कलियुग में संन्यास वर्जित
कलियुग में संन्यास वर्जित क्यों ?
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भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर के अन्त में भगवती गीता का उपदेश करते हुए अर्जुन को संन्यास ग्रहण करते हुए कर्म में ही लगाया, क्यों ? क्या अर्जुन मैं वैराग्य नहीं था ? अथवा क्षत्रिय को संन्यास का अधिकार नहीं था ?
अर्जुन को वैराग्य था — देखिए गी. १/३२, १/३५ एवं २/५, संन्यास का अधिकार अधिकार से होता है वह कारण भी २/८ में स्पष्ट है । क्षत्रिय का संन्यास में अधिकार भी है तथापि भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संन्यास के लिए रोका, इसका उत्तर अर्जुन के प्रश्न (५/१) के अनुसार स्वयं भगवान गीता के पांचवें अध्याय में देते हैं —
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥५/३॥
यहां पर संन्यास का लक्षण बताया गया द्वेष और इच्छा का त्याग एवं द्वन्द्व रहित होना । यहां इच्छा से प्रचलित भाषा में राग समझना चाहिए क्योंकि जब किसी वस्तु के प्रति राग यानी आसक्ति होती तभी उसकी प्राप्ति की इच्छा होगी । इस प्रकार यहां राग-द्वेष एक पद समझना चाहिए और दूसरा पद है द्वन्द्व रहिता होना । यही निर्द्वंद्वता तीनो गुणों से ऊपर उठने का पहला चरण (साधन) २/४५ है । राग-द्वेष द्वन्द्व प्रधान हैं अतः इनका नाम स्पष्ट कहा गया है, गीता में अधिकांश राग-द्वेष निवारण पर ही जोर दिया गया है — रागद्वेषौ व्युदस्य च १८/५१ । लेकिन अलग से द्वन्द्व रहित होने की बात कहने का तात्पर्य ये है कि ये प्रधान द्वन्द्व तो त्यागना ही है किन्तु सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि गौड़ द्वन्द्वों से भी रहित होना है तब जाकर सुखपूर्वक जन्मादि बन्धनों से मुक्ति मिलती है । सारांश यह निकला कि संन्यासी स्वभाव से ही राग द्वेष और द्वन्द्वों से रहित होता है किन्तु अर्जुन में वैराग्य तो था लेकिन स्वभाव से ही नहीं,राग-द्वेष उस समय भी था इसीलिए उसको संन्यास के लिए रोका जिसे आगे और स्पष्ट करके ऐसे राग-द्वेष युक्त अजितेन्द्रिय के लिए कष्टकारी बताते हैं —
सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ५/६, अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते १२/५, ऐसा अजितेन्द्रिय राग द्वेष आदि द्वन्द्वों के आधीन रहने वाला कभी भी लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है वह चाहे जितना प्रयत्न कर ले — यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः १५/११ ।
इस प्रकार संन्यास का अधिकार किसे है ? क्या वह संन्यास का अधिकारी है ? यह स्वयं को सुनिश्चित करना पड़ेगा और यदि संन्यास का अधिकार न हो तो चोटी न कटवाए, यज्ञोपवीत का त्याग न करे, पिंडदान न करे । विरजा होम इसीलिए किया जाता है कि उसके अन्य सभी संसारी और संसार तो मर ही गया है किन्तु वह स्वयं ही मर गया है । स्वयं मरने का तात्पर्य है कि अब उसमें न जीने की इच्छा बची,यही जिजीविषा का त्याग और वह मरने की भी इच्छा नहीं रखता है क्योंकि उसमें इच्छा समाप्त हो गई है वह पूर्णतः निर्द्वंद्व हो गया है । यह है संन्यास के वास्तविक अधिकारी के लक्षण जैसा कि गीता में भी जगह जगह पर जिजीविषा का त्याग करने का स्पष्ट संकेत दिया गया है ।
आज का संन्यास
शास्त्रों में आता है कि जब किसी व्यक्ति से सत्य कहलवाया जाता था तब वह त्रिवाचा करता था, जब व्यक्ति स्वयं कोई कठिन कार्य करता था तब वह प्रतिज्ञा जिसे आज की उर्दू भाषा में कसम कहते हैं करता था, फिर प्राण देकर भी त्रिवाचा (तीन बार दुहराए वाक्य) एवं प्रतिज्ञा का पालन करता था । यह सामान्य नियम था । किन्तु आज के सामान्य नियम और सामान्य मनुष्यों की बात नहीं करूंगा बल्कि इस संपूर्ण समाज के मुकुटमणि संन्यासियों की प्रतिज्ञा के मात्र दो उदाहरण ही दूंगा —
(१) विरजा होम आदि संपूर्ण विधि पूर्ण होने पर संन्यासी हृदय तक जल में दसों दिशाओं को तथा जल रूप नारायण को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करता है — अभयं सर्वभूतेभ्यः दाम्येतद्व्रतं मम अर्थात संपूर्ण प्राणियों को मैं अभय दान देता हूँ यह मेरा (आजीवन) व्रत है । इस प्रतिज्ञा के बाद यदि पूछा जाये कि संपूर्ण प्राणियों को निर्भय करने वाले समाज के मुकुट मणि संन्यासियों क्या तुम स्वयं निर्भय हो गये हो ? यदि तुम स्वयं निर्भय नहीं हो तो फिर तुमने संपूर्ण सृष्टि चक्र के स्थावर जंगम प्राणियों को कैसे निर्भय कर दिया ? मैने एक अपने नजदीकी महात्मा से पूछा था जोकि लगभग बीसों आश्रमों के स्वामी हैं और हजारों लाखों लोग उन्हें प्रणाम मानते हैं कि स्वामी जी ! शास्त्र में तो संन्यासियों के लिए इस प्रकार के निर्देश हैं, फिर क्या दोष नहीं लगेगा ? तो उन्होंने कहा शिवाश्रम जी ! इस प्रकार की चर्चा समाज में या किसी दूसरे से नहीं करना, नहीं तो हम शास्त्र का उपदेश करने वाले स्वयं अशास्त्री होकर लोगों की नजर से गिर जायेंगे । अब देखिए लोगों की नजर से गिरने का कितना भय है ? ऐसे भयभीत लोग समाज को निर्भय कैसे करेंगे ? प्रतिज्ञा के अनुसार संन्यास का अधिकार तो है ही नहीं वरन् जल स्वरूप नारायण और दशों दिशाओं में विद्यमान देवताओं को भी मूर्ख नहीं बना दिया ? ऐसी स्थिति में शास्त्र ऐसे संन्यासियों की क्या गति निर्धारित करता है ? यह स्वयं विद्वत्वर्ग समझे ।
(२) संन्यासी का प्रेम मन्त्र गुप्त होता है उसका उल्लेख यहां नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह गुरु शिष्य के बीच का विषय है । तथापि प्रेस मंत्र धारण करने वाले संन्यासी इस विषय में अर्थानुसंधान करें कि उन्होंने देशों दिसाओं और जल स्वरूप नारायण के मध्य में उस प्रेस मंत्र के रूप में क्या प्रतिज्ञा की थी ? और उसका पालन न करना नारायण सहित समस्त देवताओं को भी धोखा देने का क्या परिणाम होना चाहिए ? उसी समय लोकैषणा, वित्तैषणा और पुत्रैषणा के त्याग का किया गया संकल्प कहां गया ? क्योंकि प्रत्येक कर्म का साक्षी एवं फल प्रदाता संकल्प ही होता है । ऐसी स्थिति में तथाकथित संन्यासियों की क्या गति होनी चाहिए । इस विषय में अनुसंधान करते हुए यह विचार करो कि जिस प्रकार से इन्द्र को दस हजार संन्यासियों के वध का पाप नहीं लगा उसी प्रकार आज के संन्यासियों को यदि कोई मार देता है तो उसे पाप कैसे लगेगा ?
प्रत्यक्ष अनुभव भी मेरे सहित ऐसे बहुत प्रमाण हैं जो हमारे संन्यास पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं । इसी प्रश्नचिह्न को हटाने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संन्यास का निषेध करके कर्म में लगाया जो सहज ही मुक्ति का साधन है । अर्जुन के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने कलियुग में संन्यास का ही घोर निषेध किया है यह मान लेने में कोई हिचकिचाहट मुझे नहीं होगी । अतः जो विरजा संपन्न हो चुके हैं वे तो हो ही चुके हैं किन्तु जो नहीं हुए हैं वे अवश्य बचें । कर्म का त्याग न करें । जो संन्यास ग्रहण करके भी यज्ञ हवन कथा आदि कर्म करते हैं वे परधर्मी हैं जिनकी गीता में सर्वथा निंदनीय है । कर्म कोई भी हो,दूर से भले सरल और सहज दिखे लेकिन जब निष्ठा पूर्वक उसे आधार बनाकर उसे किया जायेगा तब वही सरल कर्म अत्यंत कठोर हो जाता है, इसका मैने भलीभांति बड़ी ही कटुता के साथ अनुभव किया है । अतः जिसका जो कर्म है वह उसे ही करे । बार बार सुविधा की दृष्टि से बदलाव नहीं किया जा सकता है, क्योंकि सुविधा की दृष्टि से ही किया जाने वाला कर्म भविष्य में परिवर्तित होकर परधर्म बन जाता है और परधर्मी का पतन निश्चित है । ओ३म् !
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