श्रुति सन्देश


श्रुति संदेश
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हमारे शरीर की संरचना का आज तक वस्तु स्थिति रूप में आधुनिक विज्ञान का कोई विशेष दृष्टिकोण नहीं मिलता, किन्तु हमारी वैदिक परंपरा में इसका विस्तृत रूप यथा स्थान वेदों से लेकर पुराणों तक मिलता है । अथर्ववेदीय माण्डू्क्योपनिषद में आत्मैक्य बोध कराने के लिए सात अङ्ग एवं उन्नीस मुखों वाला बताया गया है । जिसका विवेचन आचार्य शंकर अपने भाष्य में― सिर (मूर्धा), नेत्र, प्राण, मुख, उदर, उपस्थ (मूत्रस्थान एवं गुदा के एक साथ समझ लेना चाहिए) एवं पैर । ये सात अङ्ग तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पांच प्राण एवं अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार) ये उन्नीस मुख कहे हैं । शरीर में मुख की प्रधानता होती है अतः मुख से उन्नीस प्रधान अङ्ग समझना चाहिए ।
     अब हम स्वयं शरीर के प्रसिद्ध अङ्गों का निरीक्षण करते हैं । हमारा शरीर वस्तुतः जनसामान्य में नौ द्वारों वाला प्रसिद्ध है― दो नाशा छिद्र, दो कर्ण (कान) छिद्र, दो नेत्र, मुख, लिंग/योनि एवं गुदा । किन्तु यह बहुत कम ही विवेकशील जानते हैं कि हमारे शरीर के द्वारा नौ नहीं बल्कि ग्यारह हैं, लोग जानते नहीं हैं ऐसा भी नहीं है, जानते हैं किन्तु फिर जानकर भी विचारशीलता की कमी के कारण अन्जान हैं । हमारे शरीर का पहला द्वार है नाभि । इसी से गर्भस्थ शिशु को आहार पहुचता है और जन्म के पश्चात शरीर संरचना को मजबूत करने के लिए नाभि में तेल का लेप किया जाता है और यह कार्य विवेकशील आजीन भी यथा समय करते हैं । और अन्तिम ग्यारहवां द्वार है मूर्धा । जिसे अधिकांश लोग पहले द्वार की अनभिज्ञता के कारण दसवां द्वार कहते हैं ।
              नाभि का अर्थ होता केन्द्र । सृष्टिचक्र का केन्द्र है नाभि । यदि इसी नाभि को हम प्रकृति कहें और मूर्धा में स्थित परमतत्त्व को पुरुष । तो यह कहना अनुचित न होगा कि लोग प्रकृति और पुरुष की अनभिज्ञता के कारण ही मध्य के उच्च और नीच लोकों की कल्पना करके ही सुखी-दुःखी हो रहे हैं ।
         वास्तव में श्रुति जिसे साथ अङ्गों वाला कहती है वे अङ्ग उससे भिन्न नहीं हैं बल्कि उन अङ्गों के रूप में उन्नीस तत्त्वों की प्रधानता से वह एक आत्मा ही प्रकाशित हो रहा है । तथापि जिन ग्यारह प्रधान (द्वारों) तत्त्वों वाला यह आत्मा कहा गया है वे प्रधानतः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश ये पाँच महाभूत, छठा मन, सातवां, आठवीं क्रियाशक्ति नवीं ज्ञानशक्ति दसवीं एवं ग्यारहवीं प्रकृति एवं पुरुष ये ग्यारह प्रधान तत्त्व हैं । यदि पंचमहाभूतों के पांच विषय और मन को चार विभागों में लें तो इनकी संख्या आठ बढ़कर उन्नीस हो जाती है जिसे श्रुति उन्नीस मुख वाला कहती है । 
           पंचमहाभूतों तक जड़ प्रकृति एवं मन, क्रिया और ज्ञान ये जीव के धर्म हैं । क्रियाशक्ति के अन्तर्गत जीव बद्ध हो जाता है, यहाँ मिश्रित तीनो गुणों की प्रधानता होती है, कर्मेन्द्रियाँ भी इस क्रियाशक्ति के ही अन्तर्गत आती हैं । ज्ञान शक्ति जीव को बन्धन से मुक्त करने में, सत्-असत् का निर्णय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है एवं ज्ञानेन्द्रियाँ एवं शुद्ध सत्त्वगुण भी इसी ज्ञानशक्ति के अन्तर्गत ही आ जाती हैं ।
              इस प्रकार हमारा शरीर ग्यारह प्रधान अङ्गों वाला कहा गया है जिसे हम ठीक-ठीक समझकर अपने एकत्वबोधक ज्ञान के द्वारा आत्मैक्य भाव में स्थित हो सकते हैं । श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्र में इसी का ज्ञान कराने के लिए कहा गया है कि ―
नानाछिद्रघटोदरस्थित महा दीपप्रभाभास्वरं,
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिस्पन्दते । 
जानामीति तमेवभान्तमनुभात्येतत्समस्तञ्जगत् ।
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥
             अर्थात जैसे बहुत बड़े किसी घड़े में हजारों छोटे-बड़े छेद हों और उसमें एक बहुत बड़ा दीपक जलाकर रख दिया जाये तो जैसे उस दीपक का अलग अलग छोटे बड़े छिद्रों से एक ही प्रकाश भासमान होता है उसी प्रकार नेत्रादि बाहर दिखाई देने वाला जगत भी जिस आत्मा के ज्ञान से आत्मरूप हो जाता वह जानने वाला और कोई नहीं बल्कि वह सर्वात्मा मैं ही हूँ ।
             इस प्रकार “सर्वं खल्विदं सर्वम्” का ज्ञान सात, ग्यारह उन्नीस आदि के माध्यम से संपूर्ण स्व से भिन्न दिखने वाला जगत भी जिसके जान लेने से आत्मरूप/ अभिन्न रूप हो जाता है, अज्ञान भी ज्ञान हो जाता है, रस्सी का सर्प भी रस्सी रूप हो जाता है । किरणें सूर्यरूप एवं अन्धकार प्रकाश रूप हो जाता है उसी का बोध कराने के लिए कि उन उन अङ्गों वाला अन्य कोई नहीं निश्चय ही यह “एकमेवाद्वितीयम्” कहा जाने वाला नित्य सुखस्वरूप अनिर्वचनीय आत्मा ही है । यह श्रुति संदेश है । ओ३म् !
―स्वामी शिवाश्रम

टिप्पणियाँ

Alok Bajpai ने कहा…
आदरणीय! एक संग्रणीय लेख के लिए आभार।
आभार बाजपेयी जी । ओ३म् !

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