क्या आप अपने पिता की सिद्धि कर सकते हैं ?
क्या अपने पिता की सिद्धि कर सकते हैं?
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ईश्वर है या नहीं ? यह प्रश्न अनादि काल से चला आ रहा है और अनादि काल तक चलता रहेगा । यहाँ पर यह भी समझ कर रखना चाहिए कि जो बारंबार ईश्वर ईश्वर करता है वह आस्तिक (ईश्वरीय सत्ता को मानने वाला) होगा इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं, और जो कभी ईश्वर का नाम भी नहीं लेता, कभी स्वप्न में भी मंदिर या संत संगति नहीं करता वह नास्तिक होगा इसका भी कोई प्रमाण नहीं है । आस्तिक हमारे यहाँ जो वेद को ही प्रमाण मानता है वही आस्तिक है अन्य सभी नास्तिक ।
जो लोग ईश्वर के होने में वेद प्रमाण नहीं मानते हैं, और ईश्वर को सिद्ध करने की बात करते हैं, उन्हें बता दूँ कि सिद्ध सदैव असत्य को करना पड़ता है सत्य को नहीं । मैं पूछता हूँ क्या आप अपने पिता को सिद्ध कर सकते हो जिसे आप पिता कहते हो ? आप कहोगे कि हाँ, इसमें मेरी माँ ही प्रमाण है, तो मेरा प्रश्न होगा कलियुग है, इस कलियुग में माँ प्रमाण पिता के होने में कभी नहीं हो सकती है क्योंकि वह झूठ भी बोल सकती है । अब आप कहोगे कि पैतृक अनुवंश (पैतृक जीन्स या डीएनए) प्रमाण है, तो मैं कहूँगा कि वह भी प्रमाण नहीं हो सकता है, क्योंकि यदि वह प्रमाण होता तो ऋषि विश्रवा का पुत्र रावण राक्षस न होता, आज समस्त ब्राह्मणों ने या अन्यों ने भी जो अपने अपने स्वधर्म का परित्याग कर दिया है वह आनुवंशिक परिवर्तन ही इस बात का प्रमाण है कि उसकी स्थिरता न होने से वह प्रमाण नहीं है, फिर भी यदि आज की मान्यता के अनुसार मान भी लिया जाये तो हो सकता है शुल्क देकर बनवाया गया प्रमाण पत्र हो, अतः वह भी प्रमाण नहीं हो सकता है । अब सिद्ध करो कि तुम जिसे पिता कहते हो वही तुम्हारे पिता हैं ? अगर प्रत्यक्ष पिता को तुम नहीं सिद्ध कर सकते हो तो फिर जो अनुभवगम्य है उसे तुम प्रत्यक्ष सिद्ध करना चाहते हो यह कैसे सम्भव हो सकता है ? तथापि शास्त्र और युक्ति द्वारा महापुरुषों ने अनेकों प्रमाण ईश्वर सिद्धि में दिये हैं, उनमें से शिवमहिम्न स्तोत्र भी है, तो क्या आपने उन्हें पढ़ा ? समझने का प्रयत्न किया ? बिना पढ़े समझे आधुनिक विधर्मियों की बात तो ईश्वर के न होने में समझ में आ गई और हमारे ऋषि मुनियों या आचार्य समझ में कैसे आयेंगे ? इत्यादि ।
तथापि अपने पिता की सिद्धि न कर पाने के अभाव में भी यदि आप उसे ही पिता मानते हो जिसे आपकी माँ ने बता दिया है तो फिर श्रुति मेरी माता है और उसने कह दिया कि ईश्वर है तो है, इसमें आपको परेशानी क्यों ? जो लोग ईश्वर को शोषण का दूसरा नाम बताते हैं वे दो प्रकार के लोग जीते जागते राक्षस हैं, पहला वह जो कहता है ईश्वर है और ईश्वर के नाम से लोगों को डरा धमका कर, स्वर्ग-नर्क आदि का भय दिखाकर स्वयं दूसरों के धन पर ऐश करता है और दूसरों का शोषण करता है, वह घोर नास्तिक और जीता जागता असुर, राक्षस है । और दूसरा वह जो इन जैसे राक्षसों के द्वारा किये गये दुष्कर्म को ईश्वर का दूसरा नाम बिना सोचे और समझे बता देते हैं । साथ ही उनके अनुयायी भी ।
अब जो कहते हैं कि वेद हजारों साल पुराने हो गये हैं उनकी आज उपयोगिता नहीं रही या आज बदले हुए वातावरण के साथ ही वे अप्रमाणिक हैं । हम आपकी बात मान लेते हैं किन्तु #मातृदेवोभव #पितृदेवोभव #आचार्यदेवोभव #अतिथिदेवोभव इत्यादि वैदिक परम्परा मानोगे या नहीं ? वेदों में ईश्वर का किसी एक रूप में ही वर्णन नहीं है, वहाँ संपूर्ण जड़ चेतन ईश्वर रूप ही माना गया है, यहाँ तक गाय बांधने का खूंटा और रस्सी तक । तभी अथर्ववेद मुठ्ठी बांधकर #वसुधैवकुटुम्बकम् का उद्घोष करता है । यदि आप उपरोक्त सूत्र मानते हैं तो अलग से ईश्वर मानने की कोई आवश्यकता नहीं है यह बात भी हजारों साल पहले ही कही जा चुकी है, किन्तु आज हजारों साल बाद की ही इस परिवर्तित मानसिकता ने ही अनाथ आश्रमों और वृद्धाश्रमों का शैलाब ला दिया है । जहाँ हमारे माता पिता या बुजुर्ग पड़े अपनों की याद में सड़ रहे या फिर सड़क पर भीख मांग रहे हैं, चारों ओर इसी परिवर्तन का ही परिणाम त्राहिमाम् त्राहिमाम् हो रहा है । ये वही वेद हैं जिसने सामान्य स्त्री को देवी के सिंहासन पर बैठाकर पुरुष के माथे का मुकट बना दिया है और आज हजारों साल बाद वेदों की अनुपयोगिता ने ही उनके शोषण का शिकार बना दिया गया है, एक भोग्य वस्तु से अधिक कुछ नहीं बची हैं । ये मात्र नास्तिक ही कर सकता है, म्लेच्छ ही कर सकता है या पशु ही कर सकते हैं ।
हम आज भी नवरात्रि बड़ी धूमधाम से मनाते हैं और कन्या पूजन करते हैं यह हमारी ही सनातन वैदिक संस्कृति में ही संभव है लेकिन इसमें एक आसुरी वर्ग वह भी सम्मिलित है जो कन्या पूजन करते हुए मानो मन ही मन कहता है कि यहाँ पैर पूजता हूँ और यहाँ से बाहर निकलो, वहाँ इसी बहाने से तुम्हें अपनी वासना का शिकार बनाऊंगा । ये है वेदों के हजारों साल बाद भी मानने और न मानने का परिणाम । हम सदैव वेदों-शास्त्रों पर दोषारोपण करते हुए उन्हें अनुपयोगी सिद्ध करने में जितना समय लगाते हैं यदि उससे भी कम समय अपने उन दोषों को देखने में लगा दें जिनके कारण हमें आज वेद अनुपयोगी दिख रहे हैं, ऐसा करते ही हमारी कमजोरियां दूर हो जाये और वेद का एक एक वाक्य सार्थक दिखने लगेगा । यदि वेदवाक्य का पालन आज करने में अक्षमता है तो ये मेरी अपनी कमजोरी है, मेरी अपनी कमजोरी से न तो वेद कमजोर होंगे और न ही अनुपयोगी हो जाते हैं ! अस्तु ! ओ३म् !
—स्वामी शिवाश्रम
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