कर्म का स्वरूप

कर्म का स्वरूप
==========
कर्म की परिभाषा भगवान स्वयं देते हैं— “यज्ञार्थाकर्मणः” ३/९ अर्थात कर्म वह है जो ईश्वर के निमित्त किया जाये, क्योंकि वह मोक्ष का हेतु है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिन क्रियाओं द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हो उस क्रियामात्र को कर्म नाम से परिभाषित किया गया है, इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वयं श्रीभगवान् कहते हैं— “भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म सञ्ज्ञितः” ८/३, अर्थात प्राणियों की उन्नति का जो श्रोत त्याग है वही कर्म नाम से कहा गया है । गीता के अनुसार प्राणियों की उन्नति मोक्ष में ही मानी गई, अन्य सांसारिक उन्नति उन्नति नहीं बल्कि पतन है । 
              इससे यह तो स्पष्ट हो गया है कि निरपेक्ष एवं कर्तृवाभिमान से रहित होकर की जाने वाली क्रिया मात्र कर्म ही है (निरपेक्ष कर्तृवाभिमान को समझने के लिए #गीता_में_सहजावस्था नामक शीर्षक पढ़ना चाहिए) । यही बात न्याय प्रस्थान (ब्रह्मसूत्र) में पुरुषार्थ रूप से परिभाषित की गई है, इससे भिन्न अन्य कोई पुरुषार्थ है ही नहीं । 
             इस प्रकार यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि विकर्म के रूप में जिसे परिभाषित किया गया वह सकाम, कर्तृत्वाभिमान से युक्त प्रत्येक क्रिया को “विकर्म की संज्ञा दी गई है, क्योंकि अन्य कर्म बन्धन देने वाले होने के कारण ही विकर्म हो जाते हैं— “अन्यत्कर्म बन्धनः” ३/९ । 
            #अब बात आती है कि निष्काम कर्म को अकर्म क्यों कहा ? क्योंकि कर्म के फल का त्याग भी कर्म ही है, जबकि अकर्म का अर्थ होता है कर्म न करना । 
            #इस शंका का समाधान “प्रकृतेः क्रियमाणानि ३/२७, गुणा गुणेषु वर्तन्ते ३/२८, यस्य सर्वे समारमम्भाः कामसङ्कल्पविवर्जिताः । ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥, नैव किञ्चित्करोति सः, कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्, कृत्वापि न निबध्यते, यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते । ४/१९-२३। इस प्रकार स्वयं भगवान ने ही यह बता दिया है कि कर्म अकर्म कैसे हो जाता है, इस पर हमें अधिक विचार करने की नहीं बल्कि असन्दिग्ध रूप से स्वीकार करने की आवश्यकता है तथापि पुनः गीता के व्यापक भाव को समझना भी आवश्यकता है । 
            यहाँ प्रश्न यह उठता है कि कर्मफल के त्याग की वृत्ति मन या बुद्धि को स्पर्श करती है या नहीं ? अगर उत्तर हाँ है तो वह कर्म भले निष्काम हो किन्तु कर्तृत्वाभिमान अभी भी है, फलस्वरूप कर्ता निष्कामता रूप रस का भोक्ता अर्थात फल भोक्ता ही है । एक फल का त्याग करके बदले में दूसरा फल ग्रहण कर लिया । अब वह न निष्काम रहा और न ही कर्तृत्वाभिमान से रहित ही, अतः उसका वह कर्म कर्म रहा ही नहीं बल्कि रसास्वादन के कारण वह विकर्म हो गया, कारण कि वह जन्मादि बन्धन का हेतु बन गया, कर्म बन्धन से मुक्ति का सूत्र भगवान स्वयं के उदाहरण से बताते हैं— “न मे कर्मफले स्पृहा” ४/१४, कर्म में स्पृहा न होने के कारण वे मुझे नहीं बांधते हैं, इस प्रकार जो अन्य भी मेरे अनुसार अनुशरण करेगा वह भी कर्म से नहीं बंधेगा— “कर्मभिर्न स बध्यते” ४/१४ । 
            यही स्पृहा रहित कर्म ही सर्वत्र आसक्ति का नाश करके ही मोक्ष का हेतु “नैष्कर्म्य सिद्धि” की प्राप्ति कराता है— असक्त बुद्धिः सर्वत्र........ सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥१८/५९॥ किन्तु कर्म का समूल नाश अभी भी नहीं हुआ बल्कि उसका स्वरूप बदल गया, जिसके बाद ज्ञान की परा निष्ठा अर्थात ज्ञान की पराकाष्ठा प्राप्त होती है, वह पराकाष्ठा है ब्रह्म के साथ अभिन्नता का संकल्प “ब्रह्मभूयाय कल्पते” १८/५३, जिसके लिए साधनों का वर्णन नैष्कर्म्य सिद्धि के बाद और ब्राह्मीभाव की अनुभूति के पहले वर्णन किया गया है । जिस समय साधक ब्राह्मी भाव की अभिन्नता की अनुभूति प्राप्त कर लेता है उसी समय उसे ज्ञान की परा काष्ठा प्राप्त हो जाती है और इसी पराकाष्ठा को गीता ने पराभक्ति अर्थात भक्ति की पराकाष्ठा कहा है, इस परा पराकाष्ठा में पहुँचते ही ‘स्व’ की होने वाली अहंवृत्ति का भी निवारण हो जाता है, फलस्वरूप ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप स्वरूप में प्रवेश कर जाता है— “विशते तदनन्तरम्” १८/५५ । 
                अतः अब कर्म के स्वरूप का वह हेतु बताकर कर्म के अकर्म होकर प्राप्त होने वाला लक्ष्य बताकर प्रसंग का उपसंहार करते हैं—
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः । 
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥१८/५६॥ 
            जिसे पहले कहा था— यज्ञार्थात्कर्मणः ३/९ उसका उपसंहार “कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः” से करते हैं, जिसका फल “मत्प्रसादः” अर्थात आत्मा की प्रसन्नता है, क्योंकि— “प्रसन्नचेतसो ह्याशुः बुद्धिः पर्यवतिष्ठते” २/६५ अर्थात आत्मा की प्रसन्नता से अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध, परिग्रह दोष, ममता, शोक एवं आकांक्षाएं आदि नकारात्मक भाव नष्ट हो जाते हैं, फलस्वरूप बुद्धि शीघ्र ही आत्मस्वरूप की सकारात्मक भावना में एकाग्र भाव से अभिन्न भाव में स्थिर हो जाती है, यही ब्राह्मी स्थिति कही गई है— “एषा ब्राह्मी स्थितिः” २/७२, यहाँ पर उसी को “शाश्वतं पदमव्ययम्” अर्थात अविनाशी नित्यपद कहा गया है । जिसे गीता में में कर्म और ब्रह्मसूत्र में परम पुरुषार्थ द्वारा प्राप्तव्य बताया गया है । 
           इस प्रकार कर्म ही काल की परिपक्वता से अकर्म अर्थात सर्वकर्मसंन्यास के स्वरूप में परिवर्तित होकर अकर्म हो जाता है, यह निर्विवाद सिद्ध हुआ । यदि ऐसा नहीं हुआ तो गीता के अनुसार निश्चित ही वह विकर्म है, क्योंकि वह, कहीं न कहीं काम प्रेरित है, उसका चित्त अशान्त है— “अशान्तस्य कुतः सुखम्” २/६६ अर्थात विकर्म का आश्रय लेने वाले अशान्त प्राणी को ब्राह्मी सुख कभी नहीं मिल सकता है । ओ३म् !
                                 स्वामी शिवाश्रम

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

जीव की नित्यता एवं अभिन्नता

पुराण लेखन पर प्रश्नचिह्न

🔯स्त्री शूद्र सन्न्यास विचार:🔯🚩