सृष्टि की अनन्ता और मैं
सृष्टि की अनन्ता और मैं
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जैसा कि हम सभी जानते हैं कि वायु के ४९ भेद होते हैं, किन्तु अग्नि के भी ४९ भेद होते हैं - यह यद्यपि सभी तो नहीं जानते हैं । प्रधानतः आवाहनीय आदि तीन ही अग्नियां प्रसिद्ध हैं, परन्तु जिन्होंने आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया है वे सभी इस रहस्य को जानते हैं । इसी प्रकार पृथ्वी,जल एवं आकाश के भी ४९-४९ भेद माने गए हैं । इस प्रकार पांचों महाभूतों के कुल भेद ४९ × ५ = २४५ होते हैं ।
इन ४९ भेदों में भी प्रत्येक में एक की प्रधानता होने पर सभी के ४९-४९ भेद हो जाते हैं । इस प्रकार क्रमशः पृथ्वी आदि पांचों भूतों के भेद करने पर जिन पदार्थों का निर्माण होता है उनमें प्रधान एक पृथ्वी और पृथ्वी से निकट संबंध रखने वाले ग्रह रूप में ४९ पृथ्वियां हैं । तथा उनके और दूरवर्ती पृथ्वियां ४९×४९= २४०१ हैं । इसी प्रकार अर्थात पृथ्वी (गंध) नाम की तन्मात्राएं १ मूल, उसके ४९ शाखाभेद, प्रत्येक की २४०१ प्रशाखा भेद, कुल मिलाकर २४५१ भेदों में पृथ्वी की गंध नामक तन्मात्रा की स्थिति है ।
उक्त भेदों के आधार पर उतनी उतनी शाखा प्रशाखा भेद से जल, अग्नि, वायु और आकाश की तन्मात्राओं का भी अध्ययन करना चाहिए । इस प्रकार पांचों महाभूतों की योनि रूपा तन्मात्राएं — २४५१×५ = १२,२५५ भेदों में अलग अलग फैली हुई हैं । इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि पांचों तन्मात्राओं के जितने भेद हुए उतने प्रकार के अलग अलग प्राणियों के अनुरूप उनके लोकों ( रहने के स्थानों) का निर्धारण हुआ । इस प्रकार अब इतने भेदों के पश्चात प्रत्येक भेदों का मिश्रण होगा एक प्रधान शेष गौड़ होंगे । यह प्राणियों की उत्पत्ति का पहला स्वरूप होगा । इस प्रकार जब हम गणित करेंगे तो अगणित सृष्टियों का अवलोकन होगा होगा और इसी क्रम से अगणित लोकों का निर्माण भी होता है । काल क्रम से इन भेदों में प्रभेदों की संख्या बढ़ती ही रहती है । जिसका भी अध्ययन आवश्यक हो जाता है ।
इस प्रकार अध्ययन करके हम पुनः अपनी विस्मृति को सृष्टि के मूल केंद्र में स्थापित करके अनन्त आश्चर्यमय खोज, निर्माण कर सकने में हम सक्षम हो सकते हैं । जीवों की अनन्तता, एकता के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार की गणित यदि हम साकार करने में समर्थ हो जायें तो हम जिन्हें अन्धविश्वास कहने में संकोच नहीं करते हैं उन स्वर्ग आदि लोकों का यहीं बैठे बैठे अध्ययन किया जा सकता है । सूक्ष्म की अनन्तता एवं व्यापकता का स्वतः बोध हो जायेगा । इस प्रकार का बोध हो जाने के पश्चात ही जीव नाम के साथ बन्धन को प्राप्त प्राणी स्वतः मोक्ष स्वरूप हो जाता है । उसके लिए न कोई बन्धन रह जाता है और न ही मोक्ष । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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