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आधार हीन तर्क

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आधार हीन तर्क ~~~~~~~~~~ जो लोग उपरति को लेकर मेरा खंडन करते हैं, उसके विवेक का इसी बात से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वे कहते हैं कि केवल उपरति से कुछ नहीं होगा और ज्ञान प्राप्ति का साधन भी साधनष-चतुष्टय को मानते हैं ? मेरा प्रश्न यह है कि यदि किसी से पूछा जाये कि “बालक किशोर हो गया है” तो क्या यह भी प्रश्न बनेगा कि बालक गर्भ में आये बिना, जन्म लिये बिना किशोर कैसे हो गया ? अरे पहले गर्भ हुआ और फिर जन्म हुआ और फिर क्रमशः किशोर हुआ । यह उसके मस्तिष्क में क्यों नहीं आता ? जब पहले साधन-चतुष्ट का प्रथम साधन “नित्यानित्य विवेक” का उदय हुआ, तभी दूसरा साधन “वैराग्य” होगा और जब तक वैराग्य नहीं होगा तब तक “षट्सम्पत्ति” का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता और इसी का तीसरा साधन “उपरति” है तात्पर्य यह है कि इस भी साधनों को पार कर गया है । बिना उपरति के न तो “तितिक्षा” हो सकती और न ही स्थिर “श्रद्धा” हो सकती है और जब तक श्रद्धा का स्थायित्व नहीं होता है तब तक “समाधान” अर्थात स्वरूप निश्चय बन्ध्यापुत्रवत् है और बिना समाधान के मुमुक्षुत्व शशविषाण ( खरगोश के सींग) से अतिरिक्त कुछ नहीं है । ऐसे लोग कितने भी...

प्रश्न क्यों न उठाए जायें ?

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प्रश्न क्यों न उठाए जायें ? ~~~~~~~~~~~~~ उत्तर भारतीय पाठ, ८६,६००½,   दक्षिण भारतीय पाठ ६,५८४  उवाच ७०३३ कुल =                  १,००,२१७ अब प्रश्न ये है कि जब लेखक एक ही कृष्णद्वैपायन हैं तो दक्षिण भारतीय पाठ में ६,५८४ (छः हजार पांच सौ चौरासी) श्लोक अधिक कैसे हुए ? अथवा उत्तरभारतीय पाठ में इतने श्लोक कम कैसे हुए ? महाभारत में १,०००,००0श्लोक प्रसिद्ध हैं तो २१७ अधिक कैसे हुए ? साथ ही इसके बाद भी बीच बीच में टीकाकार यह भी लिखते हैं कि प्राचीन प्रति में ये पाठ नहीं है । तो प्रश्न यह उठता है कि नवीन पाठ यह आया कहाँ से और कब आया ? अतः इन परिस्थितियों में क्षेपक का मानना लोगों की शौक नहीं मजबूरी है । यह मात्र महाभारत की बात बताया है । इसी प्रकार भगवती गीता में एक ही लेखक होने से एक ही पाठ होना चाहिए था किन्तु टीकाकारों ने अपनी विद्वत्ता प्रकट करने के लिए अपने तर्कों से पाठान्तर करके लोगों को समझाने और स्वयं को विद्वान सिद्ध करने में तो सफल हुए लेकिन अनेकों पाठान्तर करके उसमें छेड़खानी करने और मूठ पाठ को विकृत करने का सबूत तो छोड़ ही ग...

जीव या जीवत्व ?

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जीव या जीवत्व ? ~~~~~~~~~~ जीवं कल्पयते पूर्वं ततो भावान्पृथग्विधान् ।  वैतथ्य प्रकरण श्लोक १६ आत्मा ह्याकाशवज्जीवैः, तद्वज्जीवा इहात्मनि, तद्वज्जीवाः सुगादिभिः । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक ३,४,५ । आकाशस्य न भेदोऽस्ति तद्वज्जीवेषु निर्णयः । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक ६। नैवात्मना सदाजीवो विकारावयवौ तथा । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक ७ जीवात्मनोरनन्यत्वमभेदेन प्रशस्यते, जीवात्मनो पृथक्त्वम्… । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक १३,१४ । इसके अतिरिक्त गीता में भी अनेक स्थान पर जीव शब्द स्पष्ट है— जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ७/५  ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः १५/७ यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि ‘जीवलोक’ कहा गया है, जब जीव ही नहीं है तो जीव लोक कहां से आ गया ? और जब जीव ही नहीं है तो परमात्मा का प्रतिबिम्बित प्रकाशांश जीव भाव को प्राप्त कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा के प्रकाशांश को जीव की उपाधि प्राप्त तब है जब पहले से जीव उपाधि सुनिश्चित है । इस जीव में जिसे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का गठबंधन कहा गया है वह एक गांठ जो बनेग...

गीता का अजातवाद

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गीता का अजातवाद ~~~~~~~~~~~~~ ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ । १५/१             यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि संसार वृक्ष को अश्वत्थ कहने के साथ अविनाशी कहा गया है । क्या संसार अविनाशी है ? आगे कहते हैं― न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्‍गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥१५/३॥              प्रथम श्लोक में कहे गये अविनाशी शब्द की यहाँ पुष्टि की गई है― नान्तो न चादौ अर्थात संसार का अन्त (मृत्यु या विनाश) नहीं होता । अब विनाश क्यों नहीं होता ? इस पर कहते न आदौ अर्थात उसका आदि (जन्म या उत्पत्ति) नहीं है । अब यहाँ पर स्पष्ट रूप से संसार को अविनाशी कहा गया है और यह भी बताकर गौड़पादाचार्य की माण्डूक्य कारिका, योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में कहे गये अजातवाद का स्पष्ट उल्लेख भगवान श्रीकृष्ण वर्णन करते हैं । जो उत्पन्न होता है उसी का नाश होता है― “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च ।” यह बात जगत प्रसिद्ध है, इसें समझन...