अन्न की महिमा
अन्न की महिमा
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानत् ।अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि जीवन्ति ।अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति ।(तैत्तरीय उपनिषद वल्ली ३ अनुवाक २)
अन्न ब्रह्म है ऐसा जानें । क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होने के बाद अन्न से ही जीते हैं । प्रयाण काल (मृत्यु के समय) में अन्न में ही लीन हो जाते है ।
अतः ----
अन्नं न निंद्यात् । तद् व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् । (तै.उ.व.३अ.७)
अर्थात अन्न की निंदा न करो । यह व्रत है । क्यों प्राण ही अन्न है ।
अन्नं न परिचक्षीत । तद् व्रतम् ।आप आपो वा अन्नम् । अप्सु ज्योति: प्रतिष्ठितम् ।(तै.उ.व.३अ.८)
अर्थात अन्न कात्याग न करे न करे । यह व्रत है । जल ही अन्न है , क्योंकि जल में ही ज्योति अर्थात तेज प्रतिष्ठित है ।
अन्नं बहु कुर्वीत । तद् व्रतम् । पृथ्वी वा अन्नम् । पृथिव्यामाकाश: प्रतिष्ठित: । (तै.उ.व.३अ.९)
अन्न बहुत बढ़ावे अर्थात बहुत उत्पन्न करे । यह व्रत है । पृथ्वी अन्न है । पृथ्वी में ही आकाश स्थित है ।
यहाँ हमने कोई भी मंत्र पूरा नहीं लिया है कारण कि वहाँ के अनुसार निबंध बड़ा हो रहा था । अधिक समझने के लिए प्रमाण दिया गया है वहाँ देख लेना चाहिए ।
यहाँ मात्र संकेतिक मात्र अन्न की महिमा है । पहले श्लोक में अन्न ब्रह्म कैसे है करके ब्रह्म का लक्षण बताया गया है । दूसरे मंत्र में अन्न की निंदा न करने का व्रत लेने की आवश्यकता बताई गई है क्यों अन्न ही प्राण है उसके बिना जीवन नहीं हो सकता अतः अन्न की निंदा न करने काव्रत ले और यह मन से निकाल दे कि यह नहीं खाता वह नहीं खाता ये क्यों बनाया वो क्यों बनाया आदि का विक्षेप त्यागकर जो उपस्थित मिले प्रभु काप्रसाद समझकर ग्रहण करें देश काल परिस्थिति एवं पात्रता के अनुसार ।
तीसरे मंत्र में अन्न का त्याग अर्थात नष्ट न करने का व्रत लेने को कहा गया है । हमारे द्वारा त्यागे गये अन्न से अनेक भूखों की भूख मिट सकती है अतः उसका त्याग अर्थात नष्ट न करके उसके अधिकारी को दे देना चाहिये । साथ ही जल को भी अन्न कहा गया है अतः जल को कभी अनावश्यक नष्ट यादुरूपयोग नहीं करना चाहिए । जैसा कि आजकल देखा जारहा है और परिणाम भी जल संकट कासामने ही है ।
[{यहाँ हम थोड़ी अपनी बात रखते हैं कि विभिन्न परिस्थिति के अनुसार मुझे इस बार भिक्षा में कुछ समस्या हुई थी । शायद मेरी ही कमी के कारण क्योंकि मैं लहसुन-प्याज नही खाता हूँ । अतः जिसके यहाँ से भिक्षा ग्रहण करता वहीँ बैठकर भी ग्रहण किया और शाम के लिए टिपिन रखवा लिया और उसे लाकर शाक भाजी तो समाप्त कर देता और रोटी सुखा लेता जिसे आठ दस रोज या अधिक दिन में पा लेता था । कुछ लोगों ने कहा कि ये तो बासी यादूषित हो गया तो मैने कहा कि जब तक दुर्गंध न आ जाये तब तक दूषित कैसा ? ठीक से सूख गया तो अन्न है खराब होने का प्रश्न ही नहीं है । आपकी डबल रोटी और बिस्कुट से तो ठीक ही है । होटल के आहार से तो ठीक ही है जो कभी कभी मिलता तो गरम गरम ताजा है लेकिन अत्यंत दुर्गंध मुंह जाते ही पैदा होकर सारा दिमाग और स्वास्थ्य ही खराब कर देता है । अतः मैने इसी लिए वैवाहिक आदि समारोहों में सिद्ध किये गये अन्न को जोखराब होने वाला हो उसे गरीबों में बांटकर शेष रोटी पूड़ी आदि को सुखाकर मिक्सर करके या पानी आदि में भिगो कर उसका हलवा आदि बानकर खाने में क्या दोष है ? वही आपकासाबूत अन्न बचा जिससे आप और का भी पेट भर सकते हैं और अपनी अर्थ व्यवस्था को भी मजबूत कर सकते हैं}]
चौथे मंत्र में अन्न बहुत बढ़ने काव्रत कहा गया । कारण कि जब अन्न बहुत होगा तभी आप आगंतुक अतिथि का भी सेवा सत्कार कर सकेंगे और अपनी अर्थ व्यवस्था कोभी सुदृढ़ बना सकेंगे । यहाँ पृथ्वी को ही अन्न कहा कारण कि यही सभी प्रणियों एवं अन्न काआधार है । अतः यहाँ से भी यह शिक्षा मिलती है कि पृथ्वी का भी संरक्षण अत्यावश्क है अन्यथा सृष्टि में उथल-पुथल हो जायेगा । अनावश्यक होने वाले उत्खनन जैसा कि आज देखा जा रहा है और साराविश्व मान रहा है वह नहीं होना चाहिए । क्योंकि पृथ्वी में ही आकाश प्रतिष्ठित है । इससे यह भी सिद्ध होता हैकि पृथ्वी के साथही आकाश का भी संरक्षण आवश्यक है । अनावश्यक आकाश में बढ़ते प्रदूषण के कारण ही आज कातापमान बारंबारविषम हो रहा है जिसके लिए सारावैज्ञानिक जगत भी चिंतित है ।
अन्न की महिमा को समझकर हम सामाजिक और आध्यात्मिक जगत पर विजय कोप्राप्त अन्नमय होकर परम गति कोप्राप्त करसकते हैं ।
ॐ
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