तो हम निर्बाध होंगे


तो हम निर्बाध होंगे

सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात् ।
सभूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।। श्वेताश्वरोपनिषद अ.३/१४।

           यहाँ सहस्र का अर्थ अनन्त से लिया जयेगा अर्थात् जिसके अनन्त सिर, नेत्र,पैर हैं वह भूमि सहित सभी को आवृत अर्थात ढक कर/अपने अन्दर समाहित करके भी उससे दस अंगुल ऊपर स्थित है । 

              यहाँ शुक्ल यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त में थोड़ा पाठ भेद है । "सभूमिं"के पश्चात "सर्वतस्पृत्वा" है अर्थात सबका स्पर्श करता हुआ । अर्थ वही होगा आवृत या ढक कर ।

           पूर्वोक्त और इस ऊपरोक्त मंत्र का अर्थ ये मंत्र स्पष्ट करेगा -----
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुख:विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् । श्वे.उ.अ.३/३। 
       अर्थात विश्व ही जिसके नेत्र, मुख, भुजा और पैर हैं । विश्व.....! अर्थात सब ओर से अतः पूर्वोक्त सहस्र का इस मंत्र को देखते हुए अनन्त ही अर्थ बनता है । "सर्वानन शिरोग्रीव: ..." श्वे.उ.अ.३/११ जितने सृष्टि में हाथ पांव और मुख नेत्र हैं वह सब उसी में हैं ।

           अब प्रश्न उठता है यहाँ दश अंगुल का अर्थ क्या लें ....? तो यहाँ समस्त अनन्त विश्व को ही पृथ्वी सहित ढकने वाला इससे अधिक विशाल होग तभी तो ढक सकेगा ? अतः यहाँ दश अंगुल भी सहस्र की तरह अनन्तत का द्योतक है ।

         दूसरी बात साधना क्रम में उस परमात्मा को हृदय देश में स्थित माना गया है जो सृष्टि चक्र (नाभि से) दस अंगुल ऊपर है ही है । "सदा जनानां हृदये संनिविष्ट: ।" श्वे.अ.३/१३ । और गीता में "हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। १८/६१ कहा है । 

          अतः उपरोक्त मंत्र का अर्थ होगा अनन्त ब्रह्मांड में जितने हाथ पांव मुख नेत्र आदि हैं सब उस के हैं उसमें नहीं हैं । आद शब्द का मतलब----
सर्वत: पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षि शिरो मुखम् ।
सर्वत: श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।। श्वे.उ.अ.३/१६ एवं गी.अ.१३/१३।।
सर्वेन्द्रिय गुणाभासं सर्वेन्द्रिय विवर्जितम् । श्वे.उ.अ.३/१७एवं गी.१३/१४ ।


           इसके उत्तरार्ध में पाठ भेद है किन्तु अर्थ समान समझना चाहिए ।

            अतः यहाँ हर वस्तु विराट से उत्पन्न हुई है ये बात तो मानने में कोई समस्या नहीं है तथापि पूर्वोक्त अर्थ करने से एक मात्र विराट के स्वरूप का बोध उत्पन्न करता है । अन्यथा ----- यदि ऐसा अर्थ न लें तो फिर -----
ब्राह्मणोऽस्य मुखमास्द्बाहू राजन्य: कृत: ।
उरूतदस्य यद वैश्य:पद्भ्यां शूद्रोऽजायत ।। 
            अर्थात उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय , जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुआ कहते रहे और झगडा करते रहो । उस विराट को कभी न देख सकोगे और न ही शान्ति पा सकोगो । 

               इससे अच्छा अर्थ यह करो कि ब्राह्मण ही जिस अजायत (जो कभी जन्मता ही नहीं) का मुख है तो क्षत्रिय भुजाएं , वैश्य जांघें और शूद्र ही जिनके पैर हैं । ऐसा जो अजन्मा विराट् पुरुष है हम उसे जानते हैं हम उसकी शरण में हैं । वही स्वयं से स्वयं को पालता है , सबमे रमण , और नष्ट (खा) करके फिर उगल (सृजन) कर देता है । इसी लिये वही विराट पुरुष भैरव कहलाता है ---
भ = भरति , र = रमति , व = वमति इति भैरव: । 
           अब प्रश्न ये है कि वही सब कुछ है तो फिर वह खाता क्यों है तो इस पर कहते हैं न वह खाता है न नष्ट करता है जैसे कल्पना की सृष्टि है वैसे कल्पना से से विराट शरीर है और जहाँ शरीर है वहाँ आहार है । अतः इसीलिये आगे कहते हैं ----

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यं । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।

               जो कुछ भूत भविष्य है वह सब अन्न द्वारा ही परिपालित होता है वह (विराट) पुरुष  ही है । तथा वही अमृतत्व (मोक्ष) का हेतु ईशान (स्वामी) है अतः वह स्वयं से स्वयं को स्वयं ही अन्न रूप होकर पारित करता है और स्वयं ही मोक्ष को प्राप्त करता है । इस मंत्र की व्याख्या तैत्तरीय उपनिषद में जो अन्न और अन्नाद कहा गया है । वहाँ जो अन्न अन्नाद की महिमा कही गई है वही यहाँ स्पष्ट होती है "अन्नाद्वै प्रजा प्रजायन्ते" अन्न से ही प्रजा उत्पन्न होती है । "अन्नैव जीवन्ति । अथैनदपि यन्त्यन्तत: ।" अन्न से जीवित और उसी अन्न में ही विलीन हो जाती है ।
इत्यादि हमारे लेख "अन्न की महिमा" में कहा गया की परिपुष्टिएवं श्रुतियों की एकता का प्रतिपादन करते हुए भगवती गीता के साथ भी औपनीषदीय एकता स्थापित करती है । 

            अतः हम हर कदम में अर्थ चिंतन में विराट को विश्व में न देखकर विश्व को विराट में देखें तो हर समय वह अत्यन्त दुराति दूर वाला विराट हमारे अत्यंत निकटातिनिकट होगा । 

हानि-लाभ पर भी विचार करें तो----

         👉अगर हम उस विराट को विश्व में देखेंगे तो आज नहीं तो कल विराट को विश्व में देखते देखते वैश्विक वस्तुओं में रस आने लगेगा और हम विराट को रस के चक्कर में अनन्त जन्मों से भूलने के कारण ही अभी इस दुर्गति को प्राप्त हुए और आगे का मार्ग प्रशस्त कर लेंगे । अगर हमने विश्व को विराट में देखना प्रारंभ किया तो हमारे उत्थान को रोकने की किसी क्षमता ही नहीं है । अतः सकारात्मक भाव में अगर इन वैदिक , औपनिषदीय एवं गीता के अर्थ करें तो वर्ण (जाति) से लेकर अध्यात्म और परम गति तक निर्बाध होंगें कोई भी समस्या नहीं होगी ।

नाभ्याऽसीदन्तरिक्षं शीर्षणौर्द्यौहो सम वर्तत पद्भ्यां भूमिर्दिश:श्रोत्रात्तथा लोकान् अकल्पयन् ।। 

             अंतरिक्ष ही जिसकी नाभि है, द्यु लोक ही जिसका सिर है, भूमि ही जिसका चरण है दिशाएं ही जिसके कान हैं इस प्रकार लोकों का संकल्प (उस परमात्मा में ) करने वाला (साधक ही ) सम वर्तत अर्थात बराबर मतलब ठीक से जानता है । ओम !

नोट:---- यह भाव मेरा है अपना है उधार नहीं लिया है । अतः जिसे पसंद न आये तो उपेक्षा कर दे किन्तु अनावश्यक कुतर्क करके समय नष्ट न करे । मात्र सुझाव दे सकता है मानना न मानना हमारी निजता है ।
ओ३म्

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