हम ऐसे विराट पुरुष को जानते हैं



हम ऐसे विराट पुरुष को जानते हैं


चन्द्रमामनसोजात: चक्षो: सूर्योऽजायत ।
श्रोत्रात् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।

               चन्द्रमा विलासिता का अधिष्ठातृ देवता है । इसका प्रमाण देखिए रूप में रोहिणी को ही मात्र चयन करके अपना नाश कर लिया फिर भी माना नहीं । इसी प्रकार मन भी विलासी है कोई न कोई रूप को ही देखकर आकर्षित हो जाता है । अतः विलासी का देवता विलासी ही होगा । तो यहाँ पर कहा ----  मनस: चन्द्रमा जात: मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ अथवा (सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात) जिस अजात पुरुष का चन्द्रमा ही मन है । चक्षो: सूर्यो: अजायत अर्थात् सूर्य से नेत्र उत्पन्न हुए अथवा जिस आजात विराट पुरुष का सूर्य ही नेत्र है ।

  👆यहाँ शंका हो सकती है कि लोक में दो नेत्र प्रसिद्ध हैं और विराट पुरुष एक नेत्र वाला कैसे हो सकता है ?

            इसका उत्तर मात्र इतना होगा कि---
१-- वह अपने जैसा कभी किसी को देखना नहीं चाहता अतः सबसे अपनी भिन्नता बना कर सुरक्षित रखी है ।
        २--ज्ञान नेत्र दिव्य दृष्टि भी एक ही है और वह दिव्य दृष्टि से स्वाभाविक ही देखता रहता है । सूर्य नेत्र का अधिष्ठातृ देवता है ।
         यहाँ ज्ञान नेत्र से भी सूर्य ही होगा दिव्य सूर्य । ज्ञान एक ही सोता स्वरूप ज्ञान, वह प्रकाश रूप है अतः प्रकाशरूपता की सादृश्यता के कारण सूर्य से तुलना की गई है ।
         ३-- सूर्य को यजुर्वेद में "सूर्याऽत्मा जगत:" अर्थात सूर्य जगत की आत्मा है और वह आत्म रूप में स्थित होकर सबको देखता है । अतः सूर्य जिस अजात का नेत्र है ।
                श्रोत्रात् वायुश्च प्राणश्च अर्थात वायु से श्रोत्र और प्राण उत्पन्न हुए ।

           शंका--- इसके अगले मंत्र में दिशाओं से श्रोत्र की उत्पत्ति कहा है और यहाँ वायु से तो ये विरोधाभास हुआ ...?
          समाधान-- नहीं ! विरोधाभास नहीं है वायु का विचरण दिशाओं में ही होता है अतः अन्वय व्यतिरेक से दिशा का उपलक्षण वायु कहने में दोष/विरोधाभास नहीं है ।
           अथवा वायु ही जिस विराट पुरुष के श्रोत्र और प्राण हैं ।
            मुखात् अग्नि: अजायत । अग्नि से मुख की उत्पत्ति हुई है । यहाँ मुख का अधिष्ठातृ देवता अग्नि ही है जो देवताओं का मुख कहा जाता है । हम स्वयं भी जो कुछ खाते हैं वह मुख मार्ग से ही खा कर भस्म करते हैं । चूंकि अग्नि सर्वभक्षक्षी हैं और प्राणियों का मुख भी सर्व भक्षी है । अतः अग्नि से ही मुख की उत्पत्ति हुई है अवथा अग्नि ही जिस विराट पुरुष का मुख (महाप्रलय में सब कुछ खा जाने वाला) है । [{हम ऐसे अजात विराट पुरुष को सम भाव से इन रूपों में ठीक से जानते हैं ।}] ओम् !
ओ३म्

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