तीनों प्रकार के तप की आवश्यकता
तीनों प्रकार के तप की आवश्यकता
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥१८/५१॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः॥१८/५२॥
भावार्थ : विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला ॥५१-५२॥
व्याख्या : — श्लोक ५१ के उत्तरार्ध में श्लोक ३/३४ को स्पष्ट किया गया कि राग-द्वेष इन्द्रियों में उनके विषयों को लेकर होता है अतः राग-द्वेष का त्याग कर देने से ही इन्द्रियों की आधीनता समाप्त जायेगी ।
श्लोक ५२ में ‘विविक्तसेवी’ योगी युञ्जीत ६/१०, और ‘लघ्वाशी’ नात्यश्नतस्तु ६/१६ एवं युक्ताहारविहारस्य ६/१७ को स्पष्ट किया गया है । तथा ‘यतवाक्कायमानसः’ में पहले असंयमित वाणी पर, उसके बाद शरीर पर और अन्त में मन पर विजय पाने के लिए कहा गया है । इसका अर्थ यह कि जिसका शरीर अपने आधीन नहीं है वह न तो वाणी पर नियन्त्रण कर सकता है और न ही मन पर । तात्पर्य यह है कि मन वचन और क्रिया तीनों पवित्र होनी चाहिए इसके लिए ‘देवद्विजगुरुप्राज्ञ’ से लेकर ‘मानसमुच्यते’ १७/१४-१६ तक तीन श्लोकों में कहे गये तीनों प्रकार के तपों से संपन्न होना अतिआवश्यक है, अन्यथा वचन, तन और मन तीनों में एक भी वशीभूत नहीं होगा और लक्ष्य से पतित करा देगा । इसीलिए इस प्रसंग का वर्णन नैष्कर्म्य रूप परम सिद्धि को प्राप्त हुए के लिए ही यह प्रसंग कहा गया है ।
यहां यदि वाणी के अधिष्ठातृ देवता अग्नि को अर्थ में लिया जाये तो खानपान पर नियंत्रण करना उचित होगा, क्योंकि जब खानपान शुद्ध, सात्त्विक और सुपाच्य होगा तभी शरीर नियंत्रित रहेगा और जब शरीर नियंत्रित होगा तभी मन अपने आधीन होगा और जब मन आधीन होगा तभी ‘विविक्तसेवी’ सिद्ध होगा अर्थात एकान्त में शान्ति पूर्वक निवास कर सकेगा । अन्यथा एकान्त घने जंगल में रहकर भी में भी अशान्ति को प्राप्त होकर नगर बसा लेगा और लक्ष्य से साधक पतित हो जायेगा । ओ३म् !
— स्वामी शिवाश्रम
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