विभूति रहस्य

विभूति रहस्य 

भगवती गीता में स्थान भेद से विभूतियों का माहात्म्य भी अलग अलग स्थान पर अलग अलग लक्ष्य को निर्धारित करती हैं, जैसे सातवें अध्याय की चार श्लोकों में कही गई विभूतियों ने परमेश्वर की व्यापकता और शरीर एवं शरीरी में अभेद दर्शन कराने के लिए है । जैसे — जल में रस मैं हूँ, इसमें बताया गया है कि जल में रस का महत्त्व और जल में अभिन्नता किस प्रकार है ? रस तन्मात्रा भी है और विषय भी । जल स्थूल रूप है और तन्मात्रा जल को धारण करने वाली सूक्ष्म उसकी आत्मा समझना चाहिए, बिल्कुल शरीर और शरीरी की तरह, इसी प्रकार रस नामक विषय भी जल का सूक्ष्म रूप है । हम जब भी खट्टे या मीठे का स्मरण करते हैं तब मुख में पानी अवश्य आ जाता है, क्यों ? इसलिए कि जल और रस में अभिन्न संबंध वैसे ही है जैसे शरीर और शरीरी, नाम और नामी । जल का स्थूल भाग तमोगुण प्रधान, सूक्ष्म विषय रूप रस रजोगुण प्रधान और तन्मात्रा जल की कारण रूपा सतोगुण प्रधान है । रस रूप विषय और तन्मात्रा दोनों का ग्रहण जल के स्थूल रूप ग्रहण से हो जाता है । अतः रस सूत्र है और जल मणि है । यह अभिन्नता दर्शाते हुए इसी प्रकार अन्य वहाँ वर्णित विभूतियों के सारभूत यह बताया गया है कि इसी प्रकार संसार और ईश्वर, जीव एवं ब्रह्म अभिन्न हैं, भिन्न नहीं, बिल्कुल धागे में में पिरोई हुई धागे की मणियों के समान ।

              नवें अध्याय कही गई विभूतियों द्वारा काम दृष्टि से विभिन्न देवताओं का निषेध करते हुए एक मात्र परमात्मा ही उन सबके मूल में हैं, अतः सबके मूल परमेश्वर की ही आराधना करना चाहिए, न कि देवताओं की, क्योंकि परमात्मा की उपासना ही जन्म मृत्यु के बन्धन से मुक्त करने वाली है, क्योंकि यही मानव मात्र का अन्तिम लक्ष्य है, जबकि देवताओं की उपासना तो जन्म मृत्यु के चक्र में डालने ही वाली है । यह देवोपासना मानव का लक्ष्य नहीं कामना द्वारा प्रेरित आगन्तुक और क्षणिक है । 

              अब कोई प्रश्न कर सकता है कि तो क्या वेदों में वर्णित यज्ञादि द्वारा देवों के यजन की शिक्षा निरर्थक नहीं सिद्ध हुई ? क्या गीता देवोपासना का विरोध करके वेद विरोधी नहीं सिद्ध हुई ? तब इसके उत्तर में श्वेताश्वतर उपनिषद के इस अंश को भी देखना आवश्यक हो जाता है —

        यो देवो अग्नौ यो अप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश ।

        य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः ॥ श्वे.उप.२/१७ ॥

जो देव अग्निमें है, जो जलमें है और जिसने सम्पूर्ण भुवनको व्याप्त कर रखा है तथा जो ओषधि और वनस्पतियोंमें भी विद्यमान है उस देवको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ १७ ॥

           इस मंत्र के अनुसार उस परमात्मा की आराधना अग्नि में की जा सकती है, जल में, औषधि अर्थात वृक्ष, घास आदि में भी उसकी उपासना की जा सकती है, परन्तु क्यों ? और कैसे ? तब इसी श्लोक में समाधान दिया गया है कि उसने संपूर्ण भुवनों को ही व्याप्त कर रखा है । अतः संपूर्ण भुवन कहाँ ढूंढोगे ? भुवन भी अनन्त हैं अतः जल अग्नि के साथ ही पांचों महाभूतों के रूप में कहीं भी और कैसे भी आराधना की जा सकती है — इसी बात को शिव महिम्न स्तोत्र में इस प्रकार कहा गया है — 

      त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि त्वमसि पवनस्त्वं हुतवह -

          स्त्वमापस्त्वं व्योमत्वमुधरणिरात्मा त्वमिति च । 

         अर्थात आप ही सूर्य,  चन्द्रमा, वायु, अग्नि,  जल, आकाश, धरती, और आत्मा (जीवात्मा) हो । इन में से किसी भी रूप में या इनके किसी भी एक अंश में उस परमेश्वर की गुण व्याप्ति रूप में गुण रहित परम सत्ता की उपासना की जा सकती है । अब आगे और अधिक स्पष्ट करते हैं — 

           तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः ।

           तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदापस्तत्प्रजापतिः ॥ श्वे.उप.४/२ ॥

वही अग्नि है, वही सूर्य है, वही वायु है, वही चन्द्रमा है, वही शुक्र (शुद्ध) है, वही ब्रह्म है, वही जल है और वही प्रजापति है ॥ २ ॥

          पूर्व श्लोक में वर्णित अग्नि, सूर्य, वायु, चन्द्र एवं जल की व्याप्ति बताकर अब कहते हैं कि उसने मात्र व्याप्ति ही नहीं की है बल्कि इन रूपों में वह अन्य कोई नहीं बल्कि वह स्वयं ही है । अतः यहाँ यह सिद्ध होता है कि देवाराधन का लक्ष्य स्वर्गादि प्राप्ति के लिए सीमित लक्ष्य न रखते हुए देवता की भी सीमित की जगह व्यापक भाव से व्यापक लक्ष्य को सामने रखकर परमेश्वर से अभिन्न रूप में उन्हीं देवताओं की उपासना की जाये तो निश्चित ही कल्याणकारी एवं मोक्षदायक सिद्ध होंगे । इसका विवरण उपनिषदों में बहुत व्यापक रूप से प्राप्त होता है । 

         फिर कहते शुक्र रूप भी वही परमेश्वर है । शुक्र का अर्थ किया शुद्ध अथवा निर्मल या निर्विकार । यदि आप की चेतना स्वरूप में जाग्रत होकर निर्विकार भाव को प्राप्त हो चुकी है तो फिर यही निर्विकार स्वरूप उस ब्रह्म का ही है फिर अन्य किसी उपासना की आवश्यकता भी क्या है ? क्योंकि ब्रह्म का स्वरूप निर्विकार ही है । ब्रह्म भी वही है — यहाँ निर्विशेष ब्रह्म का कथन किया गया है । अब यदि निर्विशेष ब्रह्म की उपासना करनी है तो निर्विशेष पहले स्वयं को होना पड़ेगा । सोचो….!!!!! कहीं विद्वान बनने की विशेषता, पद या पदासीनता की लोलुपता, या अन्य कोई विशेषता तो कहीं आप में नहीं है ? यदि परमाणु लेश भी विशेषता या विशेषता की कामना है तो क्या आप निर्विशेष ब्रह्म की उपासना के अधिकारी हो ? यदि नहीं तो फिर जब सब कुछ वही है अंश और अंशी रूप से, शरीर और शरीरी रूप से तो फिर उसकी उपासना मूर्ति इत्यादि के रूप में क्यों नहीं हो सकती है ? किसी देवता के रूप में क्यों नहीं हो सकती ? गीता में देवताओं की उपासना का खंडन या निंदा नहीं की गई है, बल्कि भेदोपासना की निंदा की गई है जैसा कि यहाँ भी भेदोपासना की उपेक्षा की गई है । 

       इतना ही नहीं प्रजापति भी परमेश्वर ही है, यहाँ प्रजापति का अर्थ प्रजा को उत्पन्न करने वाला प्रजा का स्वामी अर्थात वीर्य । जो काम द्वारा ही सक्रिय होता है । उसके रूप में उपासना करनी चाहिए । कैसे ? तो इसके लिए प्रश्नोपनिषद में रयि और प्राणोपसना के रूप में विधिवत् उपासना कही गई है, वहीं से गुरुमुख द्वारा समझना चाहिए । गीता में तो श्रीभगवान ने संकेत मात्र दिया है — धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि अर्थात मैं (सन्तानोत्पादक) वह काम हूँ जो धर्म को बाधा न पहुंचाए ।

           उपनिषद आगे कहता है —

       त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी । 

       त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ॥श्वे.उप.४/ ३ ॥

तू स्त्री है, तू पुरुष है, तू ही कुमार या कुमारी है और तू ही वृद्ध होकर दण्डके सहारे चलता है तथा तू ही [प्रपञ्चरूपसे] उत्पन्न होनेपर अनेकरूप हो जाता है ॥ ३ ॥

           वह परमेश्वर स्त्री है । भला बताओ कि जो नास्तिक और वामपंथी हैं, उनसे आशा ही क्या करना ? परन्तु जो आस्तिक हैं, ईश्वर और धर्म की सत्ता को मानने वाले हैं, वे लोग उस परमेश्वर की जो आपके घरों में पत्नी, माँ, बहन, बेटी इत्यादि के रूप में है उसका कितना सम्मान करते हो ? बिना किसी कारण के भी अकेले ही नहीं बल्कि किसी के भी सामने अपमान कर बैठते हो, चाहे उसके मायके पक्ष के सामने हों, ससुराल पक्ष के सामने हों अथवा अन्य कोई सम्मानितजन । अकेले में अथवा चार लोगों के बीच में । अथवा बराबर के हो चुके और अथवा स्वयं पिता बन चुके आपके स्वयं के बेटों के सामने हो । उपनिषद ने कुमारी अर्थात अविवाहित लड़की को भी कहा कि वह कुमारी परमेश्वर ही है । अब करते नवरात्रि आदि पूजन हो और फिर उन्हीं कुमारियों का बलात्कार और नृशंस हत्या तक कर देते हो । 

            इतना ही नहीं पुरुष भी वह परमेश्वर ही है और कुमार भी । इसका अर्थ यह हुआ कि पुरुष विवाहित पुरुष को कहा गया है और स्त्री विवाहित स्त्री को । क्योंकि संतानोत्पत्ति का हेतु पौरुष अर्थात शुक्र है । जिसके द्वारा विवाहोपारान्त ही सन्तानोपत्ति होगी तभी पुरुष का पुरुषत्व और स्त्री की स्त्रीत्व सिद्ध होगा अन्यथा नहीं । उपरोक्त पुरुष एवं स्त्री जो प्राण और रयि से संपन्न है वह स्वयं साक्षात परमेश्वर रूप है । ऐसे ही पुरुष एवं स्त्री से उत्पन्न कुमार अर्थात बालक भी ब्रह्म रूप सत्ता से संपन्न है । हम बालकों का कितना सम्मान करते हैं ? विचारणीय है । 

          आज का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारे यहाँ वृद्धाश्रमों की बरसाती पानी की तरह बाढ़ आयी हुई है, परन्तु हमारे वेद कहते हैं कि जो जीर्णशीर्ण हो चुके हैं, जो अपने सहारे नहीं चल सकते हैं बल्कि लकड़ी ही जिनका आश्रय बन चुकी है, ऐसे वृद्ध भी साक्षात नारायण ही हैं । परन्तु अपने ही माँ-बाप वृद्धाश्रम में पल रहे हैं अथवा घर में ही रहकर अनाथों की तरह दर दर की ठोकरें खा रहे हैं, फिर अन्य वृद्धों के लिए क्या कहा जाये ? जो वृद्धों की सेवा के लिए वृद्धाश्रम आदि चला भी रहे हैं तो वे सेवा के लिए नहीं धन के लोभ में व्यापार कर रहे हैं । इसके अतिरिक्त भी जो कुछ प्रपंच है उन अनन्त रूपों में उत्पन्न होने वाला वह परमेश्वर ही है, इसी को गीता में श्रीभगवान कहते हैं — मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति” ७/७ अर्थात मुझसे भिन्न कुछ भी है ही नहीं 

              अब विचार करो कि क्या हम वास्तव में आस्तिक हैं ? क्या हम वैदिक हैं ? क्या हम धर्म की बड़ी बड़ी व्याख्याएं करने वाले धर्म को दूर से भी देख पाये ? 

           अब प्रश्न यह भी है कि फिर उसका स्वरूप क्या है ? उसकी अनुभूति किस प्रकार और किस रूप में हो सकती है ? इसका उत्तर उपनिषद स्वयं देते हैं —

       नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः । 

       यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स स रक्ष्यते ॥ १० ॥

यह [विज्ञानात्मा] न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। यह जो-जो शरीर धारण करता है उसी उसीसे सुरक्षित रहता है ॥ १० ॥

        अर्थात वह स्त्री पुरुष नपुंसक कुछ भी नहीं है । संपूर्ण जगत तीनों लिंगों में उसी से व्याप्त होने के कारण वह यद्यपि उन तीनो लिंगों से भिन्न है तथापि प्राप्त तो उन्हीं तीनो लिंगों के ही अन्तर्गत होगा । अर्थात यह श्रद्धा का विषय है कि किसे किस रूप में और कैसे उस परमतत्त्व की अनुभूति होती है । इसी बात को गीता में श्रीभगवान स्पष्ट करते हैं — श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । अर्थात जिसमें श्रद्धा है, जिसने शरीर सहित अपनी चतुर्दश इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है और ज्ञान प्राप्ति के लिए अत्यंत छटपटाहट है, व्याकुलता है, वही ज्ञान को प्राप्त कर सकता है अर्थात ऐसे व्यापक तत्त्व का पहले परोक्ष और कालांतर में अपरोक्ष अनुभव प्राप्त कर सकता है । भला बताओ जब परमेश्वर कण कण में है तो फिर किसी कागज, मिट्टी, पत्थर की मूर्ति या वृक्ष आदि में कैसे नहीं है ? और क्यों नहीं है ? क्या आपके व्यापक और कण-कण में निवास करने वाले निराकार परमेश्वर के लिए कहीं ऐसा वर्णन आता है ? कि परमेश्वर वृक्षों, मूर्तियों और जो आपके मत से सहमत न हों उनको छोड़कर शेष सब जगह और सभी कणों में व्याप्त है ?  अगर नहीं तो दूसरे की आस्था पर ठेंस पहुँचाकर कहीं अपने ही आराध्य की निंदा का प्रायश्चित रहित अपराध तो नहीं कर रहे हैं ? 

          इस प्रकार गीता के नवें अध्याय की विभूतियों का उद्देश्य देवताओं के साथ अभिन्न परमेश्वर की सत्ता का परोक्ष अनुभव कराना मात्र है ।  फिर दसवें अध्याय की विभूतियों के वर्णन का उद्देश्य ही कुछ अलग है क्योंकि जिस प्रकार चौथे से लेकर छठे श्लोक तक विभूतियों का वर्णन श्रीभगवान ने किया उससे तो अर्जुन घबड़ा ही गया कि इतनी इतनी संक्षेप किन्तु व्यापकता से आप परमेश्वर का चिन्तन कर पाना मेरे वश का नहीं है, अतः अपनी सामान्य विभूतियों के अतिरिक्त दिव्य (अलौकिक) विभूतियां कहो — दिव्या ह्यात्म विभूतयः १०/१६ और उन भाव विशेष को भी कहिए जिनके चिन्तन मात्र से आपकी अनुभूति हो सके  — केषु केषु च भावेषु १०/१७ । अतः विभूतियों को विस्तार से तो कहो, किन्तु इतनी व्यापकता से नहीं बल्कि मात्र दिव्य विभूतियां ही कहो । 

              यहाँ की विभूतियां परोक्षानुभव कराती हैं और अत्यन्त संक्षेप से एक ही वाक्य में श्रीभगवान ने कह दिया कि संपूर्ण प्राणियों के अन्दर स्थित आत्मा अर्थात जीवात्मा मुझ परमेश्वर को ही जान । जब संपूर्ण प्राणियों के अन्दर सभी आत्माएं परमेश्वर ही हैं तो शरीर और शरीरी की अभिन्नता के कारण सभी परमेश्वर हो गये यह समझ । यदि इतना समझ में नहीं आता है तो आदि अर्थात उत्पत्ति, अन्त अर्थात मृत्यु और मध्य अर्थात जन्म और मृत्यु के बीच का जीवन भी मुझ परमेश्वर को ही जान । 

             यह तो दिव्य विभूतियों का उपदेश पूर्ण हो गया जो संक्षिप्त और व्यापक हैं । आगे अर्जुन के प्रश्न किन-किन भावों को लेकर था, तो उसका उत्तर भाव प्रधान विभूतियों के रूप में शेष अध्याय पूर्ण हो जाता है । यह परोक्ष ज्ञान हो गया । ग्यारहवें अध्याय में अपरोक्ष ज्ञान होने पर कुछ विभूतियों का वर्णन स्वयं अर्जुन ही करते हैं ।

              अब प्रश्न यह भी होता है कि सबको परमेश्वर की व्यापकता का अपरोक्ष अनुभव क्यों नहीं होता है ? इसके लिए पन्द्रहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में बताया कि बिना प्रयत्न के ही (तो थोड़े प्रयत्न मात्र से) जितेन्द्रिय को शीघ्र प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाती है, परन्तु अजितेन्द्रिय को बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं हो पाता है । अब जितेन्द्रिय किस प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव करता है ? उसका वर्णन बारहवें से लेकर पन्द्रहवें श्लोक तक अपनी विभूतियों की व्यपकता का वर्णन एवं ज्ञानी की व्यापक अभिन्न अनुभूति का वर्णन किया गया है । {शुक्ल यजुर्वेद का सोलहवां अध्याय (रुद्राष्टाध्याई का पांचवां अध्याय) और अधिक विभूतियों का वर्णन अनुभूति सहित करता है।}

             इस प्रकार गीता की विभूतियों के रहस्य को जो भी जान लेगा वह कम से कम अपरोक्षानुभूति भले न कर सके परन्तु परोक्ष व्यापकता का ज्ञान निश्चित हो जायेगा और सगुण-साकार, सगुण-निराकार एवं निर्गुण-निराकार (निर्विशेष परमतत्त्व) के झगड़े की मानसिकता तो समाप्त हो जायेगी, स्वयं को विद्वान और अपना ही पक्ष श्रेष्ठ सिद्ध करने में उत्पन्न परमेश्वर की निंदा रूप दोष, अखंड के खंडन का दोष तो नहीं लगेगा । ओ३म् !

स्वामी शिवाश्रम 

             


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