परा भक्ति का सामर्थ्य


पराभक्ति का सामर्थ्य
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ज्ञान से संपूर्ण कर्मों की समाप्ति होती है— “सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसाप्यते” ४/३३ किन्तु यहाँ पर यह नहीं कहा गया है कि वह ज्ञान परमतत्तव से अभिन्नता को प्राप्त करा देगा । जिज्ञासा होती है कि ज्ञान के बाद अभिन्नता क्यों नहीं हो सकती है ? इसका उत्तर यह है कि वहाँ मैं ज्ञानी हूँ की अहं वृत्ति का सूक्ष्मातिसूक्ष्म बनी रही है । इसी भेद ग्रंथि का निवारण करने के लिए ही भगवान कहते हैं—
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥गी.११/५४॥ यहाँ पर ज्ञातुम् से आचार्य और शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने को और द्रष्टुम् से उसे साक्षीभाव से अनुभव करने को उसके पश्चात तत्त्व में प्रवेश अर्थात अभिन्नता प्राप्ति की बात स्पष्ट कही गई । यह सब कैसे सम्भव होगा ? एक मात्र भक्ति के बल पर । इस बात को आगे और स्पष्ट करते हैं—
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥१८/५४॥
यहाँ पर स्पष्ट कर दिया गया है कि जब तक शोक, इच्छाओं का द्वन्द्व समाप्त होकर संपर्क प्राणियों में समत्व दर्शन करते हुआ ब्राह्मी भाव को प्राप्त करके अपने आप में संतुष्ट नहीं हो जाता है तब तक पराभक्ति की प्राप्ति संभव ही नहीं है और जब तक पराभक्ति प्राप्त नहीं हो जाती है तब तक न तो परमेश्वर के अशेष स्वरूप का अनुभव होगा और न ही अभिन्नता को प्राप्त कर सकेगा—
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः ।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥१८/५५॥

हमें हर दृष्टिकोण से शास्त्रों का विचार करना चाहिए किन्तु बहुत शास्त्र पढ़कर स्थूल ज्ञान तो बहुत प्राप्त हो जायेगा तथापि उनमें छुपे हुए रहस्यों का पता करने के लिए किसी एक शास्त्र को आराध्य बना लेना चाहिए । हमें प्रत्येक आचार्य/विद्वान के भाष्यों और टीकाओं कको द्वैत-अद्वैत से ऊपर उठकर आदर देना चाहिए तथापि विचारकाल में उनमें छिपे हुए रहस्यों को अपने विवेक से ही समझना होगा । इतना ध्यान रहे भक्ति के बिना ज्ञान विनाश का परम साधन एवं वैराग्य भी पतन का साधन दंभ का रूप ले लेगा, क्योंकि भक्ति के पुत्र हैं ये दोनो,कोई भी पुत्र बिना माँ के क्षण भर भी अन्यत्र टिक नहीं सकता । वस्तुतः भक्ति आत्मनिष्ठा का ही दूसरा नाम है । जब तक हमारे अन्दर से ज्ञान और भक्ति नामक द्वन्द्व नहीं गया तब तक कैसा ज्ञान और कैसी भक्ति ? यही बात समझाने में संपूर्ण गीता का उद्देश्य रहा है कि सबसे पहले निर्द्वन्द्व हो जाओ (गीता.२/४५) उसके बाद ही आगे समझ में आयेगा अन्यथा नहीं । ओ३म् !
                      — स्वामी शिवाश्रम

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