रोग, कारण और निदान
रोग, कारण और निदान
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धर्मार्थकाममोक्षाणाम् आरोग्यं मूलमुत्तमम् ।
तस्मात् रोगापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का मूल उत्तम आरोग्य है, इसलिये मोक्ष प्राप्ति के लिए भी एवं जीवन रक्षा के लिए भी रोग का नाश कर आवश्यक है ।
हमारे सनातन धर्म में उक्त चार पुरुषार्थ कहे गए हैं । किन्तु इस विषय में ध्यान रखना चाहिए कि अर्थ और काम भी पुरुषार्थ हैं, अतः इनकी ही प्राप्ति करना चाहिए बाकी धर्म और मोक्ष से हमें क्या लेना देना ? ऐसी सोच मनुष्य के पतन का मूल कारण है । यदि धन संग्रह ही पुरुषार्थ होता तो चोर, लुटेरे आदि भी धन संग्रह करते हैं किन्तु यदि यह पुरुषार्थ है तो जेल की हवा क्यों खानी पड़ती है ? यदि स्त्री विषयक काम को ही यहाँ गृहस्थ धर्म का मूल पुरुषार्थ माना जाये तो पशु-पक्षी भी अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ पुरुषार्थ से संपन्न हैं, बलात्कारी, व्यभिचारी भी पुरुषार्थ से युक्त हैं फिर उन्हें जेल, फांसी आदि का दण्ड क्यों ? जबकि पुरुषार्थ संपूर्ण सुख का साधन है, फिर ये क्लेश जिससे मिलें वह पुरुषार्थ कैसा ? इसके समाधान के लिए ही हमारे मनीषियों ने सबसे आगे धर्म को रखा और फिर अर्थ को । जब हम धर्म पर खड़े होंगे तो उस धर्म के आश्रित जो भी जीवन निर्वाह के लिए धन अर्जित होगा वही हमारी स्त्री-पुत्र, लोक-परलोक की कामना को पूर्ति करने का हेतु होगा, यही काम है । किन्तु जब धर्म के आश्रित अर्थोपार्जन होगा तो प्राप्त अर्थ से हमारी बहुत अधिक आवश्यक आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं किन्तु नाना प्रकार के ऐश्वर्य का भोग संभव नहीं हो सकेगा जिस कारण से हमारी कामनाएं बहुत ही अधिक सीमित होंगी, इस प्रकार हमारी इन्द्रियों का दमन होगा जिससे काम की पूर्ति अर्थात सन्तुष्टि होकर जगत् से वैराग्य प्राप्त कराने वाला होकर परमपुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला होगा । अतः यहाँ वही अर्थ काम समझना चाहिए जो शास्त्राज्ञा के अनुसार धर्म के आश्रित हो अन्य नहीं ।
उक्त चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति का मूल मंत्र है उत्तम आरोग्य । यहाँ उत्तम आरोग्य कहने का तात्पर्य यह है कि आरोग्य मात्र शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक स्वास्थ्य का होना भी आवश्यक है । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक तीनो प्रकार के रोगों का नाश होना अति आवश्यक है चाहे आप मोक्ष चाहते हैं तो भी, सुखी जीवन चाहते हैं तो भी एवं दोनो चाहते हैं तो भी । इसी बात का संकेत यहाँ उत्तम आरोग्य से दर्शाया गया है ।
अब प्रश्न यह है कि तीनो प्रकार का स्वास्थ्य प्राप्त कैसे हो ? तो इसके लिए इस बात को समझ लेना चाहिए कि आध्यात्मिक (जीव के) तीन प्रधान रोग हैं, काम, लोभ और क्रोध । अधिक सुख की अभिलाषा रखने के कारण हमारे अन्दर नाना प्रकार से काम का उदय हो जाता है― बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् गी.२/४१ ये चंचल (अशुद्ध) बुद्धि में उदय हुआ काम अनन्त शाखाओं वाला होता है, उस काम यानी कामना की प्राप्ति होने पर भी और और की चाह ही लोभ की जड़ है―
और दीजिए हे प्रभू और और प्रभु और ।
‘शिवा’ और ही और में होता औरहिं और ॥
बस इसी और और के लोभ में में बाधा पहुँते ही क्रोध उत्पन्न हो जाता है । अतः पहले इन आध्यात्मिक रोगों की चिकित्सा शास्त्रीय पद्धति से आचार्यों के निर्देश पर कर ही लेना चाहिए । उसके बाद हमें वस्तु की प्राप्ति न होने पर उसका रस मन में बैठा रहने से उसका ही बारंबार स्मरण होने से ही ईर्ष्या, द्वेष, दंभ आदि मानसिक रोग उत्पन्न हो जाते हैं जो कि आगे चलकर शारीरिक रोगों का रूप ले लेता है ।
मैने प्रायः विचार करने पर यह पाया है कि हमारे शरीर में उत्पन्न असाध्य रोगों को लोग पूर्वजन्म का भोग या प्रारब्ध मान लेते हैं किन्तु मेरी खोज यह कहती है कि पूर्वजन्म का तो स्मरण नहीं है किन्तु अधिकांश ९९.९९% रोग इसी शरीर में बचपन से लेकर अब तक किये गए हमारे ही कर्मों के परिणाम से ही प्राप्त होते हैं । जिसमें बचपन के रोगों एवं स्मरणशक्ति के ह्रास में माता-पिता की बेपरवाही भी कारण हो सकती है, जिसमें असमय में की जाने वाली रतिक्रिया भी सम्मिलित है । आज का युवक-युवती विशेषतः यौन रोग से अधिक पीड़ित पाये जाते हैं जिसके जिम्मेदार प्रत्येक वे व्यक्ति हैं जो यह समझते हैं कि बच्चा अभी कुछ जानता ही नहीं है, चाहे जो करो, किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि बच्चों के द्वारा देखा और सुना गया वह परिदृश्य उसी प्रकार बच्चे के हृदय में अंकित हो जाता है जिस प्रकार कोरे कागज में लिखा गया चित्र । इसके लिए अधिकांश बच्चे की बुआ और भाभियाँ ही जिम्मेदार होती हैं । अस्तु विषयांतर हो गया । पुनः अपने मुख्य विषय पर आते हैं ।
तो प्रश्न ये है कि जब बुद्धि अशुद्ध हो जाती तभी हमारे अन्दर रोगों का प्रवेश द्वार खुल जाता है तब फिर बुद्धि शुद्ध कैसे हो और इन रोगों की निवृत्ति कैसे हो ? इसके लिए शास्त्राज्ञा है―
आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः
स्मृतिर्लाभे सर्वग्रन्थीनां विप्र मोक्षः ॥
आहार शुद्ध होने से बुद्धि (विवेक) शुद्ध होती और शुद्ध बुद्धि से ही स्मरण शक्ति अत्यंत प्रबल अर्थ वैचारिक एकाग्रता बलवान हो जाती है, इसी एकाग्रता की प्राप्ति होने पर विप्र अर्थात विधि के विशिष्ट जानकर संपूर्ण ग्रंथियों से मुक्त हो जाते हैं वह ग्रंथि चाहे शारीरिक और मानसिक हो या आध्यात्मिक अथवा जीव-ब्रह्म नामक ग्रंथि हो । शुद्ध आहार का वर्णन भगवती गीता करती हैं―
आयुःसत्त्वबलारोग्य सुखप्रीतिविवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥१७/७॥
अर्थात रसयुक्त, स्निग्ध अर्थात खाने में प्रियता को बढ़ाने वाला, हृदय को पुष्ट करने वाला― क्योंकि हृदय पुष्ट होने पर ही शुद्ध रक्त संचार संपूर्ण शरीर को प्राप्त होगा जिससे शरीर और मन स्वस्थ होंगे, जिस आहार का परिणाम स्थिर अर्थात स्वास्थ्य को स्थिरता प्रदान करने वाला हो ऐसा आहार सात्त्विक अर्थात शुद्ध बुद्धि वाले व्यक्ति को प्रिय होता है अर्थात यही उपाय बुद्धि को शुद्ध कर सकता है ।
अब यहाँ पर यह भी यदि कोई विचार करे कि इसका मतलब यह हुआ कि इस प्रकार का आहार चाहे जितना खा लेना चाहिए तो क्या स्वास्थ्य ठीक रहेगा ? इसके लिए गीता अनुशासन करती है―
युक्ताहारविहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु ।
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥६/१७॥
पुरानी कहावत है कि दवा ७५/% रोगों को नष्ट करती है, भूख १००% रोगों का नाश करती । भूख का अर्थ बिल्कुल भूखा नहीं । हमारे यहाँ व्रत, उपवास आदि इसी विधि का अंग हैं । पथ्यापथ्य का विचार इसी विधि का अंग हैं । हमारे सनातन धर्म में कब खाना और कब सोना और कितना खाना और कितना सोना यह एक समाज का विशेष अंग इसी परिप्रेक्ष्य में रहा है । जिसका उदाहरण उक्त गीता का श्लोक है । मैं वर्तमान में सर्वाधिक बीमार महात्माओं को ही मानता हूँ और उनका सबसे प्रधान रोग पेट ही है जिसके कारण अनन्त रोगों का अतिक्रमण हो जाता है जिसका एक अंग मैं भी हूँ ।
मैं भंडारे खाने से सदैव विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक रहा हूँ । मेरा सदैव मानना रहा है कि एक बार खा लिया फिर भंडारों में मात्र दक्षिणा के लोभ से क्यों जाऊं ? तथापि मैं भी इस रोग से बच नहीं पाया क्योंकि अनेक बार दबाव बनाया जाना, आसन उठवा देने की धमकी देना आदि । तथापि जितना नियंत्रण कर सका किया, किन्तु जब खाने बैठा तो कितना खाना है यह भी ध्यान नहीं रखा । भोजन कर लेने के बाद भी एक एक थाली छेना के रसगुल्ले खा गया और भी बहुत कुछ, तो रोगी कौन होगा ? भूखा रहा तो हप्तों भूखा रहा या पेड़ों के पत्ते चबाया, तो रोगी कौन होगा ? मैं देख रहा हूँ कि हमारे शरीर की आवश्यकता से कई गुना अधिक भोजन स्वाद और लोभ में किया जाता है और वह भी अनेक बार । यह भी एक मानसिक रोग है बाद में दवा खाते रहने पर भी असाध्य रोग हो जाता है ।
हमें पहले आध्यात्मिक रोग से उबरना होगा तभी मानसिक रोग से निवृत्ति संभव है और जब तक मानसिक रोग नहीं जाता है तब तक शारीरिक रोग का नाश होना असंभव है फिर मोक्ष या सुखी जीवन की कल्पना भी कैसे की जा सकती है ? अब यदि कोई कहे कि मैं शरीर से असक्त हो चुका हूँ अब क्या करूँ तो उसका उपाय एक ही है कि जैसे गेहूँ में लगा घुन मर जाने पर गेहूँ के घाव की भरपाई तो नहीं कर सकता है किन्तु गेहूं के अन्य भाग की सुरक्षा ज्यों की त्यों हो जाती है । उसी प्रकार हमें उक्त श्लोकानुसार युक्त आहार-विहार पर ध्यान देना होगा । यह युक्त आहार विहार ही योग अर्थात रोग निवृत्ति के निमित्त दवा में मिलाया जाने वाला शहद आदि है जिसके परिणामस्वरूप दुःखों/रोगों की निवृत्ति या उनसे रक्षा संभव है ।
उचित मात्रा में विहार यानी टहलना और सोना तो सभी के दृष्टिकोणों में लगभग समानता ही रखता है, किन्तु आहार के विषय में आज की चिकित्सा पद्धति और प्राचीन शास्त्रीय चिकित्सा पद्धति में बड़ा अन्तर है जिस पर मैं कुछ कहना चाहता हूँ―
आज की चिकित्सा पद्धति में अधिकांश चिकित्सक चाहे वे आयुर्वेदिक हों या एलोपैथी आदि, सभी चिकित्सक यह सलाह देते हैं कि कम से कम भोजन करने से पहले एक से आधा घंटा और भोजन के बाद एक से आधा घंटा पानी नहीं पीना चाहिए जिससे भोजन ठीक से पचेगा । तथापि मुझे इन स्थितियों में भी समस्या का समाधान कहीं भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिया ।आखिर क्यों ? जबकि हमारी पुरानी चिकित्सा पद्धति में सदैव निरोग रहने के दो ही उपाय बताए गए हैं― पहला यह कि आधा पेट भोजन, उसका आधा पानी और उसका आधा वायु विचरण के लिए पेट का खाली होना आवश्यक है । इतने पर भी सप्ताह में एक उपवास भी आवश्यक है और यदि सप्ताह में न कर सके तो कम से कम पन्द्रह दिन में एक बार उपावस करना ही चाहिए और जो उपवास नहीं कर सकते हैं वे बहुत हल्का सुपाच्य कुछ फल आदि लेकर व्रत कर सकते हैं । जिससे आठ या पन्द्रह दिन में पेट को आराम मिल जायेगा और सारे पाचनतंत्र को ठीक कर देगा । संभवतः एकादशी आदि उपवास या व्रत भी इसी परिप्रेक्ष में कहे गए हैं । इसमें से जो पहली भोजन की विधि है उस पर शास्त्रीय दृष्टि डालता हूँ―
“आपोज्योतिः” यह अथर्ववेदीय तैत्तिरीय उपनिषद का मन्त्र है । इसमें यह बताया गया है कि जल में ज्योति अर्थात अग्नि होती है । आज का विज्ञान भी इस बात को उच्चस्वर से मानता है । भोजन अग्नि ही पचाती है अन्न नहीं, यह सर्वविदित है । वह जिसे गीता वैश्वानर अग्नि कहती जठर में पायी जाती है और हम अपनी भाषा में जठराग्नि कहते हैं । जब हम जल को ही अवरुद्ध कर देंगे तो जठर की अग्नि को प्रदीप्त कौन करेगा ? दूसरी बात हम बहुत ऐसे रुखे भोजन को स्वाद के कारण अधिक खा लेते हैं जिसे गीला करने के लिए न तो पर्याप्त मात्रा में लार ही मिल पाती है और न ही जल, जो उसे गीला करके आगे बढ़ा सके । ऐसी स्थिति में भोजन की दो गतियाँ होती हैं― एक यह कि भोजन आंतों में सूख कर चिपक जाता है जिसके कारण दूषित मल के विकार रक्त में मिलकर संपूर्ण शरीर को पेट सहित विभिन्न रोगों से आक्रान्त कर देता है, पेट (आंतों) के छाले (अल्सर) भी इसी का परिणाम हैं या फिर कच्चा अधपका भोजन आंतों में जाकर पचने की जगह सड़ने लगता है जो कि जिद्दी आँव को जन्म देता है । यह रोग यदि किसी भी साधन से ४०दिन के अन्दर ठीक नहीं हुआ तो संग्रणी रोग बनकर असाध्य हो जाता है ।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि हमारे भोजन के साथ ही भोजन का आधा पानी आवश्यक है, वह चाहे सब्जी-भाजी में अधिक रसे के रूप में हो या फिर सामान्य जल जिसे हम भोजन के मध्य कुछ अंश और शेष अन्त में ले सकते हैं । इस प्रकार हमारा पेट तीन चौथाई भर जायेगा, जबकि एक चौथाई को हर हाल में छोड़ना ही होगा । इस प्रकार भूखा भी नहीं रहा और भूखा (खाली पेट) भी रहा । यही है युक्त आहार का योग । इससे हम भले पहले रोगों से हुई छति को पूरा न कर सकें किन्तु नियंत्रण तो कर ही सकते हैं, शेष बचे जीवन को बचा सकते हैं और स्वस्थ व्यक्ति सदैव के लिए अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर सकते हैं ।
हमारे रसोईघर में भी बहुत सारी नित्य उपयोग की जाने वाली वस्तुओं का भी यदि एक विधि से उपयोग किया जाये और उक्त भोजनादि के सिद्धांत का पालन किया जाये तो निश्चित ही हमें रोगादि के कारण रोना न पड़े किन्तु ये हमारा दुर्भाग्य है कि शास्त्र पद्धति को घिसीपिटी और कपोलकल्पना बताने में न तो झिझकते हैं और न ही कभी अपने स्वदेशी चिकित्सा पद्धति को महत्व देते हैं तो फिर हम जीवन और मोक्ष दोनो से जायेंगें ही । हमारी ईश्वर भी सहायता नहीं कर सकता । ओ३म् !
―स्वामी शिवाश्रम
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