गुलामी तो गुलामी है

गुलामी तो गुलामी है

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आज कोई भी कुछ भी बोलने और लिखने में स्वतंत्र है किन्तु यदि सत्य कहूं तो मेरे बचपन में हिन्दी में ५०% से अधिक उर्दू का प्रयोग हर क्षेत्र में होता था, यद्यपि मैने सुधार तो यहां तक किया कि हिन्दी क्षेत्र के विशेषज्ञ भी सराहना करते हैं, तथापि यदि कोई हिन्दी में उर्दू शब्द का प्रयोग करता है तो वह इस प्रकार सार्वजनिक निंदनीय अथवा उपहास का पात्र कैसे बन सकता है ? क्योंकि वह उसका स्वभाव है, कोई दुराग्रह नहीं । बहुत सारे आज भी ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिसका अधिकांश लोग या तो अर्थ हिन्दी में जानते ही नहीं हैं और यदि जानते भी हैं तो वे इसलिए नहीं बोलते हैं कि सामान्य लोग उसका अर्थ नहीं समझ सकते हैं, अतः वह बोलना निर्दोष है । फिर यदि कोई मेरी इस पोस्ट पर आपत्ति करता है या उर्दू या अंग्रेजी शब्दों को लेकर उपहास करता है तो वह कितना बुद्धिमान है ? इस पर उसे स्वयं को विचार करना होगा, क्योंकि बुद्धिमान वह नहीं है जो बहुत से ऐसे शब्दों को गढ़ता या बोलता है जो जन सामान्य समझ भी न सकें, बल्कि बुद्धिमान वह है जो जन सामान्य को भी उसकी ही भाषा में समझा सके । इतने पर भी यदि किसी को आपत्ति हो तो वह तुलसी कृत रामचरितमानस को उठाये और फाड़कर फेंक दे क्योंकि उर्दू के शब्दों का प्रयोग वहां भी किया गया है जैसे —  गई बहोरि गरीब नेवाजे, यहां  गरीब शब्द जहां उर्दू है वहीं नेवाजे अर्थात नवाजना शब्द अरबी है, क्या कोई इन शब्दों को बदल सकता है ? यह तो एक छोटा सा उदाहरण बताया है, बाकी और भी बहुत कुछ देखा जा सकता है । अतः इस प्रकार का उपहास अनुचित और मानसिक असंतुलन का जीता जागता प्रमाण है जो समाज को शिक्षित नहीं बल्कि साक्षत नफरत (घृणा) का पुतला (प्रतिमा) बना देगा और फिर वही होगा जो शरिया कानून के चाहने वाले चाहते और करते हैं, अन्तर इतना होगा कि वह हरा आतंक है और यह भगवा होगा, लेकिन है तो आतंक ही । इसलिए हमें हरे आतंक को समाप्त करने के लिए दिमाग (मस्तिष्क) में नफ़रत (घृणा) न भरकर स्वयं कर्तव्य निष्ठ होते हुए ही गीता रामायण आदि के माध्यम से स्वकर्तव्य का बोध कराना चाहिए जो जमीनी हकीकत (वास्तविकता) में परिवर्तित होकर हरे आतंक से लड़ सके और स्वयं को स्वतंत्र कर सके । अभी तो मैंने मात्र हरे आतंक यानी उर्दू पर ही यह बताया है किन्तु यदि नकारात्मक भाव दिखा तो आज के प्रत्येक व्यक्ति की अंग्रेजियत और उसकी गुलामी का भी दिग्दर्शन करा सकता हूं, क्योंकि मिलावट तो मिलावट होती है,वह चाहे उर्दू की हो या अंग्रेजी की । गुलामी की दुर्गंध तो सब जगह ही है ।

               और अब भगवा आतंक क्यों कहा इस पर भी समझ होना आवश्यक है । मैं सन् २००४ ई. में अमरकंटक में चतुर्मास कर रहा था, उसी समय संघ प्रमुख मोहन भागवत का कार्यक्रम था । मैं वहां तो गया नहीं किन्तु एक स्वयं को RSS का कोई पदाधिकारी बता रहा था, वह स्वयं को केरला का कोई ब्राह्मण बता रहा था । चर्चा के दौरान उसने कहा कि जब मुसलमान हिन्दू लड़कियों को ब्याह लेते हैं तो हिन्दुओं को भी मुसलमानों की लड़कियों को जबरन ब्यहना चाहिए, बलात्कार करना चाहिए । मैंने इसमें असहमति प्रकट की तो वह नाराज हो गया । तब मैने पूछा अच्छा ये बताओ आप ब्राह्मण हो और आपका लड़का कोई मुस्लिम लड़की को बहू बनाकर ले आये तब क्या उसे बहू स्वीकार करके घर में रख लोगे ? उसने बड़े क्रोध में उत्तर दिया कि उसे और उस लड़की को दोनों को देहली पर सिर रखकर काट ही नहीं डालूंगा बल्कि शरीर के टुकड़े टुकड़े कर डालूंगा । तब मैंने प्रश्न किया कि आप भी हिन्दू हो और मुस्लिम लड़की हिन्दू द्वारा ब्याहने के पक्ष में हो तो फिर आप स्वयं मुस्लिम लड़की को बहू स्वीकार करके घर में क्यों नहीं रख सकते ? पहले वह स्वयं करो जो दूसरों से कराना चाहते हो ।  फिर दूसरों को प्रेरित करो । तब वह मुझसे चिढ़कर बोला कि तुम निश्चित मुस्लिम बहुल क्षेत्र के हो इसीलिए मुस्लिम पक्ष ले रहे हो । लेकिन मैं तो यही करूंगा क्योंकि मुसलमानों ने मेरे घर में घुसकर मेरे पिता और भाई सहित चार लोगों को मार डाला था । अब देखिए घृणा का स्वरूप किस रूप में सामने आया ? निजी शत्रुता का स्वरूप समाज में इस प्रकार की घृणा फैलाकर क्या यह भगवा आतंक नहीं फैला रहे ? क्या ये लोग भोले भाले हिन्दुओं को मूर्ख बनाकर उनके मस्तिष्क में जहर नहीं घोल रहे ? जो स्वयं न कर सके क्या वह दूसरों को करने के लिए इस प्रकार प्रेरित करना चाहिए ?

         दूसरी चार पांच साल पहले की कुछ घटनाएं हैं जो उत्तर प्रदेश से संबंधित फेसबुक पर देखी जो बजरंग दल नामक समूह द्वारा साझा की गई थीं, संयोग यह कि मेरे पूर्वाश्रम के गृह जनपद के आसपास की ही घटनाएं थीं । मैंने स्थान आदि की समूह जानकारी मांगी और जांच कराने की बात कही, तो पता नहीं पोस्ट मिटाई गई या नहीं लेकिन मुझे अवरुद्ध अवश्य कर दिया गया और साथ ही धमकी भरे फोन भी आये कि यदि ऐसा करोगे तो परिणाम बहुत बुरा होगा । एक घटना हिन्दू वाहिनी नामक समूह की थी जो मैं स्वयं जिस जिले में वर्तमान में रहता हूं उस नरसिंहपुर जिले की मध्यप्रदेश से है । जब मैने कहा कि मैं इसी जिले का निवासी हूं घटना स्थल बताएं ताकि मैं जांच कराकर अपराधियों की जड़ तक पहुंच सकूं और दंड दिलवा सकूं । इस पर वह पोस्ट मिटा दी गई और फोन पर किसी मेरे परिचित ब्राह्मण देवता का फोन आया कि महात्मा तुम हो मैं नहीं, तुम सच बोलो मैं नहीं, मैं तो ऐसा ही करूंगा जिससे अधिक से अधिक मुसलमानों के प्रति नफ़रत फैले और बीजेपी की सत्ता बरकरार बनी रहे और जहां नहीं है वहां बीजेपी आ जाये । और भविष्य में इस प्रकार टिप्पणी की तो परिणाम भुगतने को तैयार रहना ।

            गौरक्षकों की स्थिति ये है कि उनके घरों में जाकर देखो तो अधिकांश गौरक्षकों के घर में गायें नहीं मिलेंगी । और इधर उधर से पकड़ कर नजदीकी गौशालाओं में छोड़ आते हैं, फिर मुड़कर भी नहीं देखते हैं कि उन गौशालाओं की खानपान आदि कोई व्यवस्था ठीकठाक है भी या नहीं ? कम से कम गायें न पालें तो गौशालाओं में ही जाकर भूसा पैसा आदि से सहयोग करें किन्तु वह भी नहीं । इसे क्या कहा जाये ? भगवा आतंक या सनातन धर्म रक्षक ? गाय को राष्ट्रीय पशु की मांग करने वाले और उनके समर्थक कितनी गायें पाल रहें ? गौरक्षा का कानून बनाने की मांग और समर्थन करने वाले कितनी गायें पाल रहे हैं ? यदि सभी गायें पाल लें, तो बिक्री होगी ही नहीं तब गायें कटेंगी कैसे और जब कटेंगी ही नहीं तब किस कानून की आवश्यकता होगी ? मात्र इन्टरनेट पर शोर मचाने से तो कुछ होने वाला नहीं है । कुछ भगवा धमकी मिलने के पश्चात मैंने भी शपथ ले ली कि इस विषय में न तो चर्चा करूंगा और न ही ऐसे लोगों से कोई संबंध रखूंगा । अब इसे चाहे आप देश, हिन्दू और गौरक्षा नामक सेवा कहो अथवा मैं इसे भगवा आतंक कहूं । होने वाला कुछ नहीं है जब तक जमीनी आन्दोलन न हो । इसके लिए प्रत्येक हिन्दू को शिखा रखनी होगी, अधिकारी को जनेऊ पहनना होना सिर की टोपी और पगड़ी पहननी होगी । महिलाओं, लड़कियों को छोटे कपड़े त्यागकर अपने सनातन परिधान पहनने होंगे । जब इस प्रकार हम सभी स्वयं ही अपने स्वाभाविक स्वधर्म का पालन करेंगे और फिर आन्दोलन करेंगे तभी कुछ संभव हो सकता है, मात्र नेट पर नफरत फैलाने से कुछ होने वाला नहीं है । ओ३म् !

                                     स्वामी शिवाश्रम




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