जीव या जीवत्व ?
जीव या जीवत्व ?
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जीवं कल्पयते पूर्वं ततो भावान्पृथग्विधान् । वैतथ्य प्रकरण श्लोक १६
आत्मा ह्याकाशवज्जीवैः, तद्वज्जीवा इहात्मनि, तद्वज्जीवाः सुगादिभिः । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक ३,४,५ ।
आकाशस्य न भेदोऽस्ति तद्वज्जीवेषु निर्णयः । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक ६।
नैवात्मना सदाजीवो विकारावयवौ तथा । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक ७
जीवात्मनोरनन्यत्वमभेदेन प्रशस्यते, जीवात्मनो पृथक्त्वम्… । माण्डूक्य कारिका अद्वैत प्रकरण श्लोक १३,१४ ।
इसके अतिरिक्त गीता में भी अनेक स्थान पर जीव शब्द स्पष्ट है—
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ७/५
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः १५/७
यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि ‘जीवलोक’ कहा गया है, जब जीव ही नहीं है तो जीव लोक कहां से आ गया ? और जब जीव ही नहीं है तो परमात्मा का प्रतिबिम्बित प्रकाशांश जीव भाव को प्राप्त कैसे हुआ ? इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा के प्रकाशांश को जीव की उपाधि प्राप्त तब है जब पहले से जीव उपाधि सुनिश्चित है । इस जीव में जिसे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का गठबंधन कहा गया है वह एक गांठ जो बनेगी वह शरीर (गांठ) एक कोई तो नाम धारण करेगा और वह नाम जीवत्व नहीं जीव ही कहा गया है । जीवत्व क्रियाशील है जो चार भागों में दिखाई पड़ता है, जिसका पहला रूप है सीमिता शरीर आदि में अहंता रखने वाला, जिससे मैं और मेरा का ज्ञान होता है, दूसरा मैं-मेरा में क्रिया द्वारा यह निश्चय किया जाता है कि मेरा हित और अहित किसमें है ? यह निश्चय करने वाली क्रिया ही बुद्धि कही गई है । किसी बात को या क्रिया को देखकर उसके हित और अहित परक बारंबार विचार करने वाली संकल्प-विकल्पात्मक क्रिया का नाम ही मन है । इसमें ये सारी क्रियाएं जिस भूमि पर तैयार होती हैं और जहां इनका चिंतन होता है उस चिंतन की उस भूमि कि नाम चित्त है । इन चार रूपों में जीवत्व क्रिया रूप में दिखता है जीव नहीं, जीव इन क्रियाओं के होने के कारण समझा जा सकता है ।
इसके अतिरिक्त रामचरितमानस में जीव शब्दों की भरमार देखी जा सकती— “ईश्वर अंश जीव अविनाशी” ।
निरालम्बोपनिषद का ये वाक्य आचार्य शंकर के नाम से बहुत प्रचलित है— “जीवोब्रह्मैव नापरः” इस प्रकार श्रुति और स्मृति आदि जीव शब्द से ओतप्रोत है । जिसका वर्णन विद्वान जिन्होंने स्वाध्याक्ष किया है वे भली-भांति जानते हैं । जबकि जीव शब्द के अतिरिक्त जीव के अर्थ में आने वाले जो शब्द हैं उनका वर्णन अलग ही है । सबका वर्णन तो कठिन है किन्तु जो स्वाध्यायी है जिन्होंने परंपरा से श्रवण के अतिरिक्त श्रुति और शास्त्र देखे और पढ़ें हैं उनको स्मरण दिलाने के लिए इतना श्रुति-स्मृति प्रमाण पर्याप्त है किन्तु इससे भिन्न चाहे जीव मानें या जीवत्व अथवा दोनो ही न माने वे पूर्ण रूप से स्वतंत्र हैं । मुझसे श्रुति और स्मृति से जीव होने का प्रमाण कभी किसी मेरे अपने करीबी ने मांगा था दे दिया अब मानना और न मानना उनके ऊपर है । मेरा न तो प्रतिपक्ष के किसी प्रश्न का उत्तर ही आयेगा और न ही कोई चर्चा होगी । जब मैं अपनी हठधर्मिता पर अडिग हूं और अपनी बात सिद्धि के लिए श्रुति और शास्त्र नजरअंदाज कर देता हूँ तो आप भी ऐसा करें तो आश्चर्य नहीं है । इस स्तर पर किसी भी परिस्थिति में बहस या प्रश्नोत्तर का कोई भी मार्ग नहीं बचता । हां…, इतना अवश्य कहूंगा हठधर्मिता न सिर्फ हठी को बर्बाद करेगी वरन् उसके अनुयायी का भी नाश करेगी और शास्त्रों में विकृति भी अत्यधिक और अविश्वसनीय रूप से वृद्धि करेगी । ओ३म् !
―स्वामी शिवाश्रम
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