अपनी-अपनी मान्यता, वेद और वेदान्त
यद्यपि गीता में वेदों की महिमा का गान मुक्तकंठ से किया गया है जिसमें अध्याय तीन में सर्वाधिक वेदों की महिमा का बखान है, तथापि अध्याय के श्लोक बयालीस से लेकर छियालिस तक वेदों के जिस स्वरूप और विषय का वर्णन किया गया है, साथ ही साङ्ख्य अर्थात ज्ञानयोग का अलग से वर्णन किया गया है जिसे वेदान्त की संज्ञा विद्वानों ने दी है, इससे वेद और वेदान्त में कुछ भिन्नता दिखती है । स्वयं श्रीभगवान ने ‘नाहं वेदैर्न तपसा’ ११/५३ अर्थात वेदों के द्वारा अपनी प्राप्ति नहीं बतायी है, तो जिससे भगवान की प्राप्ति होगी वह मार्ग कोई और होगा ? वह मार्ग है वेदान्त (ब्रह्मविद्या के प्रतिपादक उपनिषद) । अध्याय तेरह में भी छन्द से वेदों को और ब्रह्मसूत्र से वेदान्त को अलग-अलग कहा एवं यदि ‘ऋषिभिर्बहुधा गीतम्’ को अलग कर दें तो इससे ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रंथ भी १३/४ अलग ही वेदों से सिद्ध होते हैं । यहां तक ‘वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्’ १५/१५ अर्थात वेदान्त की रचना करने वाले और वेदों को जानने वाले भी भगवान ही हैं । यहां भी वेदान्त अलग ही कहा गया है । गीता के इन प्रसंगों के आधार पर यदि देखें तो आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने भी इसी कर्मकाण्ड भाग को ही वेद माना है उपनिषद (वेदान्त), आरण्यक एवं ब्राह्मण भाग को वेद माना ही नहीं है ।
जबकि सनातन मतावलंबी इतिहास पुराण को भी पंचम वेद की संज्ञा देते हैं । मूर्ति पूजा का वर्णन वेदों के मन्त्र भाग में है ही नहीं, मात्र यज्ञों का ही वर्णन मिलता है, उपनिषदों में मूर्ति पूजा का प्रश्न ही नहीं । गीता को भी उपनिषदों का समर्थन प्राप्त है । ब्राह्मण ग्रन्थों में ऐतरेय ब्राह्मण में विष्णु मन्दिर का होना मूर्ति पूजा का समर्थन करता है, सुना है शतपथ ब्राह्मण में भी मूर्ति पूजा का वर्णन मिलता है । इतिहास पुराण तो मूर्ति पूजा से भरे पड़े हैं । मेरा लक्ष्य मूर्ति पूजा का विरोध या समर्थन नहीं है किन्तु विचार करना आवश्यक हो जाता है कि इतनी विसंगतियां प्रत्यक्ष देखकर भी हम परस्पर कलह में समय नष्ट करते हैं, जबकि मेरा मानना है कि प्रत्येक की अपनी मान्यता के पीछे अपना एक आधार है एवं उसके अनुसार उसका और मेरे अनुसार परंपरागत मेरा विचार श्रेष्ठ है ।इस पर किसी भी प्रकार की कोई किसी भी कलह का प्रश्न ही नहीं उठता । दूसरे की ओर न देखकर अपनी ओर देखो और आगे बढ़ो । ओ३म् !
—स्वामी शिवाश्रम
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