प्राणाहार एवं स्वास्थ्य

 

           कहते हैं स्वास्थ्य हजार नियामत अर्थात स्वास्थ्य यदि अच्छा तो हजार अत्यन्त प्रिय वस्तुओं में से एक है । इसे हमारे आयुर्विज्ञान की दृष्टि से इस प्रकार कहा गया है―

धर्मार्थकाममोक्षाणां मूलमारोग्यमुत्तमम् ।

रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसे जीवितस्य च ॥

            अर्थात धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चारों को या इन चारों में एक को भी यदि प्राप्त करना है तो उसका श्रेष्ठ मूल कारण है आरोग्य, इसलिये चाहे भोगों के उद्देश्य से जीवित रहना मात्र हो अथवा मोक्ष की प्राप्ति करनी हो दोनो ही परिस्थितियों में रोगों का नाश कर ही देना चाहिए ।

           इस विषय में मैं अपने एक लंबे जीवन का अनुभव साझा कर रहा हूँ । मैं लगभग ३५-४० वर्ष से अपने कुछ पूर्व के और कुछ इस जन्म के कुकृत्यों के कारण किसी न किसी रूप में निरन्तर अस्वस्थ रहता हूँ । मेरा बिना दवा के जीवन धारण करना दुर्लभ हो रहा था । जिसके कारण सन् १९९२ ई. में गंगा के किनारे अन्न जल त्यागकर शारीर त्याग करने का निश्चय करके जा रहा था । मार्ग में रात्रि विश्राम जहाँ हुआ वहाँ एक वैद्य जी ने समस्या सुनी और कहा कि जब मरना ही है तो मर जाना लेकिन थोड़ा रुको मैं भी कुछ देख लूं और उन्होंने चिकित्सा की अतः वह अवसर टल मात्र गया । पुनः सन् १९९७ ई. में आत्महत्या के कई प्रयास किये किन्तु अन्त में मति बदल जाती कि शेष भोगों को अगले जन्म में कैसे भोगूंगा । अतः मरने का निश्चय विरजा होम (संन्यास) पूर्वक निश्चय किया और संन्यास के पश्चात नर्मदा परिक्रमा करते हुए शरीर छोड़ने का निश्चय किया । स्थिति बद से बदतर थी जिस व्यक्ति को सौ मीटर भी चलना दुर्लभ था वह नर्मदा परिक्रमा तो करके स्वस्थ लौट आया लेकिन मौत ने वरण नहीं किया । आगे बहुत लंबी कहानी को छोड़कर अब की स्थिति बताता हूँ―

             मैने निश्चय किया कि जितना भोजन एक बार में करता हूँ उससे भी कम दो बार में करूंगा, यदि कुछ संभला तो ठीक है अन्यथा अनशन करूंगा । मैने एक समय का भोजन घटा कर पहले ही भोजन आधा कर दिया और उस आधे में भी आधा ही एक बार में लेना है । तो स्वाभाविक है क्षुधा विचलित करेगी ही, किन्तु वहाँ मैने ब्रह्मयोग का आश्रय लिया कि यदि सब कुछ ब्रह्म ही है तो फिर क्षुधा और उसे सहन कर लेना ब्रह्म क्यों नहीं हो सकता ? अतः उसे सहन कर लिया । उसके चौथे या पांचवें दिन स्वामी संविदानन्द जी का ऑडियो आया (स्वामी जी कहाँ के हैं मैं नहीं जानता किन्तु Whatsapp पर जुड़े हैं) जिसमें वे मिताहार का अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं― अर्धरोगहरीनिद्रा सर्वरोगहारी क्षुधा अर्थात आधा रोग तो निद्रा हरण कर लेती है और सभी रोगों का नाश भूख कर देती है । भूखा रहने का तात्पर्य मिताहार ही है निराहार नहीं । इसके अतिरिक्त भी हमारे यहाँ गांव की कहावत है कि दवा आधे रोगों का नाश करती है और पथ्य (परेहज) सभी रोगों का । अतः अब मैं और अधिक दृढ़ हो गया किन्तु क्षुधा तो क्षुधा है आज इस प्रक्रिया को अपनाये २०-२५ दिन लगभग हो चुके हैं तथापि भोजन के समय आज भी भरपेट खाने के लिए विचलित हो जाता हूँ, तथापि मन को नियंत्रण कर ही लेता हूँ ।

            अब प्रश्न यह भी हो सकता है कि मन कैसे नियंत्रित होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि यदि पेट भरा रहे तो मन विचलित नहीं होगा । अतः मैने खाली पेट भरने का दो प्रकार से निश्चय किया । पहला यह कि जब प्यास लगे तो अधिक पानी पीकर उदरपूर्ति कर दी जाये, जिसका सूत्र यह अपनाया कि जब भी प्यास लगती तो जितना पानी पीना है उसे कई बार में थोड़ा थोड़ा पीना जिससे पानी को आसानी से शरीर पचा सके और न तो जठर पर प्रभाव पड़े और न ही बार बार पेशाब जाने की समस्या हो । और दूसरा उपाय यह था कि प्राणाहार किया जाये । अतः भोजन के पश्चात सबसे पहले बज्रासन या स्वस्तिकासन में बैठकर प्राणाहार करके शेष पेट भरता और फिर निश्चित समय के पश्चात जलाहार से । इस प्रकार पहले तो शरीर में कुछ कमजोरी का अनुभव हुआ किन्तु अपनी दृढ़ता को बाधित नहीं होने दिया । आज भी सुबह उठने में कमजोरी का अनुभव तो होता है लेकिन कुछ समय पश्चात उपरोक्त प्राणाहार आदि के माध्यम से स्वस्थ हो जाता हूँ ।

            इसके साथ ही मैने जिन दवाओं का चयन किया है वे सभी सामग्रियां हमारे रसोई घर में नित्य उपयोग में आने वाली वस्तुएं हैं जिन्हें किसी वैद्य की सलाह से तैयार किया है । आज मैं कोई भी भारत में अंग्रेजी दवा नहीं ले रहा हूँ । आपातकाल कभी कभार पेट सफाई के लिए मात्र डलकोलैक्स को छोड़कर ।

          इसके अतिरिक्त मैं गुर्च (गुड़बेल, गुड़ूचिका अमृता आदि) का काढ़ा गुड़ डालकर कालीमिर्च एवं लौंग का चूर्ण एक निश्चित मात्र में मिलाकर तैयार करता हूँ जिसमें लगभग एक चम्मच घी एवं हल्की सी हल्दी का प्रयोग करता हूँ । यह मेरा पहला पेय है । इससे पहले पद्मासन, बद्धपद्मासन, बज्रासन, बद्धबज्रासन, अग्निसार, नौली, एवं हस्तपादासन करता हूँ । साथ ही एक्यूप्रेशर का भी आश्रय लिया हुआ है । आज मैं समझ सकता हूँ कि एक्यूप्रेशर एवं मसाज द्वारा चिकित्सा की पद्धति हमारी उस संस्कृति का हिस्सा है जिसमें हमारे सनातन धर्म में बड़े लोगों के हाथ-पांव दबाना, शरीर की मालिस करना आदि सम्मानित था यह उसी का संशोधित स्वरूप मात्र है उसमें कुछ भी नया नहीं है । हमने आज आसन एवं व्यायाम का भी अब महत्व समझा है । 

         अब मैं मुठ्ठी बांधकर कह सकता हूँ कि यदि अपनी भारतीय संस्कृति के उपेक्षित अंगों को पुनः समेटकर जीवन का अभिन्न अंग बना लें तो कभी भी रोगी नहीं हो सकते, और यदि रोग आता है तो लगभग जीवन का अन्तिम समय भी हो सकता है, किन्तु दुर्भाग्य है कि हमने भी आज की आधुनिक चकाचौंध में सम्मिलित होकर ऐसे जीवन का चयन कर लिया हैं जिसके कारण न जी सकते हैं और न ही मर सकते हैं । यदि हमारा मोक्ष या अध्यात्म से कोई संबंध न भी हो तो भी स्वस्थ और सुखी जीवन जीने के लिए भी हमें शास्त्रों और महापुरुषों के अनुभवों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए । हमारे सुखी जीवन के लिए भगवती गीता जहाँ अध्याय १७ में सात्विक राजस और तामस तीन प्रकार के भोजन का विभाग करके सात्विक भोजन पर बल दिया है वहीं अध्याय ६ में―

युक्ताहारविहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु ।

युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥

         कहकर भोजन आदि की सीमा भी सुनिश्चित कर दी है क्योंकि आहार की शुद्धि ही हमें स्वस्थ जीवन एवं मोक्ष दोनो ही देने में सक्षम है जिसके लिए श्रुति कहती है―

आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।

स्मृतिर्लाभे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ॥

         आहार की शुद्धि का ज्ञान रखने वाले की ही बुद्धि शुद्ध होगी और जिसकी बुद्धि शुद्ध है उसी का निश्चय दृढ़ होगा एवं जिसका निश्चय दृढ़ होगा वही विवेकशील संपूर्ण ग्रंथियों का नाश करने में सफल होगा, फिर वह ग्रंथि चाहे असाध्य रोगों की हो या जीव ब्रह्म के भेद या अभेद की ।

           आज मैं कह सकता हूँ कि भोजन के परिमित हो जाने के कारण यद्यदि शरीर में ढीलापन आया है तथापि शरीर फूल जैसा हल्का एवं मन प्रसन्न रहता है जिसके कारण मैंने अपने कई मानसिक रोगों की पहचान भी कर ली है । परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह मेरे इस प्रकार के निश्चय को और अधिक दृढ़ बनाये । ताकि शरीर स्वास्थ्य मिले न मिले लेकिन मानसिक रोगों से मुक्त हो सकूँ भले ही मुझे प्राणाहार पर ही जीवन क्यों न व्यतीत करना पड़े ।

बायीं करवट सोइए जल बाएं स्वर पीव ।

दहिने स्वर भोजन करे तो सुख पावे जीव ॥

        अर्थात महापुरुषों के स्वास्थ्य नियम के अनुसार संपूर्ण शीत या शान्त कर्म बाएं एवं उष्ण या पारिश्रमिक कर्म दाहिने स्वर की प्रधानता में करने चाहिए । ओ३म् !

         सूचना :― कोई भी लेख पूर्ण नहीं होता है, अतः कुछ करने से पहले कुछ विचार कर लें । 

―स्वामी शिवाश्रम

              

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
बहुत ही लाभदायक एवं प्रासंगिक।
प्रणाम।
swamiraghavendradas ने कहा…
श्रीराम! यह साधकों के लिए तो अमृत तुल्य है।।
जी, स्वामी जी !दण्डवत ।
dr. madan gopal vajpai ने कहा…
अत्यंत सुंदर और सामयिक विचार

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