सामगान, दैनिक व्यवहार एवं प्रणव चिन्तन
सामगान, दैनिक व्यवहार एवं प्रणव चिन्तन
इस लेख के कुछ अंश को कल्याण के वेद कथाङ्क को. १०४४ पृष्ठ२११-१२ से सामगान की संक्षिप्त विधि से लिया गया है । हमें किसी भी प्रकार का वेद या राग रागिनी का ज्ञान नहीं है । समय पास की इच्छा जाग्रत है । अतः २७ मई २०१८ का लेख प्रस्तुत है । प्रमाण उपरोक्त स्थान पर देखें.....)
स (षड्ज), रे (ऋषभ), ग (गंधार), म (मध्यम), प (पञ्चम), ध (धैवत), नी (निषाद) इन इन सातों स्वारों को सभी जानते हैं और इन्हीं सातो स्वरों में यज्ञों में सामगान एवं दैनिक मनोरंजन करते हैं । ये सप्त स्वरों का गान आठ विकारों से युक्त होता है ---
१-- सं.संज्ञा---विकार, विवरण---एक स्थान पर दूसरा बोलना । उदाहरण--- "अग्ने=ओग्नायि"
२-- सं.संज्ञा-- विश्लेष, विवरण--- संधि कि विच्छेद करना । उदाहरण---"वीतये=वोयि तोया२यि"
३-सं. संज्ञा-- विकर्ण, विवरण---- लंबा खींचना। उदाहरण--- "ये=या२३यि"
४-- सं.संज्ञा--- अभ्यास, विवरण--- बार बार उच्चारण करना । उदाहरण---"तो या २ यि तोया २ यि"
५-- सं.संज्ञ--- विराम, विवरण--- पद के बीच ठहरना । उदाहरण--- "गृणानो हव्यदातये=गृणोनोहा व्यदातये"
६-- स्तोभ - उदाहरण--- निरर्थक वर्ण का प्रयोग । उदाहरण--- "औ हो वा, हा ३ हावु"
७-- सं.संज्ञा--- आगम । विवरण---अधिक वर्ण का प्रयोग। उदाहरण---"वरेण्यम्=वरेणियोम्"
८-- सं.संज्ञा--- लोप । विवरण---वर्ण का उच्चारण न करना । उदाहरण---"प्रचोदयात्=प्रचोऽ१२ऽ१२ । ये हुये गान के अष्ट विकार....
अब इन आठों में से कुछ दैनिक जीवन से संबंध देख रहे हैं___
१--- विकार अर्थात एक वर्ण के स्थान पर दूसरा बोलना..। उदाहरण -- अनुज=अन्नू, मनोज=मन्नू
यहाँ दूसरे विकार का उपयोग नहीं अतः तीसरा..,
विकर्ण अर्थात लंबा खींचना, उदाहरण--अनुज=अनू२३ज् । लंबा खींचने पर ह्रस्व "नु" दीर्घ "नू" हो जायेगा और "ज" के स्थान पर "ज्" हो जायेगा ।और अधिक लंबा खींचने पर "अनो२३४३२१ज्" हो जायेगा ।
चौथा--- अभ्यास, अभ्यास तो जीवन का अंग ही है जैसे----ओमोमोमोम्
यहां पर पांचवें की आवश्यकता नहीं अतः छठा विकार…
स्तोभ----ब व्यक्ति कि ध्यान विकर्ण पर नहीं जाता तब निरर्थक वर्ण का प्रयोग किया जाता है…, उदाहरण--- अरेऽ२३२१ अनो२३४२१ज् ।
सातवां-- आगम.... आगम के अंतर्गत अधिकतर ग्राम्य भाषा में अधिक वर्ण का प्रयोग होता ही है …, उदाहरण--- अनुजवा, मनोजवा आदि।
आठवाँ लोप अर्थात पूरा उच्चारण न करना…,उद ाहरण--- रामावती = रामाऽ१२ऽ१२ ।
इस प्रकार आठ में से छः विकार हमारे नित्य जीवन की दिन चर्या ही है और शेष दो विश्लेष और विराम की पूर्ति भी कोई न कोई गीत गाकर कर ही लेते हैं । इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता । बल्कि हम देनिक जीवन में आपने आराध्यों का स्मरण प्रत्यक्ष दीवार के उस पार अपने आत्मीय को पुकारने की भांति ही महत्व देते हैं ।
मैं उन लोगों को आकृष्ट करना चाहूंगा जो ओ३म् कहने पर आर्यसमाजी कहकर चिढ़ाते हैं कि वे लोग सामवेदीय छान्दोग्योपनिषद, तैत्तिरीय उपनिषद, शुक रहस्योपनिषद आदि पर भी ध्यान केंद्रित करके स्वस्थ हो जायें और अपनी मर्यादा न तोड़ें, क्योंकि सामने वाले पर आपकी अभद्र भाषा कआ क्या प्रभाव पड़ेगा पता नहीं लेकिन आपका मानसिक स्वास्थ्य अधिक बिगाड़ रहा है और उसकी रक्षा आप ही कर सकते हैं । ओ३म् का ध्यान प्लुत और लय क्रम से करने पर आज्ञा और सहस्रसार जैसे चक्रों को भी जाग्रत कर सकते हैं और अनेक मानसिक विकारों, रोगों से छुट्टी भी ।
उपनिषदों म़े उद्गीथ की बड़ी महिमा गायी गई है । उद्गीथ के रूप में ॐ की मात्रात्मक उपासना की गई है । जो हृदय के स्वाभाविक उद्गार गीत रूप में उद्भूत होते हैं उसे उद्गीथ कहते हैं जिसे हम गांव की भाषा में उद्गीत भी कहते हैं ।
गीता में श्रीभगवान "वेदनां सामवेदोऽस्मि" गी.१०/२२ कहते हैं और लोक प्रचलन में ऋग्वेद को सबसे प्राचीन ग्रंथ माना गया है तो क्या सामवेद की रचना बाद में हुई है ? नहीं...! प्राचीन और नवीन वह होता है जिसकी रचना होती है । वेदों में क्रम विभाग जो व्यास जी द्वारा किया गया है उपरोक्त उक्ति उसके अनुसार है । वेदों की रचना नहीं विभाग मात्र किया गया है । वेद अपौरुषेय है । जो यथार्थ सत्य कि ज्ञान कराये वही ऋग्वेद है । ऋक् अर्थात यथार्थ सत्य ।
"वेदानां सामवेदोऽस्मि" भगवान नहीं है क्यों कहा ? इसलिए कि वह प्राणिमात्र में उद्गीथ रूप में व्याप्त है ।उद्गीथ ही जीवन, षडैश्वर्य, साधन, साध्य एवं साधना है । उद्गीथ स्वयं से स्वयं में स्थित है । यह विशेषता ब्रह्मतत्त्व की है अतः कहा "वेदानां सामवेदोऽस्मि" सामवेद गंधर्व विद्या है जो गायन सप्तस्वर और अष्ट विकारों से युक्त है । इसका विवरण पिछले लेख में दिया जा चुका है । श्वासों पर ध्यान देने पर चतुर्विध प्रणव की ध्वनि थकान, विश्राम, शान्ति और ध्यान आदि के अनुसार अनवरत सुधाई देगी । विज्ञान भी सूर्य में निरंतर प्रणव ध्वनि की पुष्टि कर चुका है ।माताएं भी बच्चों को लोरी के रूप में उद्गीथ ही सुनाती हैं । अष्ट विकारों में से षड्विकार और सप्त स्वर मानव से लेकर पशु पक्षी तक में दैनिक कीसी न किसी रूप में सुनायी पड़ता और उपयोग होता है और शेष दो की गीत गाकर अष्ट विकारों की पूर्ति उद्गीथ के सामगान की स्वरों और विकारों सहित पूर्ति करके अनजान म़े ही सामवेद का सभी नित्य पाठ कर यहे हैं आवश्यकता है अनुभूति की । ॐ का ही विस्तार चारों वेद एवं पुराण आदि शास्त्र हैं जिनकी पुष्टि "ओ३म्" नामक शीर्षक में की गई है (की जायेगी) । ॐ वेदों का वेद है । ॐ ही वह है जिसकि रहस्य आज तक कोई नहीं जान सका है और इसे जानकर संपूर्ण वेदों को जाना जा सकता और परम पद प्राप्त किया जा सकता है । भगवान् "वासुदेवः सर्वम्"के साथ यह नहीं कहा कि "वासुदेवः सर्वम्" से परमगति प्राप्त होगी क्योंकि इसके पहले कहा "प्रणवः सर्ववेदेषु" गी.७/८ और वह शब्द रूप है और शब्द आकश रूप है "शब्दः खे" गी.७/८ । और आकाश संपूर्ण ब्रह्माण्ड को को व्याप्त करके स्थूल रूप में स्थित है । अतः वह प्रणव पर अपर या चराचर में बीज रूप मैं स्थित है "बीजं मां सर्वभूतानां" गी.७/९ ।। अतः प्रणव बीज और वासुदेव वृक्ष हैं । प्रणव बीज और वेद वृक्ष हैं जिसके लिए कहा "छन्दांसि यस्य पर्णानि" गी.१५/१५ । अतः वृक्ष के माध्यम से बीज को जानो अतः वासुदेवः सर्वम् करके जानो और और फिर उस बीज को जिसकी वेदवित् जानते कहते हैं "यदक्षरं वेदविदो वदन्ति" गी.८/११ ।। और आगे कहेंगे "वेद्यं पवित्रमोंकारम्" गी.९/१७ एवं "वेदैश्चसर्वैरहमेववेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ।।" गी.१५/१५ । उसी को यहां कहते हैं--
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं सा याति परमां गतिम् ।। ८/१३ ।।
यहाँ लयक्रम ही प्रणव का व्याहरन् बनेगा । जिसकी व्याख्या आगे "ओ३म्" शीर्षक में करेंगे । यहां वासुदेव को ओ३म् में समाहित कर दिया क्योंकि "अक्षरं ब्रह्म परमम्" गी.८/३ ।। भेद ज्ञान तक ही "वासुदेवः सर्वम्" की उपासना है अभेद का ज्ञान होते ही "अक्षरं ब्रह्म परमम्" में प्रविष्ट होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है । इस प्रसंगानुसार भगवान यह कह रहे हैं कि भेदोपासना आध्यात्मिक क्षेत्र की प्राथमिक शाला है और अभेदोपासना शिक्षा की परम सीमा । इस प्रकार का चिंतन यह कह रहा है कि श्रीमद्भगवद्गीता वेदों से पूर्णतः अभिन्न और एकेश्वरवादी ग्रंथ है । भेद भाव उत्पन्न करके वे अपनी माया का आश्रय लेकर नचा रहे हैं और हम नाच रहे हैं । बंध्यो कीर मर्कट की नाईं । सबहिं नचावत राम गोसाईं ।।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारूढानि मायया ।। गी.१८/६१ ।। ।
आपने शिव हरि विष्णु आदि के एकवचन, द्विवचन और बहुवचन रूप बनाकर एक से दो या बहुत शिव हरि विष्णु बना दिये जैसे कि अनेक ग्रंथों में अन्यान्य ब्रह्माण्डों में अनेक ब्रह्मा विष्णु आदि का वर्णन मिलता है लेकिन क्या आने ॐ के रूप बनाकर दो या बहुत ॐ बनाये ? नहीं न.....? बस यही प्रमाण एक ब्रह्म के "एकमेवाद्वितीयं" छान्द. उ.६/२/१ का है । यह ॐ स्वाभाविक रूप से प्राण संचार कर रहा है । इसके रुकने पर आज तक कोई विज्ञान पैदा नहीं हुआ जो पुनः श्वास के रूप उद्गीथ वापस सुना दे । वेद अनन्त है । वेद समझना है तो ॐ को समझना ही होगा अन्यथा कभी विश्रांति नहीं मिल सकती । वेद का प्रत्येक मंत्र योगवासिष्ठ की वह महाकाली है जिसकी योनि से क्षण प्रतिक्षण हजारों (अनन्त ब्रह्माण्ड उत्पन्न और नष्ट हो रहे हैं लेकिन वह महाकाली ज्यों का त्यों नृत्य कर रही है । वेद सर्वज्ञ हैं अह अल्पज्ञ हैं ।वेदों में मूर्ति पूजा है वेद में मूर्ति पूजा नहीं है, वेदों में अवतार हैं वेदों में अवतार नहीं हैं , इस मंत्र का यही अर्थ होगा, नहीं नहीं यह अर्थ कैसे हो सकता है ? इसका अर्थ यही समीचीनी है जो हम कह रहे हैं इत्यादि हठधर्मिता हमारी अल्पज्ञता को और अधिक गहरे अंधकार में डाल देती है । हमारे परमाराध्य कहा करते थे कि जब तक रात और दिन को एक साथ खड़ा नहीं कर लेते तब तक सत्य को नहीं समझा ज सकता । ईशावास्योपनिषद भी कहता है कि विद्या और अविद्या दोनो का त्याग करो, क्योंकि जब तक विद्या है तब तक अविद्या अनवरत विद्यमान रहेगी, ठीक वैसे ही जब तक दिन है तब तक रात्रि को नकार भी कैसे सकते हैं ? इसलिए कहा ... "मौनं आत्मविनिग्रहः" १७/१६ । हम जो मंत्रार्थ करते हैं वह मंत्रार्थ नहीं है, वह हमारा या अनुवादक का अनुभव मात्र है । मंत्र तो मात्र मंत्र ही है । यदि अपकी दृष्टि में दूसरे का अर्थ गलत है तो दूसरे की दृष्टि में आपका भी तो अर्थ गलत है, फिर झगड़ा क्यों ? इसलिये कि हम "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे" य.वे ३६/१८ का अनुसरण नहीं कर रहे हैं । आवश्यकता है एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझने की, झगड़े की नहीं । अतः नित्य उद्गीथ का श्रवण करके एवं गीता का नित्य चिंतन करते हुए आपना जीवन धन्य करते हुए समाज में शान्ति और सौहार्द का वितरण करें ।यह दुर्गम कार्य साक्षात श्रुत्यावातार भगवती गीता की कृपा के बिना संभव नहीं है । अस्तु....
किसी भी मंत्र का जप चतुर्विध होता है यथा----
ओममोमोमोमोम्...... 👈यह ह्रस्व प्रथम क्रम है ।
द्वितीय क्रम दीर्घ होता जहाँ ओ का दो मात्रा में उच्चारण होता है, जैसे ---- ओ२म्.....
तृतीय क्रम प्लुत का है जिसमें लिखने हेतु तो दो मात्राओं से अधिक दिखाने हेतु तो ओ के साथ ३ लिखकर ओ३म् लिखा जाता है किन्तु उच्चारण ओ२३२१म् इस क्रम से होता है यहां मकार का उच्चारण भी अर्धमात्रात्म रहेगा । ये ओ का उच्चारण आरोह और अवरोह क्रम में प्लुत जप है । तीन के बाद दो और एक की व्याख्या अगले क्रम में ।
चतुर्थ क्रम में तार या लय क्रम होता है इनको संगीतज्ञ भलीभाँति जानते हैं । अतः अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं है। अब देखें ॐ की चतुर्थ विधि का जप या ध्यान.... ओ२३४३२१म्ऽ¼⅛....
यहाँ ओ के उच्चारण को धीमी गति से तेज आरोही गति देकर फिर उसी क्रम में अवरोही गति लेकर स्वर को सूक्ष्म करते जाते हैं जिसे तार या लय क्रम कहते हैं । हारमोनियम का तृतीय सप्तक यहां समझें । ओ का आरोही फिर अवरोही क्रम की गति एक मात्रा में वापस आ जाता है फिर अर्ध मात्रा में मकार का उच्चारण किया जाता है । अर्ध मकार के बाद में जो अर्ध 'अ' है जिसे ऽ👈इस प्रकार लिखते हैं यद्यपि ये अर्ध है तथापि इसका उच्चारण और भी आधा होगा क्योंकि अर्धमात्रात्मक के पश्चात आया है इसी प्रकार ¼⅛👈 ये देने की आवश्यकता न होने पर भी समझने हेतु दिया गया है । वास्तविक समझ तो करके अनुभव प्राप्त होने पर ही आती है । इसे ध्यान के अभ्यासी भलीभाँति जानते हैं । कोई रट्टू तोता कभी नहीं समझ सकता । यही वह स्थल है जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं.... "यदक्षरं वेदविदो वदन्ति" गी.८/११ एवं "ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्....." गी.८/१३ ।जह जप का बड़ा विचित्र क्रम है । आप पत्थर किसी तालाब के पानी में मारिए....., आपने जो पत्थर उठाया वह 'ओ' हुआ और फेंकते ही ओ के साथ २ लग गया, जब तीब्रता से बढ़ा तब ३ लग गया और पानी में गिरने पर जो भयंकर आवाज हुई वह ४ होकर तत्काल ३२१ करके अर्ध मकार होकर फिर जैसे जैसे पानी की तरंग तालाब को व्याप्त करने के लिए आगे बढ़ी वह मात्रा का अर्ध फिर कम कम कम करके मस्तिष्क रूप सरोवर को व्याप्त कर लिया । इसी क्रम की सिद्धि मिलते ही सविकल्प और निर्विकल्प समाधि को स्वतः ही प्राप्त करा देता है ।आप शिवपुराण, माण्डूक्योनिषद सहित बहुत सारे उपनिषद ॐ की विस्तृत व्यख्या हेतु देखकर विचारपूर्वक आत्ममंथन करके संतुष्ट हो सकते हैं । विद्वानों से सुना है कि सर्वाधिक ओंकार की व्याख्या 'गोपथ ब्राह्मण' में मिलती है इतनी व्याख्या और कहीं नहीं । कभी सौभाग्य मिला तो मैं भी देखूंगा, अभी नेट सर्च करने पर pdf मिला नहीं । उसकी विषय सूची अवश्य मिली जिसे देखकर ओंकार की महिमा चित्त को आकृष्ट अवश्य करती है । (बाद में गोपथब्राह्मण देख लिया)
अब हम चर्चा करते हैं छन्द की कि ओ३म् मात्र छंद के साथ ही गाया जाता है, तो आप बता सकते हैं ये छन्द क्या है ? देखिए "छन्दांसि यस्य पर्णानि" गी.१५/१ छन्द तो मात्र उसके पत्ते हैं ।अब छन्द किसके पत्ते हैं ? तो 'प्रणवः सर्ववेदेषु' ७/८ समस्त वेदों में प्रणव मैं हूँ । इसका मतलब प्रणव को बाहर किया तो आपका छन्द बचेघा कहाँ ? मतलब यह हुआ कि समस्त वेद प्रणव के उपबृंहण अर्थात व्याख्या हैं, क्योंकि वही प्रणव शब्दभाव में आकाश रूप होकर स्थित है 'शब्दः खे' गी. ७/८ । तो छन्दों को पत्ते बता दिया तो बीज या जड़...? 'बीजं मां सर्वभूतानां' गी.७/९ प्रणव भी मैं और समस्त प्राणियों का बीज भी मैं, अतः वेदों का वेद रूप वृक्ष का बीज मैं अर्थात ओंकार हूँ । आतः वृक्ष देखना है तो 'वासुदेवः सर्वम्' और अगर बीज देखना है तो 'अक्षरं ब्रह्म परमम्' गी.८/३ । यहाँ अक्षर का अर्थ ॐ ही होगा क्योंकि इसी श्लोक में कहते हैं 'स्वभावोध्यात्ममुच्यते' गी.८/३ यहाँ स्वभाव का अर्थ जीव ही है अतः यहाँ अक्षर ब्रह्म ॐ ही होगा क्योंकि 'यदक्षरं वेदविदो वदन्ति' गी.८११ एवं 'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म गी.८/१३ में इसे ही एकाक्षर ब्रह्म' कहा है अतः इससे विरुद्ध अर्थ नहीं हो सकता और व्याहरन् ओ२३४३२१म्ऽ....की दशा में ही संभव है जो परम गति को प्राप्त कराने वाला है क्योंकि तीनो वेदों में पवित्र एवं जानने योग्य एकमात्र ओंकार ही है 'वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्सामयजुरेव च ।' गी.९/१७ । चूंकि ये उद्गीथ व्यवस्था सामवेदीय है और ब्रह्म संपूर्ण प्राणियों में व्याप्त है अतः कहा 'वेदानां सामवेदोऽस्मि' १०/२२ ।।
मेरा विचार कहता है कि हम लिखते चले जायेंगे और लेख बढ़ता चला जायेगा । गीता शब्द देती रहेगी । न गीता के शब्दरत्न कम होंगे और न मेरा लेख पूर्ण होगा और इसी अपूर्णता का नाम संसार यि जीव है । हम आगे के भी अध्यायों पर विचार करते हैं तो प्रणव से भिन्न कुछ दिखता नहीं और अपनी स्थिति वह है नहीं अतः पूर्णतः अद्वैत 'एकमेवाद्वितीयं' छान्द. उ.६/२/१ । अतः मित्रों ! जीवन को उन्नत बनाओ, आचरणीय और उन्नतशील शिक्षा ग्रहण करो इसमें हम सबका कल्याण होगा । ॐ ओम् और ओ३म् पर झगड़ा करके समय और मस्तिष्क नष्ट न करो । अस्तु । ओ३म् !
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