हमारी संकीर्णता
हमारी संकीर्णता
हमारी शिक्षा पद्धति आज इतनी कमजोर है कि हम अपनी विद्वत्ता के अहं सदैव अर्थ का अनर्थ करने में पीछे नहीं रहते उदाहरण के लिये----
ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्बाहूरान्न्य: कृत: ।
उरूतदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रोऽजायत ।।
यहाँ अधिकांश लोग अर्थ करते है उस विराट के मुख, हाथ, जंघा और पैर से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र उत्पन्न हुए ।
किंतु इसके पूर्व श्लोक में जो प्रश्न उठाया गया है उस पर ध्यान दें---
यत्पुरुषं व्यदधु:कतिधाव्यकल्पयन् ।
मुखङ्किमस्यासीत्किम्बाहूकिमूरूपादाऽउच्यते ।।
यहाँ स्पष्ट विराट यज्ञपुरुष के मुख , बाहु , जंघा एवं पैर क्या हैं ? कहा गया है । इस प्रश्न के बाद "ब्राह्मणोस्य मुखमासीत्....." कहा गया है । इस दृष्टिकोण से अर्थ ही बदल जाता है ।जिसकी व्याख्या पञ्चम वेद कहे जाने वाले महाभारत के "भीष्मस्तवराज:" में देखें ----
ब्रह्म वक्त्रं भुजौ क्षत्रं कृत्स्नमूरूदरंविश: ।
पादौ यस्याश्ररिता: शूद्रास्तस्मै वर्णात्मने नम: ।।
यह मंत्र उपरोक्त अर्थ को ही बदल देता है । और बता देता है कि ये चारों वर्ण जिसके तद् तद् अंग हैं । उस विराट यज्ञपुरुष के । यह अर्थ स्पष्ट बनता है ।
नाब्भ्याऽसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णोर्द्यौ: समवर्तत । पद्भ्याम्भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकाँन्ऽअकल्पयन् ।।
इसकी की व्याख्या----
यस्याग्निरास्यं द्यौर्मूर्धा खं नाभिश्चरणौ क्षिति: ।
सूर्यश्चक्षुर्दिश: श्रोत्रे तस्मै लोकात्मने नम: ।।६८।।
इसीप्रकार ----"चन्द्रमामनसो जातश्चक्षोह: ...." आदि को भी समझ लेना चाहिए ।
हमें विस्तार से शिक्षा की आवश्यकता है परस्पर कलह की नहीं । हमारी शिक्षा रहित पारस्परिक कलह ही हमारे पतन का कारण न कि मुसलमान या ईसाई ।
नोट:---- ये आज धोखे से "भीष्मस्तवराज:" का पेज खुल गया अतः लिख दिया । अधिक समय नहीं है अतः व्याख्या नहीं किया । बड़े-बड़े विद्वान उपस्थित हैं वे स्वयं व्याख्या कर लें और स्वयं ही विचार विमर्श । हमें जो विचार प्रकट करना थाकर दिया ।
ओ३म्
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