ज्ञानविज्ञान
वास्तव में ज्ञान क्या है ? विज्ञान क्या है ? यह एक आज आधुनिक समय में चर्चा का एक उत्कृष्ट विषय है । आज के विज्ञान और हमारे वैदिक (शास्त्रीय) विज्ञान में बड़ा अन्तर है । आज आधुनिक विज्ञान भी यद्यदि सुख सुविधाएं उपलब्ध कराता है किन्तु साथ ही मौत का सामान (भय) भी उपलब्ध कराता है, इस विज्ञान की विशेषता यह है कि इसका ज्ञान सदैव अपूर्ण रहता है और सदैव कुछ न कुछ नया जानने की इच्छा बनी रहती है, जबकि हमारे शास्त्रीय विज्ञान के अनुसार ‘एक विज्ञान से सर्व विज्ञान’ विदित है । इस विज्ञान के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता । सब ज्ञात अज्ञात हो जाता है और अज्ञात ज्ञात हो जाता है । आज हम इसी विषय पर भगवती गीता के आश्रित होकर विचार करेंगे ।
भगवती गीता के अध्याय २/११ से लेकर २/३० तक जीव के स्वरूप का विस्तृत अविनाशी स्वरूप का वर्णन किया गया है । उस जीव के वास्तविक स्वरूप और उसकी प्राप्ति के साधनों का वर्णन श्लोक ४५ से प्रारंभ होता है―
त्रैगुण्यविषया विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥२/४५॥
यहाँ पर आत्मवान् होने की बात कही गई है अर्थात जिसे ‘मैं’ करके जीव भाव को जानते हैं उसी जीव का जो वास्तविक स्वरूप प्रारंभिक बीस श्लोकों में वर्णित है उस जीव भाव में स्थित होने के लिए कहा गया है क्योंकि वही भाव तीनो गुणों से अतीत द्वन्द्व रहित, नित्य सत्त्व अर्थात अविनाशी और योगक्षेम अर्थात अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा के द्वन्द्व से रहित होने से उसे किसी योगक्षेम की आवश्यकता न होने से ही वही निर्योगक्षेम है, यह स्थिति ही त्रिगुणातीत आत्मभाव में प्रतिष्ठित करने का उत्कृष्ट ज्ञान है, इसी ज्ञान में जब वह प्रतिष्ठित हो जायेगा अर्थात अपरोक्ष कर लेगा तब यही ज्ञान का विस्तार विज्ञान का रूप धारण करके ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करा देगा जिसके फल स्वरूप वह फिर कभी तीनों गुणों और उसके कार्य से मोहित न होकर जन्म-मृत्यु रहित कैवल्य पद को प्राप्त कर लेगा―
एषा ब्रह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥२/७२॥
इस प्रकार गीता के अध्याय दो में उपक्रम स्वरूप संक्षिप्त ज्ञानविज्ञान का वर्णन किया गया है । जिसका विस्तार आगे सातवें अध्याय में किया गया है । किन्तु प्रश्न यह उठता है कि वास्तव में यदि जीव परमेश्वर से अभिन्न है तो वह परमेश्वर की तरह सर्वज्ञ एवं दुःखों से रहित क्यों नहीं है ? इसके उत्तर में श्रीभगवान काम, क्रोध और लोभ को इसका कारण बताते हैं ३/३७, जिसके कारण वह स्वयं को कर्ता मान लेता है ३/२७ फिर नित्य पापचार में रमण करने लगता है और संपूर्ण ज्ञानविज्ञान का नाश कर देता है अर्थात ज्ञानविज्ञान को धुंवे से अग्नि और जेर से बच्चे के समान ढक देता है ३/३८ अतः पहले ज्ञानविज्ञान के नाशक कामादि के नाश का उपाय कर लेना चाहिए―
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥३/४१॥
भगवती गीता इसके लिए विभिन्न उपायों का वर्णन करती है किन्तु मेरा लक्ष्य मात्र ज्ञानविज्ञान को समझना है अतः अध्याय सात में प्रवेश करते हैं―
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥७/२॥
यहाँ पर भगवान ऐसे ज्ञान का विज्ञान के सहित वर्णन करने की प्रतिज्ञा दो श्लोकों में करते हैं जिसको जानकर एकमात्र आत्मभाव का आश्रय लेकर आरूढ़ हुआ सभी प्रकार के संशयों को छिन्नभिन्न कर देगा अर्थात कोई ईश्वर-जीव-जगत के विषय में भिन्नता अभिन्नता का संशय नहीं रहेगा । इसके बाद ऐसे ज्ञान को धारण करने वाले अधिकारी की अत्यंत दुर्लभता का वर्णन करते हुए अष्टधा अपरा प्रकृति का वर्णन करते हैं किन्तु जीव का भी वर्णन यद्यदि परा प्रकृति के रूप में किया है तथापि विचार करने पर कि अन्तःकरण चतुष्टय का वर्णन अपरा प्रकृति के रूप में हो जाने से जीव का अस्तित्व बचता ही कहाँ है ? तथापि इसके बिना भी जीव का वर्णन करते हैं और और उसका लक्षण करते हैं― ययेदं धार्यते जगत् ७/५, और जबकि जीव के स्वरूप का वर्णन करते हुए पहले भी कह चुके हैं― येन सर्वमिदं ततम् २/१७ इसका तात्पर्य यह है कि जीव संपूर्ण जगत को धारण करने वाली चैतन्य सत्ता है इसीलिये ‘येन सर्वमिदं ततम्’ कहा गया अर्थात जिससे यह संपूर्ण जगत व्याप्त है वह जीव या आत्मा नाम से कहा गया है ।
अब यहां पर प्रश्न यह भी उठता है कि संपूर्ण जगत को धारण करने वाला एकमात्र परमात्मा है तो फिर जीव ने कैसे धारण किया ? बस यही बात समझ लेना और उस पर आरूढ़ होकर तद्भावापन्न होकर अभिन्नता को प्राप्त कर लेना ही विज्ञान है । ईश्वर व्यापक और सर्वशक्तिमान है इत्यादि यह ज्ञान है किन्तु ‛जीव ब्रह्म है’ यह जान लेना ही विज्ञान है । यह जीव ब्रह्म कैसे हो सकता है ? इसी बात को बताने के लिए ज्ञान के अधिकारी की दुर्लभता का पहले ही वर्णन कर दिया है । यहाँ पर जिस प्रकार अष्टधा जड़ प्रकृति और परा जीव रूपा चैतन्य प्रकृति का वर्णन किया है वह इस बात का स्पष्ट निर्देश है कि चैतन्य सत्ता तो इन्द्रियातीत परब्रह्म है और वही परा प्रकृति जीवभाव को भी प्राप्त होता है इसीलिए― जीवभूताम् अर्थात यहाँ जीव नहीं कहा है बल्कि जीवभाव को प्राप्त कहा है यही बात समझाने के लिए अध्याय १३/१ में इदं करके संपूर्ण क्षेत्र को अलग कहा और उस क्षेत्र को जानने वाले क्षेत्रज्ञ को अलग कहा है एवं उस क्षेत्रज्ञ को कहते हैं― क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत १३/२, यहाँ संपूर्ण क्षेत्रों का क्षेत्रज्ञ बताया है जबकि― अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः १०/२० इस प्रकार पहले भी संपूर्ण प्राणियों में स्थित आत्मा अर्थात जीव मैं हूँ कह चुके हैं । इसी बात को श्रीमद्भागवत में में कहा गया है―
अहमेतत्संख्यानं ज्ञानं तत्त्व विनिश्चयः ।
मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना ।
सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित् ॥११/१६/३८
स्पष्ट रूप से उद्धव को उपदेश देते हुए श्रीभगवान अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए ‛जीव मैं हूँ’ यह स्पष्ट करते हैं, साथ ही वे इस बात का भी निराकरण कर देते हैं कि कोई जीव और आत्मा को भिन्न न समझ ले अतः कहते हैं ‘सबकी आत्मा मैं हूँ’ यह वाक्य ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः’ १०/२० का स्पष्ट प्रतिनिधित्व करता है । यहाँ एक बात और भी आयी है ‘न भावो विद्यते क्वचित्’ अर्थात मुझे अतिरिक्त और कुछ भी, कोई भी पदार्थ नहीं है अर्थात मैं ही सब कुछ हूँ, । इस प्रकार जीव-ब्रह्म की अभिन्नता का ज्ञान ही वास्तव में ज्ञान है और उस में आरूढ़ता ही विज्ञान है इससे भिन्न सब कुछ अज्ञान ही है―
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥१३/११॥
इस प्रकार गीता में वर्णित अष्टधा प्रकृति अर्थात इदन्ता और पराप्राकृतिक अर्थात जीवभाव को प्राप्त सीमित अहन्ता का स्वयं से अभिन्नता दिखाने के लिए ही आगे कहते हैं कि ये संपूर्ण प्राणियों के उत्पत्ति के हेतुभूत मेरे द्वारा ही सभी धारित हैं क्योंकि मैं ही सबका निमित्तोपादान कारण हूँ ७/६ एवं अहं सर्वस्य प्रभवः मत्तः सर्वं प्रवर्तते १०/८ अर्थात सबकी उत्पत्ति भी मुझसे और क्रियाशीलता भी मुझमें (परमसत्ता में) होती है । यहाँ पर सबका निमित्तोपादान कारण कहने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो सत्स्वरूप प्रातिभासिक जगत है और जो अज्ञानियों की दृष्टि से ओझल असत्स्वरूप परमेश्वर है वह सब एक मात्र परेश्वर ही है, इसी बात को लेकर― मत्स्थानि सर्वभूतानि ९/४ कहते हुए― सदसच्चाहम् ९/१९ कहा गया । अर्थात पर्दे पर दिखने वाला चित्र परदे में स्थित है किन्तु परदा चित्र में नहीं है तथापि उसमें दिखने वाला सत्स्वरूप चित्र और जिस पर बच्चों की दृष्टि जा ही नहीं सकती वह असत्स्वरूप पर्दा दोनो ही पर्दा हैं जैसे, वैसे ही परमेश्वर सबका निमित्तोपादान कारण होने से सत् और असत् दोनो ही है क्योंकि― मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ७/७ अर्थात यहाँ भी श्रीमद्भागवत के पूर्वोक्त कथन का ही प्रतिपादन किया गया है कि मुझसे भिन्न अन्य कोई भी पदार्थ है ही नहीं । यहाँ पर ‘यत्किञ्चित्’ शब्द विशेष विचारणीय है । अतः जब उससे भिन्न कुछ है ही नहीं तो फिर मैं (सीमित अहन्ता लक्षित जीव) कहाँ से आ गया ? इसका तात्पर्य यह है कि वास्तव में जीव है ही नहीं, किन्तु सीमित अहंता के कारण स्वयं को जीव मान बैठा, अतः परिछिन्न हुआ स्वयं को कर्ता-भोक्ता मान बैठा, जिसके निवारण के लिए भगवान कहते हैं कि वह जिसे तू सीमित अहन्ता वाला जीव समझ रहा है वह और कोई नहीं व्यापक अहन्ता वाला मैं स्वयं ब्रह्म ही हूँ । इस ‛मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ की ही सापेक्षता में― न चा मत्स्थानि सर्वभूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ९/५ एवं न सत्तन्नसदुच्यते १३/१२ कहा गया है अर्थात थोड़ा विचार करके व्यापक दृष्टि से देखो तो क्या पर्दे पर चित्र है ? अगर नहीं तो सत् सा दिखने पर भी उस पर्दे में न होने से उसे सत् नहीं कहा जा सकता है किन्तु चूंकि अज्ञानी को पर्दे का ज्ञान ही नहीं है अतः वह उसे असत् भी नहीं कह सकता । तथापि वहाँ जब पर्दे से भिन्न कुछ भी दिखने पर भी न दिखे अर्थात भिन्न दिखने पर भी अभिन्न दिखे यही विज्ञान है, अर्थात जब जीव और ईश्वर सत्ता समाप्त हो जाये और मम (मेरी) माया (संकल्प विकल्पों) का उपसंहार हो जाये । मम (मेरी) माय जब आत्ममाया (स्व से अभिन्न या संकल्प विकल्प के अभाव में) आत्मरूपता को प्राप्त हो जाये ईश्वर-जीव की ग्रंथि का नाश हो जाये जब अभिन्न, नित्य अविनाशी अनन्त एकमेवाद्वितीयम् की अनुभूति एवंं उसमें स्थिरता हो जाये यही विज्ञान है । उससे भिन्न ईश्वर एवं जीव का प्रतिपादन ज्ञान है और शेष अज्ञान है । ओ३म् !
―स्वामी शिवाश्रम
टिप्पणियाँ
जीव और आत्मा का अंतर अच्छे से बताया आपने।