आधार हीन तर्क



आधार हीन तर्क

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जो लोग उपरति को लेकर मेरा खंडन करते हैं, उसके विवेक का इसी बात से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि वे कहते हैं कि केवल उपरति से कुछ नहीं होगा और ज्ञान प्राप्ति का साधन भी साधनष-चतुष्टय को मानते हैं ? मेरा प्रश्न यह है कि यदि किसी से पूछा जाये कि “बालक किशोर हो गया है” तो क्या यह भी प्रश्न बनेगा कि बालक गर्भ में आये बिना, जन्म लिये बिना किशोर कैसे हो गया ? अरे पहले गर्भ हुआ और फिर जन्म हुआ और फिर क्रमशः किशोर हुआ । यह उसके मस्तिष्क में क्यों नहीं आता ? जब पहले साधन-चतुष्ट का प्रथम साधन “नित्यानित्य विवेक” का उदय हुआ, तभी दूसरा साधन “वैराग्य” होगा और जब तक वैराग्य नहीं होगा तब तक “षट्सम्पत्ति” का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता और इसी का तीसरा साधन “उपरति” है तात्पर्य यह है कि इस भी साधनों को पार कर गया है । बिना उपरति के न तो “तितिक्षा” हो सकती और न ही स्थिर “श्रद्धा” हो सकती है और जब तक श्रद्धा का स्थायित्व नहीं होता है तब तक “समाधान” अर्थात स्वरूप निश्चय बन्ध्यापुत्रवत् है और बिना समाधान के मुमुक्षुत्व शशविषाण ( खरगोश के सींग) से अतिरिक्त कुछ नहीं है । ऐसे लोग कितने भी शास्त्र पढ़कर रट्टू तोता बन जायें, कितना भी वेदान्त झाड़ें किन्तु उनकी बुद्धि दयनीय है । अथवा कम्यूटर के समान भी कह सकते हैं कि उसका अपना तो दिमाग है नहीं जो भर दिया गया वही भरा रहता है । इसीलिये दुनिया की संपूर्ण जानकारी रखने पर भी उसे कोई भी विद्वान नहीं कहता । ऐसे लोग स्वयं तो भ्रमित हैं ही किन्तु जो साधक हैं उनको भी भ्रमित करते हैं ।

              यदि बिना साधन-चतुष्य के “तत्त्वमस्यादि” महावाक्यों के श्रवण मात्र से ज्ञान हो जाता तो आज कोई भी अज्ञानी नहीं होता, सभी ब्रह्मज्ञानी होते और इस प्रकार आधार हीन तर्कों का कोई भी आश्रय न ले रहा होता । ओ३म् !

―स्वामी शिवाश्रम

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