गीता में साधन, साध्य एवं अधिकारी

#गीता_का_साधन_साध्य_एवं_अधिकारी

 #सूचना— विज्ञजन धैर्य पूर्वक पढ़े, यदि इसमें कुछ अंश पूर्व के किसी पोस्ट के जैसा दिखे तो दो नंबर से भी आगे का पढ़ सकते हैं । 
श्रीभगवान ने गी.२/४५ में वैदिक कर्म (स्वर्गादि कामना वाले कर्मकांड) का त्याग करके आत्मभाव में स्थित होने को बताया है, जिसका पहला साधन है निर्द्वन्द्व होना । द्वन्द्व शब्द द्वैत का प्रर्यायवाची शब्द है, निर्द्वन्द्व होने ही “नित्य सत्त्वस्थ और निर्योगक्षेम" संभव हो सकेगा, उसी के लिए कर्म और योग को परिभाषित किया २/४७-४८। इसके बाद कहते हैं—
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय । 
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥२/४९॥ 
इस श्लोक में अधिकांश अद्वैताचार्यों ने "बुद्धौ शरणमन्विच्छ" का अर्थ ज्ञानयोग की शरण लेना बताया है, किन्तु यह बात समझ में नहीं आती है क्योंकि अगले ही चरण में कहते हैं— “कृपणाः फलहेतवः” अर्थात सभी सकाम कर्म दीनता (जन्म-मरण) का हेतु हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि “बुद्धौ शरणमन्विच्छ” का अर्थ ‘‘ज्ञानयोग” अद्वैताचार्यों का गलत है ? तो मैं कहूँगा कि नहीं, क्योंकि जिस प्रकार अध्याय १३ में ज्ञान प्राप्ति के साधन को ही वहाँ ज्ञान कहा गया है उसी प्रकार यहाँ भी निष्काम कर्मयोग को ही यहाँ ज्ञानयोग (समत्व भाव) की प्राप्ति के साधन होने से ज्ञानयोग अर्थ अद्वैताचार्यों का उचित है किन्तु कर्मयोग का वर्णन हो रहा है अतः प्राथमिक रूप से “बुद्धौ शरणमन्विच्छ” का अर्थ निष्काम कर्म योग ही लेना अधिक उचित है, क्योंकि आगे कहते हैं—
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । 
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मशु कौशलम् ॥२/५०॥ 
यहाँ स्पष्ट किया गया है कि योग से युक्त बुद्धि शुभाशुभ कर्मों का नाश कर देती है, यह कार्य मात्र ज्ञानयोग में ही सम्भव है— “सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ४/३३, इस आधार पर भी यहाँ “बुद्धौ शरणमन्विच्छ” का अर्थ ज्ञानयोग ही उचित है तथापि वह साधन स्वरूप निष्काम कर्म का पर्याय मानना ही आवश्यक है, कारण कि सभी कर्मों का अन्तिम परिणाम योग की प्राप्ति है— “योगः कर्मसु कौशलम्”   । योग का अर्थ किया #समता — “समत्वं योग उच्यते” २/४८ और समता का अर्थ किया “निर्दोषं हि समं ब्रह्म” ५/१९ अर्थात यह समता ही निर्विकार ब्रह्म है और इस भाव से युक्त होना ही युक्त बुद्धि है और उसी से शुभाशुभ कर्मों का नाश सम्भव है, इसी कारण मनीषीजन कर्म से उत्पन्न फलासक्ति का त्याग करके कर्म द्वारा ही नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त करके जन्म बन्धन को का नाश करके निर्मल मोक्ष पद को प्राप्त कर लेते हैं । 
               २- इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान कहते हैं कि— एवं बहुविधा यज्ञाः......४/३२ अर्थात वेदों में बहुत प्रकार के यज्ञ (कर्तव्य कर्म) स्वर्गादि प्राप्ति के साधन कहे गये हैं किन्तु वे कर्म से ही उत्पन्न हुए हैं इस रहस्य को जानकर कर्म बन्धन से मुक्त हो जा, तात्पर्य यह है कि कर्म से प्राप्त उसके स्वर्गादि फल भी कर्म के समान ही नाशवान हैं किन्तु जो योग अर्थात कर्मयोग का संपादन करके ज्ञानयोग में स्थित हो चुका है वह कैसा भी पापी क्यों न हो वह भी ज्ञान रूपी नौका में बैठकर उसे पार कर जायेगा—
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यो पापकृत्तमः । 
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥४/३६॥ 
               अर्जुन ने शंका की थी कि गुरुजनों हत्या, कुल हत्या इत्यादि दुनिया भर के पाप होंगे इसलिए भिक्षवृत्ति ही श्रेष्ठ है, उस पर ही भगवान कहते हैं उन सामान्य पापों को तो छोड़, और भी जितने पाप करने वाले होंगे, उन सभी पापियों से भी जो बढ़कर पापी होगा— “सर्वेभ्यः पापकृत्तमः” भी “सन्तरिष्यसि” ।
           वह ऐसे बड़े विशाल पापों से कैसे पार होगा ?  इसके लिए कहते हैं—
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । 
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९/२९॥ 
            क्योंकि वह जब पापी था तब था उसमें विशाल भेद बुद्धि के कारण ही पाप स्थित था किन्तु अब वह समत्वभाव में स्थित है वह समता स्वरूप साक्षात स्वयं मैं हूँ, इस समत्वभाव से जो मेरा भजन करता है मैं उसमें और वह मुझमें अर्थात अभिन्न रूप से स्थित है, इस कारण वह साक्षात मेरा स्वरूप है—“ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्” ७/१८ और मैं स्वयं निष्पाप हूँ इसीलिये—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥९/३०॥
              यहाँ “अनन्यभाक्” कहा गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि साधक अन्य कुछ भी न देखता हुआ अपने आराध्य को ही अपनी स्वयं की भी सत्ता को मिटा कर देखे, जैसे पौराणिक कथा के अनुसार भक्त प्रह्लाद पर प्राणघातक नानाप्रकार के संकट आये किन्तु वे उस अवस्था में भी स्वयं को ही व्यापक विष्णु रूप ही अनुभव करते रहे अतः उनका बाल भी बांका नहीं हुआ, यही “अनन्यभाक्” (अनन्यभाव) है और भली प्रकार से अभिन्नभाव में स्थित है, अतः वह दुराचारी भी—
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रति जानीह न मे भक्त्या प्रणश्यति ॥९/३१॥ 
              अतः कैसा भी पापी क्यों न हो किन्तु ऐसे अभिन्नभावस्थ मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता है क्योंकि वह शीघ्र धर्मात्मा बन जाता है । 
             अब आगे के प्रसंगानुसार अधिकारी का विशेष रूप से और स्पष्ट वर्णन करना है अतः—
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः । 
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥
           यहाँ पर स्त्री, वैश्य एवं शूद्र को दुराचारी और पापी से भिन्न करके दिखाया गया है, अतः स्वाभाविक ही यह कहा जा सकता है कि ऊपर जो “सर्वेभ्यः पापकृत्तमः एवं दुराचारः” आया है वह मात्र ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के पतन को निर्दिष्ट करता है, जो स्वधर्म का त्याग करके पापाचरण में निमग्न हो चुके हैं । उसी आधार पर स्त्री वैश्य और शूद्र को अलग से कहा गया है कि यदि वे भी अभिन्नभावापन्न हैं तो, यहाँ तक अन्य जो वर्णबाह्य पापयोनि आदि जो भी भी हों वे भी परमगति को प्राप्त करते हैं । यहाँ पर उन दुराचारी ब्राह्मण और क्षत्रियों को भी स्त्री, वैश्य और शूद्र कोटि के साथ रखना अनिवार्य है क्योंकि आगे कहते हैं— किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ९/३३ यहाँ पर ब्राह्मण को पुण्याः विशेषेण से विशेषित किया गया, जबकि श्रुति-स्मृति प्रसिद्ध एक ही पुण्य है “नैष्कर्म्यसिद्धि” जिस पर ब्राह्मण का जन्मसिद्ध अधिकार है, वह ब्राह्मण अपने नौ कर्मों से संपन्न होता है १८/४१, और क्षत्रिय को राजर्षि शब्द से विशेषित करते हुआ भक्ताः अर्थात आत्मनिष्ठ कहा गया है, ऐसा क्षत्रिय अपने सातों कर्तव्य से युक्त होता है १८/४२। अतः ऊपर इन दोनो विशेषणों से जो विशेषित नहीं हैं उन दोनो ब्राह्मण और क्षत्रिय को स्त्री आदि के साथ समझ लेना चाहिए ।
           अब हम पहले शास्त्रीय विधि से पापयोनि और पुण्ययोनि को समझ लेते हैं, पापयोनि के अन्तर्गत श्रीमद्भागवत का कथन है—किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कषा आभीरकंकाः यवनाः खशादयः ।
येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुद्ध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ।।
         अर्थात जिन जगत् उत्पादक परमेश्वर की शरण लेने पर किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कष, आभीर, कंक, यवन, खश आदि (वेद बाह्य भी) पाप मुक्त हो जाते हैं उनको नमस्कार है । 
         इस प्रकार स्त्री, वैश्य और शूद्र को एक साथ पापयोनि कह देना विवाद को जन्म देकर समाज में विस्फोट करना है । आपकी व्यक्तिगत अपनी जो मान्यता हो उसे मानो, अधिक हो तो मौन रहो । अन्यथा शास्त्र में जहाँ आप अपने स्वार्थ की मिलावट करना जानते हैं तो दूसरा छंटनी करना भी जानता है । इससे समाज में अनवास्था दोष उत्पन्न हो जायेगा ।
अब छान्दोग्य. से पुण्ययोनि और पापयोनि—
तद् य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन् ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वा । अथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिं पद्येरन् श्वयोनिं वा शूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा ॥५/१०/७॥
         अर्थात उन में जो अच्छे आचरण वाले होते हैं वे शीघ्र उत्तमयोनि को प्राप्त होते हैं । वे ब्राह्मणयोनि, क्षत्रिययोनि अथवा वैश्ययोनि को प्राप्त होते हैं । तथा जो अशुभ आचरण वाले होते हैं वे तत्त्काल अशुभ योनि को प्राप्त होते हैं । वे कुत्ता, शूकर अथवा चाण्डालयोनि को प्राप्त होते हैं । यहाँ श्रुति ने शूद्र का नाम भी नहीं लिया है, इस आधार पर उसे पापी कदापि नहीं कहा जा सकता है जैसे मार्ग में यात्रा करते समय सभी अपरिचित मित्र नहीं होते, इसका अर्थ यही भी नहीं है कि जो वे यात्री मित्र नहीं हैं वे शत्रु ही हुए । 
                 तात्पर्य यह है कि उपरोक्त जो पापयोनयः के अन्तर्गत स्त्री, वैश्य शूद्र को मानते हैं— उनसे मैं समझना चाहूंगा कि यद्यपि स्त्रियां भी वेदों में ऋषिकाएं हुई हैं और शूद्र भी ऋषि हुए हैं, किन्तु इन चार वर्णों से बाह्य कोई ऋषि या ऋषिकाएं हुई हों ऐसा कहीं वर्णन नहीं मिलता, अतः सभी चारों वर्ण एक वैदिक व्यवस्था है और वे चारों पवित्र हैं फिर उन्हें पापयोनि कहने का औचित्य क्या है ? जैसा उपरोक्त श्रुति में पुण्य और पापयोनि को प्रमाणित किया गया है, तथापि मैं स्त्री और शूद्र के विषय में कुछ भी नहीं कहना चाहता हूँ किन्तु वैश्य तो वेदाधिकारी है फिर वह पापयोनि कैसे ? और बहुत से टीकाकारों के अनुसार तो वैश्य पापयोनि इसलिए है कि उसका वेदाधिकार ही नहीं, अब इन समाज विद्रोहियों के विषय में क्या कहा जाये ? क्या इन्होंने वेद उपनिषदादि देखे भी हैं या केवल समाज को वेद-शास्त्र की ओट में खंड खंड करने का वीणा ही उठा लिया है ? इस प्रकार उपरोक्त श्लोक में स्त्री वैश्य और शूद्र को पापयोनि कहना सर्वथा निरर्थक सिद्ध हुआ 
           #शंका—  अब एक प्रश्न यह भी उठता है कि आचार्य शंकर ने भी स्त्री आदि को पापयोनि कहा है तो क्या वह निर्थक है? वे तो सर्वज्ञ और साक्षात शिवावतार कहे जाते हैं, वे वेद विरुद्ध क्यों और कैसे जा सकते हैं ? 
              #समाधान— आचार्य शंकर को समझ पाना बड़े बड़े दिग्गजों के वश का नहीं है फिर मेरे जैसे सामान्य लोग क्या समझ सकते हैं तथापि जो लोग आचार्य शंकर के इस कथन को अक्षरशः लेकर स्त्री आदि को पापयोनि मानने और बताने का ठेका ले रखा है उन मेष बुद्धि विद्वानों को मैं यही कहूँगा कि वह आचार्य शंकर का भाष्य हो ही नहीं सकता है क्योंकि जिनका जीवन ही श्रुतिमय हो वह अपने ही (श्रुति के) विरुद्ध कैसे जा सकते हैं ? यह हमारे विरुद्ध विधर्मियों की चाल है जो आचार्य जी के नाम समाज को खंडित करने का उनका प्रयत्न था/है, फलस्वरूप यह अंश वहाँ दंभियों द्वारा प्रक्षिप्त किया गया है, इतना अंश आचार्य जी का है ही नहीं । अतः मेष बुद्धि का त्याग करके वैदिक प्रज्ञा को धारणा करो और फिर इस प्रकार विचार करो—
              शास्त्रों में पुण्य को भी जन्मादि का हेतु होने के कारण पाप ही माना गया है किन्तु यह मोक्ष की इच्छा रखने वाले के लिए है अन्य के लिए नहीं, अन्य के लिए पुण्य ही है । इसी प्रकार यहाँ पापयोनि का तात्पर्य “पापयोनि के समान” समझना चाहिए, जैसे वर्णबाह्य वैदिक परंपरा से विरुद्ध राक्षसी और आसुरी भाव से उदरपूर्ति में आसक्त चाण्डाल, किरतादि पापयोनि मात्र उदरपूर्ति में लगे रहते हैं उसी प्रकार वैश्य रजोगुण युक्त तामसी वृत्ति के कारण धन आदि को ही प्रधान मानता है, शूद्र तमोगुण प्रधान तथा स्त्री मोह ममता की खान है, अतः इनमें नैष्कर्म्य तो संभव ही नहीं है, अतः वे न तो ब्राह्मण की तरह पुण्यमय हैं और न ही राजर्षि की तरह भक्त ही हैं क्योंकि मनुष्य जीवन का एक ही लक्ष्य है वह है जिस किसी भी प्रकार से परमात्मा की प्राप्ति, यदि ऐसा नहीं है तो वह भी पापयोनिवत् है न कि पापयोनि, जैसे “जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते” यहाँ शाब्दिक अर्थ कहता है कि सभी लोग जन्म से शूद्र होते हैं और संस्कार होने पर द्विज अर्थात कुल संस्कार के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य हो जाते हैं । अतः यहाँ जन्म से शूद्र होना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि जब यज्ञोपवीत आदि के लिए ग्रहण किया जायेगा तब ब्राह्मणादि तीन वर्णों से ही होगा, अतः जन्म से शूद्र नहीं शूद्रवत् होगा, क्योंकि जैसे शूद्र का अग्निहोत्रादि में अधिकार नहीं है वैसे ही बिना संस्कार के उन उन कुलों में जन्मे बालकों का भी अग्निहोत्रादि में अधिकार नहीं होता है अतः वह शूद्र नहीं शूद्रवत् हुआ । इसी प्रकार यहाँ आचार्य जी का कहना है कि जो चातुर्वण में उत्पन्न हुआ भी है किन्तु मानव जीवन के चरण लक्ष्य परमार्थ तत्त्व को प्राप्त नहीं किया है, अथवा प्रयत्न नहीं करता है वह ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हो, वैश्य हो शूद्र हो या उन उन वर्ण की स्त्रियाँ हों वे सभी अत्यन्त ही दुराचारी और पापयोनि के समान हैं, यह अर्थ यदि आप करते हैं तो आचार्य जी ने कोई श्रुति विरोध नहीं किया है क्योंकि वे स्वयं श्रुतिस्वरूप हैं । अस्तु /ओ३म् !
                              — स्वामी शिवाश्रम

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