जितने से आत्मोन्नति हो उतना ही ग्राह्य है

#जितने_से_आत्मोन्नति_हो_उतना_ही_ग्राह्य_है
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#श्रीमद्भागवत_महापुराण_को_लेकर_विद्वानों_में मतभेद_का_कारण
विद्वानों का मानना है कि यह महापुराण श्रीकृष्णद्वैपायन ‘व्यास’ जी द्वारा लिखित नहीं है जिसका कारण स्पष्ट किया अन्य पुराणों में व्यास जी की शैली इस पुराण की शैली में मतभेदों का होना । यह विद्वानों का विषय है अतः शैली निर्णय वही करें । अब उन विद्वानों का मत है कि श्रुति परम प्रमाण है और श्रुति के अनुसार वह परमतत्त्व एकमेवाद्वितीय है । इस बात को भगवती गीता में भी स्पष्ट किया गया है— मत्तः परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति ७/७, वासुदेवः सर्वम् ७/१९ इत्यादि । जबकि अन्य पुराणों में भी पुराणोक्त देवताओं का वर्णन पूजा आदि विधि के पश्चात एकमेवाद्वितीयम् के रूप में ही किया गया है, जबकि उससे भिन्न यहाँ पर चतुर्व्यूह का वर्णन किया गया है,  श्री नारद जी कहते हैं—
नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि । 
प्रद्युम्नायानिरुद्धाय नमः संकर्षणाय च॥भाग.१/५/३७॥ 
अर्थात आप भगवान वासुदेव को नमस्कार करता हुआ आपका विवेक द्वारा वरण करता हूँ अर्थात समाहित चित्त होकर आपका ध्यान करता हूँ, साथ ही प्रद्युम्न, अनिरुद्ध एवं संकर्षण अर्थात बलराम जी को भी नमस्कार करता हूँ । 
किसी भी अन्य पुराणों में या फिर श्रुति में देवता का ध्यान उस उस देवता से भिन्न अन्य देवता के ध्यान का वर्णन कदापि नहीं है । जिस ग्रंथ का जैसा उपक्रम होता है वैसा ही उपसंहार भी होता है अतः द्वादश स्कंध में उपसंहार इसी चतुर्व्यूह के साथ ही हुआ है । इसी चतुर्व्यूह के कारण विद्वानों ने इस पुराण को श्रीकृष्ण द्वैपायन ‘व्यास' जी का मानने से मना करते हैं । यदि इतना भेद न होता तो मैं मुठ्ठी बांधकर कह सकता हूँ कि इस शास्त्र में जो कलेवर है उस कलेवर की समानता कोई भी अन्य शास्त्र नहीं कर सकता है । 
             अब पाठक वृन्द यह कहेंगे कि फिर भागवत इतने मतभेद होने के कारण आचरणीय है या नहीं ? तो इसके लिए भी विद्वानों ने निर्णय श्रुति को ही माना है वह यह कि जितना अंश श्रुति समर्थित है उतने अंश को ग्रहण कर लो शेष को बिना निंदा-स्तुति के छोड़ दो । साधन-साध्य सामग्री सर्वत्र ग्राह्य है अतः उसे ग्रहण कर लेना चाहिए क्योंकि अन्य पुराणों में भी कुछ न कुछ मतभेद होते ही हैं अतः उतने अंश पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए । 
       #उपलब्ध_भागवत_का_काल_निर्णय— 
सूत जी कहते हैं—
आकृष्णनिर्गमात्त्रिंशद्वर्षाधिकगते कलौ ।
नवमीतो नभस्ये च कथारम्भं शुकोऽकरोत् ॥ 
अर्थात भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन के बाद कलियुग के तीस वर्ष से कुछ अधिक व्यतीत हो जाने पर भाद्रपद मास की शुक्ला नवमी को शुकदेव जी ने कथा प्रारंभ की थी । 
परीक्षिच्छ्रवणान्ते च कलौ वर्षशतद्वये ।
शुद्धे शुचौ नवम्यां च धेनुजोऽकथयत्कथाम् ॥
अर्थात परीक्षित के कथा सुनने के बाद कलियुग के दो सौ वर्ष बीत जाने के बाद अषाढ़ मास की शुक्ला नवमी को गोकर्ण जी ने यज्ञ कथा सुनायी थी । 
तस्मादपि कलौ प्राप्ते त्रिंशद्वर्षगते सति ।
ऊचुरूर्जे सिते पक्षे नवम्यां ब्रह्मणः सुताः॥
इसके पीछे कलियुग के तीस वर्ष और निकल जाने पर कार्तिक शुक्ला नवमी से सनकादि ने (भक्ति, ज्ञान, वैराग्य के निमित्त) कथा आरम्भ की । ये प्रमाण पद्मपुराणान्तर्गत श्रीमद्भागवत के अध्याय छः श्लोक ९४-९६ तक है । इस प्रकार कलियुग के २६० वर्ष से अधिक समय व्यतीत होता गोकर्ण की कथा के समय तक उसके पश्चात शौनक जी को कथा सूत श्री रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा जी सुनाते हैं । अतः यह अनुमान करना गलत न होगा कि यह सूत जी के प्रवचन का संग्रह है जो कम से कम कलियुग के तीन सौ वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद हुआ और फिर उस प्रवचन का संग्रह किया गया, इस आधार पर यदि कहा जाये तो पद्म पुराण भी इस ग्रंथ से बाद में ही लिखी गई है जिसे विद्वान लोग बड़ी ही निष्ठा से श्रीकृष्ण द्वैपायन ‘व्यास’ जी का मानते हैं और इस पर भी व्यास जी का लिखा हुआ कहना असंग हो जायेगा । 
#नैमिषारण्य_में_यज्ञ
यहाँ शौनकादि ऋषियों का सहस्र वर्ष चलने वाले महान यज्ञ का वर्णन भी आता है, जिसमें कथा के वक्ता सूत जी ही हैं, इस आधार पर यह यज्ञ भी श्रीकृष्ण के गोलोक गमन के पश्चात लगभग तीन सौ वर्षों के बाद ही हुआ होगा तभी सूत उग्रश्रवा वक्ता हुए, यदि ऐसा हुआ तो बलराम जी का पाताल गमन श्रीकृष्ण से पहले हुआ था और महाभारत के युद्ध के समय ही तीर्थ यात्रा करते हुए नैमिषारण्य में जाकर सूत रोमहर्षण को ब्राह्मणों को सामने उच्चासन पर बैठा ब्राह्मणों को कथा सुनाते देख उनका शिरच्छेदन कर देते हैं जिसके बाद ब्राह्मणों के कहने पर उनके पुत्र उग्रश्रवा को व्यास गद्दी पर बैठाकर कथा का अधिकारी बनाया जाता है, इसका मिलान करने पर भी विसंगति दिख रही है और काल का यथार्थ निर्णय करना कठिन हो रहा है । 
अब देवी पुराण और शिव पुराण के आधार पर नैमिषारण्य के यज्ञ की बात की जाये तो यह यज्ञ सतयुग के प्रारंभ में होता है जिसमें भगवान विष्णु की आज्ञा से उनका चक्र यज्ञ के लिए स्थान निर्णय हेतु भ्रमण करता हुआ जिस जंगल में गिरा और नेमि टूट गई वही नैमिषारण्य नामक स्थान जहाँ की अधिष्ठात्री देवी लिंगधारिणी (ललिता देवी) हैं वहां यही यज्ञ सत्र प्रारंभ होता है । वहीं श्वेता ऋषि द्वारा श्वेताश्तरोपनिषद का प्रवचन, और तैत्तिरीय उपनिषद की उत्पत्ति बतायी गई है, यह और अधिक मतभेद उत्पन्न करने वाला विषय हो जाता है । इस पर विवेकशील विद्वान कल्पभेद की बात करने लगते हैं । यह बात आवश्यक नहीं कल्पभेद के नाम से सबके गले उतरे और न मानने पर नास्तिक, अश्रद्धालु शास्त्र निंदक आदि गालियों द्वारा मानने को विवश किया जाये । मैं इसके पक्ष में बिल्कुल नहीं हूँ । इसकी जगह पर यह कहा जाये आपको आत्मोन्नति जिस मार्ग से संभव हो उस मार्ग का श्रुति समर्थित किसी भी ग्रंथ से उतना ही अंश चयन कर लो शेष कथा कहानियों इत्यादि पर ध्यान ही मत दो, शास्त्र उतना ही है जितने से हमारा उद्धार हो सके वही ग्राह्य है बाकी अग्राह्य । ओ३म् !

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