त्रिविध रोग



                संसार का हर प्राणी किसी न किसी रोग से पीड़ित है । ये पीड़ाएं तीन प्रकार की होती हैं― आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक । जिस प्रकार से शरीर में तीन धातुओं वात, कफ एवं पित्त की प्रधानता होती है उसी प्रकार जीव भी उपरोक्त तीन प्रकार की पीड़ाओं की प्रधानता वाला है ।आधिभौतिक वह पीड़ा है जो विभिन्न प्रकार के अनुपयोगी खानपान, रहनसहन आदि के व्यतिक्रम से उत्पन्न रोगों के द्वारा शारीरिक क्लेश होता है, आधिदैविक में सर्प, व्याघ्र, भूकंप, अति वृष्टि, अनावृष्टि आदि, आध्यात्मिक पीड़ा में जीव के अपने अनन्त असीम सुख की प्राप्ति की इच्छा का होना किन्तु उसे प्राप्त न कर पाने की दशा में छटपटाना ।

               जीव के मूलतः शारीरिक, मानसिक एवं कर्मज तीन दोष होते हैं जो काम, क्रोध और लोभ के रूप में दिखाई देते हैं । वस्तुतः इन तीनों के मूल में मोह ही कारण है जो अज्ञान की चरम सीमा हैं ― मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला । तिन ते पुनि उपजहिं बहु सूला ।। अन्यथा यदि मोह न होता तो―  ईश्वर अंश जीव अविनासी । चेतन अमल सहज सुखरासी । ईश्वर का अभिन्न अंग है जीव, उसमें सहज ही निर्विकारता है, सुख की सीमा है । उसमें कोई विकार (रोग) है ही नहीं, क्योंकि― जिसका अभिन्न अंग है वह― व्यापक ब्रह्म विरज वागीसा । माया मोह पार परमीसा ।। अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सबदरसी अनवद्य अजीता ।। निर्मम निराकार निरमोहा । नित्य निरंजन सुख संदोहा ।। प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी । ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ।। इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ।। यद्यदि इन चौपाइयों का अर्थ सामान्यतया कठिन है तथापि सार रूप से इतना समझ लेना चाहिए कि जो प्रकृति की भी पहुँच से बहुत दूर है उसमें कोई विकार या रोग कैसे हो सकता है ? फिर भी वह मोह के आधीन हो गया यही माया है । इस मोह के नाश का उपाय तुलसीदास जी बताते हैं― 


बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।

         मोह गये बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ।।

इस प्रकार से विभिन्न रोगों के मूल का वर्णन करके आगे मोह की महिमा सहित विभिन्न रोगों और उनके कारण का वर्णन करते हैं― 


मोह न अंध कीन्ह केहि केही । को जग काम नचाव न जेही ।।

             मोह व्यक्ति को अन्धा बना देता है, अर्थात अन्धा होना यह एक उदाहरण दिया गया है कि जैसा अन्धा कुछ देख नहीं सकता, आंखों से देख न पाने के कारण वह प्रत्येक समझ और कार्य अपने मन के अनुसार ही रखता/करता है । यही हाल मोह ग्रस्त का है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो अन्धा है वह पूर्वजन्म या इस जन्म में भी इतना अधिक मोह ग्रस्त रहा है या है कि फल स्वरूप अंधेपन का लक्षण बाहर नेत्रहीनता के रूप में प्रकट हो गया, ऐसा उदाहरण भी मेरे सामने है जिसके लोभ ने ही उसे आजीवन अन्धा बना दिया है । काम प्रधान व्यक्ति कभी नर्तक के समान स्थिर नहीं रहता अर्थात जिसके शरीर और मन में स्थिरता न हो, जहाँ बैठे वहीं हांथ, पांव मटकाने या नाचने की आदत हो तो समझ लेना चाहिए कि यह कामी व्यक्ति है । इसी प्रकार―


तृष्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा । केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ।।

            बौरा (गूंगापन) होना का मूल कारण तृष्णा, छाती में जलन का कारण क्रोध है । यह सिर्फ जनसाधारण तक ही सीमित नहीं है बल्कि―


ग्यानी तपसी सूर कबि कोबिद गुन आगार ।

केहि कै मोह विडंबना कीन्हि न एहि संसार ।।

            यह बिडंबना ही है कि इस दोहे में कहे गये लोग भी बच नहीं पाते, इसी को दुर्गासप्तशती में कहा गया है―


ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवति ही सा ।

बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।

              इसी बात को तुलसीदासजी कहते―

श्री मद वक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि ।

मृगलोचनि के नैन सर अस को लाग न जाहि ।।

                 अर्थात व्यक्ति का धनबल, जनबल एवं यश की कामना किसे टेढ़ा अर्थात उल्टी सोच वाला नहीं बना देता ? अर्थात इनकी प्राप्ति की इच्छा की कुटिलता ही व्यक्ति के शरीर के विभिन्न अंगों के टेढ़ेपन के दिखने वाले लक्षण हैं मूल कुटिलता ही है, तीनो प्रकार का ऐश्वर्य प्राप्त होने पर उसे अपनी प्रभुता अर्थात सामर्थ्य का घमंड़ा उसे बहरा बना देता है, वह किसी के सुख दुःख को कभी नहीं सुनता (अनुभव नहीं करता ) अर्थात यही बहरे होने का बाह्य लक्षण समझना चाहिए मूल में प्रभुता का अहंकार ही कारण है । माया का यह रस ऐसा कौन है जिसने न लिया हो ?


गुन कृत सन्यपात नहिं केही । कोउ न मान मद तजेउ निबेही ।।

          सन्यपात तो बाह्य लक्षण है वस्तुतः मूल में अपने श्रेष्ठ गुणों का घमंड ही है जो कुछ भी सुनने और समझने नहीं देता और अन्त में पतन को ही प्राप्त करा देता है । कोई भी मान एवं घमंड का वह त्याग करके निर्वाह नहीं कर पाता ।


जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा । ममता केहि कर जस न नसावा ।।

              इसी प्रकार बात बात में बहक जाने (विरुद्ध आचरण या विचारों का उत्पन्न होकर क्रियात्मकता) के मूल में जवानी का बुखार, यश के नाश का मूल कारण ममता ।


मच्छर काहि कलंक न लावा । काहि न सोक समीर डुलावा ।।

            कलंक का मूल कारण दूसरे से डाह, व्यक्ति के शरीर में एक रोग हो जाता है जिससे उसका शरीर या कोई अंग विशेष हमेशा कांपता रहता है, इस रोग का मूल कारण निरंतर किसी न किसी प्रकार का शोक करते रहना ही है । यह नकारात्मक सोच का परिणाम है ।


चिंता सांपिनि केहि नहिं खाया । को जग जाहि न व्यापी माया ।।

           सांप का भय यानी मूल में नाना प्रकार की सांसारिक चिन्ता का होना । यह सब माया अर्थात मोह का परिणाम ही इन रूपों में साक्षात प्रकट है ।


कीट मनोरथ दारु शरीरा । जेहि न लाग घुन को अस धीरा ।।

            शरीर रूप लकड़ी में मनोरथ (मनोराज्य) रूपी कीड़ा ऐसा कौन है जिसे नहीं लगा ? अर्थात संसार में आने के बाद सबको लग ही जाता है । जो ईश्वर से अभिन्न आत्मा (जीव) है निर्विकार है जहाँ अज्ञान का कोई कारण ही नहीं है उसमें मोह के कारण ही मलीनता आ गई और मलीनता के तीन ही कारण हैं―


सुत वित लोक ईषना तीनी । केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी ।।

            पुत्रैषणा, लोकैषणा, वितेषणा अर्थात पुत्र की कामना, यश की कामना एवं धन की कामना ।


व्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ।

सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ।।

           ये मोह की अजेय सेना सारे संसार में व्याप्त है जिसके प्रधान सेनापति बड़े शूरवीर काम दंभ, कपट एवं पाषंड आदि हैं । इस प्रकार यहां पर आध्यात्मिक रोगों का विशेषतः वर्णन किया गया है, जिनका निवारण भी इससे आगे रामचरितमानस उत्तरकांड में वर्णित हैं । 


            आगे मानस रोग का वर्णन करते हैं―


सुनहु तात अब मानस रोगा । जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ।।

काम वात कफ लोभ अपारा । क्रोध पित्त नित छाती जारा ।।

            वस्तुतः लोग शारीरिक रोग से नहीं बल्कि मानसिक रोग से पीड़ा (दुःख) पाते हैं, शारीरिक रोग तो उसका लक्षणमात्र है । वायु रोग का बढ़ना काम की प्रधानता से और लोभ की प्रधानता से कफ रोग होता है, निरंतर छाती को जालाने वाला पित्तरोग क्रोध की प्रधानता से होता है ।


प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई ।।

            जैसे वात, कफ और पित्त की परस्पर मैत्री अर्थात आवश्यकता से अधिक बढ़ जाने पर प्राणी की मृत्यु निश्चित है वैसे ही काम, लोभ और क्रोध तीनों का अधिक बढ़ जाना ही मैत्री है ये तीनो बढ़े तो समझो सीधा नरक का द्वार खुल गया है ऐसे व्यक्ति का―


त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत्त्रयं त्यजेत् ।।गी.१६/२१

          अर्थात जीव के आत्मनाश करने और नरक प्राप्ति के तीन द्वार हैं, काम, क्रोध और लोभ । अर्थात संपूर्ण रोगों की निवृत्ति हेतु इनका त्याग आवश्यक है ।


विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना ।।

             नाना प्रकार मनोरथ जिनका पार पाना अत्यंत कठिन है इन सबको ही सूल अर्थात दुःख नाम से जानना चाहिए ।


            अब आगे रोग और उसका कारण लिखते हैं―

ममता दादु कंडु इरिषाई । हरष विषाद गरह बहुताई ।।

             दाद रोग का मूल कारण ममता, कंडु (एक प्रकार की खुजली) का कारण ईर्ष्या, प्रसन्नता और विषाद (प्रकारान्तर में सोक) ये दोनो गले के बहुत प्रकार के रोग कहे गये हैं ।


पर सुख देखि जरनि सोइ छई । कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ।।

            दूसरे के सुख को देखकर जलना ही क्षय (T.B.) रोग दुष्टतापूर्ण मन की कुटिलता ही कुष्टरोग है ।


अहंकार अति दुखद डमरुआ । दंभ कपट मद मान नेहरुआ ।।

             एक रोग होता है डमरू नाम का, इस रोग में व्यक्ति के संपूर्ण शरीर में छोटी गांठ से लेकर इतनी बड़ी तक गांठ पड़ जाती है कि उतना मांस लटकने लगता है, इन गांठों में तनिक भी दबाव बना तो सुई चुभने जैसी पीड़ा होती है । ऐसा व्यक्ति ठीक से सो भी नहीं पाता । मैने ऐसे दो रोगी देखे हैं, एक तो स्वयं मेरे पांचभौतिक शरीर के उत्पत्ति स्थान में और दूसरा कोल्हापुर महाराष्ट्र में महालक्ष्मी का दर्शन करने गया था वहाँ देखा है । इस डमरू रोग का मूल कारण अहंकार यहाँ बताया गया है एवं दंभ, कपट, घमंड और सम्मान की चाहत ही नाखून के रोगों का मूल कारण है ।


तृष्नाँ उदरबृद्धि अति भारी । त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी ।।

               तृष्णा ही अत्यंत प्रबल जलोदर रोग का हेतु एवं लोकैषणा, पुत्रैषणा एवं वित्तेषणा ये तीनो इच्छाएं ही प्रबल तिजारी रोग है (तिजारी यानी हर तीसरे दिन आने वाले भयंकर बुखार ) ।


जुग विधि ज्वर मत्सर अबिबेका । कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका ।।

             डाह और अज्ञान ये दो प्रकार के बुखार हैं (जैसे सर्दी से आने वाला बुखार और गर्मी से आने वाला बुखार) ।  बहुत प्रकार के कुरोग हैं इनका वर्णन कहाँ तक किया जाये ?


एक व्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि ।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ।।

             बस इतना समझ लो कि एक रोग से तो मनुष्य की मौत ही हो जाती है और ये तो बहुत प्रकार के असाध्य रोग हैं जिनका निवारण कठिन है ऐसी दशा में जीव शान्ति कैसे पा सकता है ? अर्थात शान्ति को प्राप्त होती ही नहीं कर सकता है ।


नेम धर्म आचार तप ग्यान यज्ञ तप दान ।

भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ।।

           नियम, धर्म, सदाचार, ज्ञान, यज्ञ, तप, दान इत्यादि बहुत प्रकार की शास्त्रों और मनीषियों द्वारा चिकित्सा कही गई है फिर भी रोगों का निवारण नहीं होता ।


एहि बिधि सकल जीव जग रोगी । सोक हरष भय प्रीति वियोगी ।।

         इस प्रकार संसार के सभी जीव प्रसन्नता से वियोग कराने वाले सोक, हर्ष भय आदि रोगों से ग्रस्त है ।


मानस रोग कछुक मैं गाए । हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ।।

            मानसकार का कहना है कि रोग इतने ही नहीं हैं और भी बहुत हैं किंतु मैने कुछ प्रधान रोग ही कहे हैं ।


              अब यहाँ शंका हो सकती है कि जिन रोगों का निवारण नहीं हो सकता है उनका वर्णन करने की आवश्यकता ही क्या थी ? इसका समाधान इस प्रकार करते हैं―


जाने ते छीजहिं कछु पापी । नास न पावहिं जन परितापी ।।

             प्राणियों को बारंबार तपाने यानी जलाने वाले ये पापी रोग शरीर रहते नाश तो नहीं होते हैं किन्तु यदि इनके मूल स्वरूप को जान लिया जाये और उसके अनुसार पथ्य को अपनाया जाये तो क्षीण अर्थात बलहीन अवश्य हो जाते हैं जिसका लाभ उठाकर मनुष्य अपना वास्तविक कल्याण अर्थात अपने अनन्त सुखस्वरूप आत्मभाव को प्राप्त करके शरीर यानी प्रकृति को पार करके नित्यानन्द स्वरूप में स्थित होकर इन रोगों से मुक्त हो सकता है । 

             इस प्रकार आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक रोगों का वर्णन तुलसीदासजी करते हैं एवं आगे रोगों की उत्पत्ति के कारण एवं उपायों का वर्णन रामचरितमानस उत्तरकांड में देखना चाहिए ।

―स्वामी शिवाश्रम


टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
उत्तम ब्लॉग। प्रणाम।
Alok Bajpai ने कहा…
अति उत्तम अभिव्यक्ति, प्रणाम
अत्यंत शुद्ध, सरल और स्पष्ट...
भगवद महिमा,स्तोत्र,मंत्र तथा पौराणिक कथा नेट पर मील जाती हैं । पर शास्त्र में कहा गया ऐसा वर्णन और विश्लेषण पगली बार पढ़ने में आया..
सर्वोत्तम ब्लॉग..


आप सभी मित्रों को मंगल आशीर्वाद । ओ३म् !

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