गीता का अजातवाद
गीता का अजातवाद
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ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । १५/१
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि संसार वृक्ष को अश्वत्थ कहने के साथ अविनाशी कहा गया है । क्या संसार अविनाशी है ?
आगे कहते हैं―
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥१५/३॥
प्रथम श्लोक में कहे गये अविनाशी शब्द की यहाँ पुष्टि की गई है― नान्तो न चादौ अर्थात संसार का अन्त (मृत्यु या विनाश) नहीं होता । अब विनाश क्यों नहीं होता ? इस पर कहते न आदौ अर्थात उसका आदि (जन्म या उत्पत्ति) नहीं है । अब यहाँ पर स्पष्ट रूप से संसार को अविनाशी कहा गया है और यह भी बताकर गौड़पादाचार्य की माण्डूक्य कारिका, योगवासिष्ठ आदि ग्रंथों में कहे गये अजातवाद का स्पष्ट उल्लेख भगवान श्रीकृष्ण वर्णन करते हैं । जो उत्पन्न होता है उसी का नाश होता है― “जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्ममृतस्य च ।” यह बात जगत प्रसिद्ध है, इसें समझने के लिए किसी गुरु की आवश्यकता नहीं है ।
अब प्रश्न यह हो सकता है कि फिर जगत जो दिख रहा है वह क्या है ? इस पर स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं― “न रूपमस्येह तथोपलभ्यते” अर्थात जैसा यह जगत् दिख रहा है वैसा दिख अवश्य रहा है किन्तु यह इसका स्वरूप है ही नहीं क्योंकि “न सम्प्रतिष्ठा” अर्थात यह भलीभाँति स्थिर नहीं है, क्योंकि यह “अश्वत्थ” वृक्ष के समान है, अश्वत्थ यानी पीपल का पेड़ एक ऐसा वृक्ष है कि जिसके पत्ते सदैव चलायमान होते हैं कितनी भी हवा शान्त हो, सभी वृक्षों के पत्ते स्थिर हो जाते हैं किन्तु पीपल के पत्ते सदैव चलायामान ही दिखेंगे वैसे यह जगत अस्थिर अथवा जैसा आज/अभी दिख रहा है वैसा कल या अगले क्षण नहीं दिखने वाला है । इस प्रकार जो गीता में प्रकृति को अध्याय १३ में अनादि कहा गया है उसका स्पष्टीकरण यहाँ पहले श्लोक से इस श्लोक तक उत्पत्ति और विनाश से रहित अव्यय, न अन्तः, न आदिः कहकर अविनाशीत्व और न संप्रतिष्ठा एवं अश्वत्थ कहकर परिवर्तनशील कहते हुए अध्याय ९ के ‛जगद्विपरिवर्तते’ की भी पुष्टि कर देते हैं ।
इस प्रकार प्रकृति का विनाश गीता के अनुसार त्रिकाल में भी संभव नहीं है । इसके अतिरिक्त अध्याय ७ में अपरा और परा दो प्रकार की प्रकृति कही गई है । अपरा में पृथ्वी से लेकर अहंकर पर्यन्त अपरा के आठ भेद बताते हैं जो जड़ प्रकृति के अन्तर्गत कहे गये हैं जिसमें मन, बुद्धि और अहंकार का भी वर्णन किया गया है । जो लोग कहते हैं कि जीव कोई उपाधि ही नहीं या जीव होता ही नहीं सिर्फ अन्तःकरण का गठबंधन जीवत्व होता है, उन्हें यह भी विचार करना होगा कि जब जीव होता ही नहीं है तो आपके जीवत्व का “अन्तःकरण चतुष्ट” भगवान जड़ प्रकृति में अलग दे रहे हैं और जीव स्वरूपा परा प्रकृति के द्वारा संपूर्ण लोकों को धारण करने की बात अलग से कर रहे हैं, क्यों ?
अब उत्पत्ति क्रम से प्रत्येक सूक्ष्म तत्त्व से स्थूल तत्त्व की उत्पत्ति आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी और पुनः संपूर्ण जड़ चैतन्य जीवों की उत्पत्ति होती है और संहार क्रम में संपूर्ण जड़ पदार्थ पहले पृथ्वी फिर जल, अग्नि, वायु और आकाश क्रम से चिदाकाश में विलीन अर्थात अभिन्न हो जाते हैं, इस प्रकार अध्याय ९ के “जगद्विपरिवर्तते” के अनुसार और अध्याय १५ के पहले और तीसरे श्लोक के अनुसार अपरा प्रकृति का भी नाश त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है मात्र परिवर्तन ही भगवती गीता के अनुसार होता है और वह भी संहार क्रम से उस चिदाकाश से उसी प्रकार अभिन्न है जैसे स्वप्न के नदी, पर्वत, वृक्षादि स्वप्नदृष्टा से अभिन्न होते हैं ।
यह तो हुई अपरा प्रकृति से परमतत्त्व से अभिन्नता की बात । अब परा प्रकृति अर्थात जीव रूपा प्रकृति की बात तो भगवान कहते हैं कि इस परा प्रकृति अर्थात जीव भाव ने ही संपूर्ण जगत को धारण किया है । धारण करने वाला धारित वस्तु से भिन्न और उस भिन्न वस्तु को जानने वाला होता है । इस बात को गीता अध्याय १३/१ में स्पष्ट कर देते हैं कि जो भी कुछ “इदं” अर्थात “यह” करके जाना जाता है वह क्षेत्र है और “यह” को जानने वाला “क्षेत्रज्ञ” । विशेष बात यह है कि अगले श्लोक में कह देते हैं “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु” १३/२ अर्थात जिसे पहले क्षेत्र से भिन्न क्षेत्रज्ञ कहा वही सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ “मैं” हूँ । इस प्रकार अपरा प्रकृति की एकता के पश्चात “परा प्रकृति” अर्थात जीव की भी परमतत्त्व से अभिन्नता भगवान कृष्ण स्वयं सिद्ध कर देते हैं । इस प्रकार यहाँ अपरा और परा दोनो ही प्रकृति की निरपेक्ष ब्रह्म से एकता सिद्ध होती न कि किसी का विनाश ।
यहां यह भी सिद्ध होता है कि “अन्तःकरण चतुष्ट” जिससे जीवत्व की क्रिया की प्रतीति मात्र होती है वस्तुतः वह परा प्रकृति नाम से कहे जाने वाले जीव भाव की उपाधि धारण करने वाले जीव का परिचायक मात्र है । अतः प्रकृति का नाश कहने का तात्पर्य पुरुष की भी नश्वरता का प्रसंग उपस्थित करने के समान है, यह १००% शास्त्र विरुद्ध होगा ।
अब प्रश्न यह आता है कि विद्या से अविद्या का नाश होता है या नहीं ? तो सहज उत्तर होगा कि अविद्या का नाश हो जाता है । तो अब मेरा प्रश्न यह होगा कि अविद्या का नाश करके विद्या का भी नाश होगा या नहीं ? यदि विद्या का नाश होता है तो वह “विद्या” प्रकृति है या नहीं ? जिसे ज्ञानस्वरूप कहा गया है वह ज्ञान प्रकृति के आश्रित है या नहीं ? यदि ये विद्या भी नष्ट हो जाती है तो इस विद्या के आश्रित आपका ब्रह्म भी नष्ट हो जाने का भी प्रसंग उपस्थित होगा । और यदि नष्ट नहीं होती है तो वह विद्या अपने अधिष्ठान परमतत्त्व से अभिन्न होगी या नहीं ? और यदि अभिन्न होगी तो इस विद्या का नाश हुए बिना प्रकृति का नाश कैसे संभव है ? क्योंकि पुरुष तो प्रकृति ( अविद्या और विद्या ) से अतीत एवं अविनाशी कहा गया है ।
इससे यह स्पष्ट होता है कि जिसे मैं अविद्या समझ रहा था उसका नाश न होकर विद्या रूप में वैसे ही परिणत हो गई जैसे सूर्य के उदय होते ही अन्धकार प्रकाश रूप में परिणत हो जाता है और वह विद्या अपने उत्कर्ष स्वरूप में स्थित होकर अपने प्रियतम परम पुरुष से अभिन्न होकर तद्रूपता को प्राप्त होकर मात्र “असि” पद में निर्वेद (संवेदना रहित) भाव से स्थित हो गई । यही है गीता का ज्ञान और विज्ञान । इसी बात की पुष्टि करने के लिए ही भगवान कहते हैं “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति” अध्याय ७/७ । रस्सी का सर्प कभी नष्ट नहीं होता है बल्कि रस्सी से भिन्न सर्प रूप दिखने पर भी रस्सी ही होता है और भ्रम का निवारण होते ही वह रस्सी रूपता में ही परिणति को प्राप्त हो जाता है । सर्प का नाश हो गया कहता अज्ञानता का १००% प्रमाण है ।
इस प्रकार गीता के अजातवाद द्वारा यह सिद्ध हुआ कि जगत ( प्रकृति ) का विनाश देखना १००% अज्ञान की चरम सीमा है क्योंकि ज्ञानी जो यथार्थ द्रष्टा है उसके लिए कहा गया है― विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति १३/२७ । ओ३म् !
―स्वामी शिवाश्रम
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