गीता में जाति व्यवस्था
गीता में जाति व्यवस्था
मैं कुछ समय से देख रहा हूँ कि कुछ लोग गीता में वर्ण एवं जातीय व्यवस्था न होने का दावा करते हुए केवल गीता के नाम पर जाति का दुरूपयोग किया जाना बतातें हैं । यह बात यद्यपि यथार्थ सत्य है कि जाति का दुरूपयोग आज वे भी कर रहे हैं जो ब्राह्मणादि चिढ़ते हैं और अन्तर्जातीय विवाह के द्वारा जातीय भेदभाव मिटाने की वकालत करते हैं किन्तु वही लोग सरकारी आरक्षण की भीख जाति के नाम पर ही पाते हैं तथा दूसरा ब्राह्मणादि पक्ष भी आज भी अपनी कमियों को सुधारने के स्थान पर और अधिक ब्राह्मणादि के नाम का दुरूपयोग करने में पीछे नहीं हैं जो कि अनुचित है ।
इस विषय में मैं बहुत व्याख्यान न देता हुआ इतना ही कहना चाहता हूँ कि जो लोग गीता में जाति या वर्ण नहीं मानते हैं, वर्ण व्यवस्था संबंधित चतुर्थ अध्याय के प्रसंग की मनमानी व्याख्या करते हैं, उनसे पूछना चाहता हूँ कि क्या गीता का पूर्वापर क्रम से अध्ययन किया है ? यदि नहीं किया तो कर लो—
‘कुलक्षयकृतं दोषम्’ १/३८-३९ अर्थात कुल क्षय को दोषपूर्ण बताया गया है । ‘कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः’ १/४० अर्थात कुलनाश से अनादिकालीन कुल परंपरा (कुल की शुद्धता) नष्ट हो जायेगी अथवा कुल की शुद्धता और सनातन धर्म अर्थात मोक्ष का मार्ग दोनो ही नष्ट हो जायेंगे, कारण कि स्त्रियाँ दूषित हो जायेंगी और वर्णसंकर उत्पन्न हो जायेगा, जिसे हम वर्णबाह्य भी कह सकते हैं ।
इतना ही नहीं— ‘उत्साद्यन्ते जाति धर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः’ १/४३ अर्थात वर्ण संकर से जाति (ब्राह्मणादि वर्ण अथवा विभिन्न जातिभेद की शुद्धता) धर्म भी नष्ट होगा, साथ ही उन उन जातियों का जो कुल धर्म अर्थात कुल परंपरा जो कि शाश्वत अर्थात अनादि कालीन है वह भी नष्ट हो जायेगी । यह है गीता में जाति धर्म की अनादिता का वर्णन ।
इसके अतिरिक्त महाभारत में वर्णित विदुर जी को दुर्योधन हमेशा जाति सूचक दासीपुत्र (जो कि शूद्र जाति का बोधक है) कहकर अपमानित करता था । एकलव्य तथा कर्ण भी जातिभेद के कारण ही आचार्य द्रोण से शास्त्र विद्या नहीं सीख सके, एकलव्य का अंगूठा कट गया और कर्ण परशुराम के पास ब्राह्मण बनकर सीखा और भेद खुलने पर शापित हुए, यहाँ तक भगवान भी कर्ण को गीता के अध्याय ११ में सूतपुत्र ही कहते हैं । स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को हमेशा ग्वाला कहकर ही संबोधित और अपमानित किया गया । अतः मेरा विचार है कि जातीय कुंठा से ग्रस्त होकर गीता के मूल सिद्धांत से भ्रमित नहीं होना चाहिए और न ही किसी को भ्रमित करना चाहिए । अर्थ और भाव में शुद्धता रखना ही हमारे उत्थान का सूत्र है और जातीय झगड़े तो हमारी व्यक्तिगत समस्या है । अतः उसे अलग से सुलझाना चाहिए । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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