गया है ।)

         {इस श्लोक में शुक्ल पक्ष से व्रत कहा गया है, अतः ग्रास जैसे कृष्ण पक्ष से एक-एक कम करते हुए शुक्लपक्ष में एक-एक ग्रास बढ़ाना समझना चाहिए, इसी प्रकार शुक्ल पक्ष से एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए कृष्ण पक्ष में उसी क्रम से कम करना चाहिए} ॥ मनुस्मृति अ.११/२१७॥

अष्टावष्टौ समश्नीयात्पिण्डान्मध्यंदिने  स्थिते ।

नियतात्मा हविष्याशी यति चान्द्रायणं चरन् ॥

            शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष से आरंभ कर एक मास तक जितेन्द्रिय होकर प्रत्येक दिन दोपहर को आठ ग्रास हविष्य अन्न का भोजन यति चान्द्रायण करने वाला मनुष्य करे ॥ मनुस्मृति अ.११/१८॥

चतुरः  प्रातरश्नीयात्पिण्डान्विप्रः   समाहितः ।

चतुरोऽस्तमिते सूर्ये शिशु चान्द्रायणं स्मृतम् ॥

एक मास तक सुबह शाम चार-चार नियम सुबह-शाम भोजन करे इसको शिशु चान्द्रयण व्रत मुनियों ने कहा है ॥ मनुस्मृति अ.११/२१९॥

         अब यहां तक विधि बताकर अन्त में सारांश बताते हैं कि आप भोजन चाहे क्षय क्रम से लें या वृद्धि क्रम से अथवा चाहे दो बार में चार-चार ग्रास बांटकर लें अथवा आठ-आठ ग्रास मध्य दिवस में एक ही बार लें महत्व इसका नहीं है बल्कि महत्व इसका है कि आपको एक महीने में कितना खाना है—

यथा कथञ्चित्पिण्डानां तिस्त्रोऽशीतीः समाहितः ।

मासेनाश्नन्हविष्यस्य     चन्द्रस्यैति    सलोकताम् ॥

          जो नियत चित्त होकर एक मास में किसी भी प्रकार से २४० ग्रास हविष्यान्न ही खाकर निर्वाह करता है वह चन्द्रलोक जाता है ।

         इस व्रत में चन्द्रलोक जाने की बात इस व्रत के प्रभाव से कही गई है । यहां निष्काम कर्मी को यह समझना चाहिए कि मन ही चन्द्रमा का निवास है अतः वह मन की निर्मलता अर्थात चित्शुद्धि को प्राप्त होता है जिससे उसका मोटरमार्ग प्रशस्त होता है ॥ मनुस्मृति अ.११/२२०॥

         चान्द्रयण व्रत की विशेष विधि महाभारत के अश्वमेध पर्व में देखना चाहिए । सामान्य और अनुष्ठेय नियम निम्न का अवश्य ध्यान रखना चाहिए—


चन्द्रायण व्रत साधना के नियम


             १- जल कम से कम 6 से 8 ग्लास घूंट घूंट करके बैठ कर दिन भर में पीना ही है । अन्यथा कब्ज की शिकायत हो सकती हैं ।

               २- यदि जप तप ध्यान प्राणायाम योग और स्वाध्याय सन्तुलित हुआ तो कमज़ोरी नहीं होगी फिर भी कमजोरी से बचने के लिए ग्लूकोज़ पानी या किसी ताजे फल का रसाहार लिया जा सकता हैं ।


           ३- चन्द्रायण व्रत के दिनों में सन्ध्या, स्वाध्याय, देव पूजा, गायत्री जप, हवन आदि धार्मिक कृत्यों को नित्य नियम के साथ करना, भूमि शयन, एवं ब्रह्मचर्य का विधान आवश्यक है ।


            ४- एक माह तक चलने वाले इस व्रत के साथ एक सवा लाख गायत्री मंत्र जप अनुष्ठान, प्रतिदिन 40 माला या कम से कम 11 माला जप अनुष्ठान करन से साधना का फल अधिक मिलता हैं । व्रत की समाप्ति के बाद यज्ञादि अवश्य करें और अपनी कमाई में से कुछ धन दान करना चाहिए ।


         शरणागत का वध, गुरु से द्वेष आदि अनुपातक हैं।


            स्त्रीविक्रय, सुतविक्रय आदि उपपातक हैं।


          मित्र से कपट करना, ब्राह्मण को पीड़ा देना आदि जातिभ्रंश पातक हैं।


        लकड़ी चुराना, पक्षी की हत्या करना आदि मालिनीकरण पातक हैं।

ब्याज से जीविका चलाना, असत्य बोलना आदि अपात्रीकरण पातक हैं । इत्यादि।


पाप इस प्रकार कहे गए हैं -

          ब्रम्हहत्या, सुरापान, स्वर्णस्तेय, गुरुतल्पगमन और इन चतुर्विध पापों के करने वाले पातकी से संसर्ग रखना ये पाँच महापातक हैं।


मातृगमन, भगिनीगमन आदि अतिपातक है।


विशेष प्रायश्चित—

          ब्रह्महत्या का प्रायश्चित्त - जिस ब्राह्ण की हत्या की गई हो उसकी खोपड़ी के एक भाग का खप्पर बनाकर सर्वदा हाथ में रखे। दूसरे भाग को बाँस में लगाकर ध्वजा बनाए और उस ध्वजा को सर्वदा अपने साथ रखे। भिक्षा में उपलब्ध सिद्धान्न से अपना जीवननिर्वाह करे। इन नियमों का पालन करते हुए १२ वर्ष पर्यन्त तीर्थयात्रा करने पर ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा मिलता है। एक ब्राह्मण की अथवा १२ गौओं की प्राणरक्षा करने पर अथवा अश्वमेघ यज्ञ, अवभृथ स्नान करने पर उपर्युक्त १२ वर्ष की अवधि में कमी होना संभव हैं।


           जिसने सुरा का पान किया हो उसे सुरा, जल, घृत, गोमूत्र या दूध प्रभृति किसी एक को गरम करके खौलता हुआ पीना चाहिए। और तब तक पान करते रहना चाहिए जब तक प्राण न निकले।


        गुरुतल्पगमन प्रायश्चित्त - गुरुपत्नी के साथ संभोग करने पर तपाए हुए लोहे के पलंग पर उसे सोना चाहिए। साथ ही तपाई हुई लोहे की स्त्री की प्रतिकृति का आलिंगन कर प्राणविसर्जन करना चाहिए।


            संसर्गि प्रायश्चित्त - महापातक करनेवाले के संसर्ग में यदि कोई व्यक्ति एक वर्ष पर्यंत रहे तो उसे नियमपूर्वक द्वादशवर्षीय व्रत का पालन करना चाहिए। इस तरह प्रयश्चित्त करने से मानव पाप से मुक्त हो जाता है।

        सर्वसामान्य बात यह है कि चान्द्रायण व्रत प्रत्येक पाप का प्रायश्चित होने के साथ ही क्षुधा आदि को सहन करने की विशिष्ट क्षमता प्राप्त होती है जिससे व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थितियों से विचलित न होकर अपने परमार्थ लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है । ओ३म् !

                                             — स्वामी शिवाश्रम

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