परां सिद्धिमितो गताः


परं भूयः प्रवाक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् ।
यज्यात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥१४/१॥
           भगवान कृष्ण पिछले अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन करके अब पुनः सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ उस ज्ञान को कहते हैं जिसके मनन करने मात्र से मुनि जन परासिद्धि को प्राप्त करते हैं ।
            कभी कभी यह समझ में नहीं आता है कि गीता के इस भाव को वहां लिखूं या उस भाव को यहां लिखूं । अध्याय १८/४९ में बनी अटक जहां पर नैष्कर्म्य सिद्धि के साथ दिया गया ‘परमां’ शब्द विद्वानों को मोहित करता है । वे कहते हैं कि इसी में ब्रह्म प्राप्ति का उल्लेख किया गया है । वे इस बात पर ध्यान ही देना पसंद नहीं करते हैं कि आगे सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध’ १८/५० भी लिखा गया है । उसी का स्पष्टीकरण हम यहां देंगे ताकि यहां से पढ़कर आगे समाधान की आवश्यकता न पड़े । अतः यहां के दो श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ।
               यहां पर कहा गया है कि जिस ज्ञान का मनन करके मनिजन परा सिद्धि को प्राप्त करते हैं । तो यहां प्रश्न यह है कि परा सिद्धि है क्या ? तो इसके लिए संपूर्ण अध्याय तीनों गुणों के सकाम भावों और उसके ऊंच, नीच, मध्य फल का वर्णन किया गया । जब मुमुक्षु यहां पर त्रिगुणात्मक कर्म और उसके फल का मनन करेगा तब त्रिलोकी के प्रत्येक सुख में उसको जन्म-मृत्यु का हेतु दिखेगा और उस जन्म-मृत्यु में नाना प्रकार का क्लेश दिखेगा तब उसका त्रिगुणात्मक कहे जाने वाले प्रत्येक क्रियाकरण कर्म से अशेष रूप से वैराग्य हो जायेगा तब वह परासिद्धि अर्थात जो परम पुरुषार्थ का हेतु है उसमें निश्चय बुद्धि अर्थात स्थिरता संशय-विपर्यय रहित होकर प्राप्त हो जायेगा । यहां पर परा का अर्थ है जो परम पुरुषार्थ मोक्ष का हेतु है वह और सिद्धि का अर्थ है संशय-विपर्यय रहित आत्म निश्चय । इसी बात को— असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगत स्पृहः । नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ॥१८/४९॥ अर्थात जिसका मनन करने के पश्चात अशेष रूप से सर्वकर्म संन्यास हो जायेगा, उस सर्वकर्म संन्यास के द्वारा जिस निष्क्रिय आत्मस्वरूप का निश्चय होगा वही परम पुरुषार्थ यानी मोक्ष का साधान आत्मस्वरूप का निश्चय होगा न कि ब्रह्मरूपता की प्राप्ति होगी, क्योंकि आगे कहते हैं— सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म…. १८/५० इस प्रकार यहां पर उक्त दोनो ही स्थानों पर परासिद्धि एवं नैष्कर्म्यपरमां सिद्धिं दोनो का एक ही अर्थ होता है निष्क्रिय, निर्विशेष, निर्विकार आत्मस्वरूप का निश्चय ॥१४/१॥

             अब विशिष्टाद्वैत के आचार्य स्वामी रामानुजाचार्य जी ने अगले श्लोक में मम साधर्म्यमागताः का अर्थ करते हुए यह माना है कि साधक इस आत्मा अनात्मा के विवेक से ब्रह्म के समान हो जाता है अभिन्नता को प्राप्त नहीं होता । तो प्रश्न यह भी बनता है कि जब नदी समुद्र के समान हो जायेगी तो वह नदी के ज्ञानवाली होगी या समुद्र के ज्ञानवाली ? अब यदि वह नदी के ज्ञानवाली होगी तो समुद्र के समान कैसे हुई ? क्योंकि उसमें अहंता नदी की सीमित अहंता है । और यदि वह समुद्र के ज्ञानवाली होगी तो वह समुद्र से भिन्न कैसे होगी ? अतः यहां भी जो आपने ममसाधर्म्य का अर्थ किया वह तो असीमित को सीमित करके दो भागों में बांटने वाला है, इसमें इसी श्लोक से विरोध होता है क्योंकि—

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य ममसाधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोऽपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥१४/२॥
              अर्थात जब आत्मस्वरूप का मनन करके निक्रिय आत्मस्वरूप का संशय-विपर्यय रहित निश्चय हो जायेगा तब वह उस निश्चय किये हुए आत्मस्वरूप की उपासना करके मेरे साधर्म्य को प्राप्त होगा । फिर पुनः सृष्टि के आदि में भी ब्रह्मा नारदादि के रूप में भी जन्म नहीं लेगा और जन्म ही नहीं होगा तो प्रलय, महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होगा ।
              द्वैतवादी मानते हैं कि भगवान के भक्त भगवान की लीला का हिस्सा होते हैं और लीला के निमित्त भगवान के साथ उनके भक्तों को भी अवतरित होना पड़ता है । तो भाई ! भले लीला के लिए सही लेकिन जन्म तो होता है न ? तो फिर व्यथित होना भी स्वाभाविक है, आप इससे इनकार नहीं कर सकते । इसके अतिरिक्त समानरूपता को प्राप्त शंखचूड़, जय-विजय आदि भी शापित होकर नाना प्रकार के क्लेशों को प्राप्त हुए यह जगप्रसिद्धि है । जबकि यहां पर जन्मादि का अत्यंताभाव बताया गया है । अतः आप स्वयं ही स्वयं से विरुद्ध हैं । 
           तो शंका होती है कि फिर साधर्म्य ही क्यों लिखा एकत्व क्यों नहीं? इसके लिए कहते हैं कि इस आत्मस्वरूप का निश्चय हो जाने के पश्चात उसकी उपासना करनी पड़ेगी जिसे अध्याय १८/५२ में बताया गया है फिर १८/५३ के अनुसार जीव-ब्रह्म की एकरूपता का संकल्प करेगा अर्थात इन दो श्लोकों की साधना के फलस्वरूप वह जीव-ब्रह्म की एकता करने में समर्थ होगा । इसके बाद वह ब्राह्मीभाव को प्राप्त कर लेगा, इस ब्राह्मी भाव के जो लक्षण कहे गये हैं उनका स्वाभाविक उसमें प्रतिष्ठा हो जायेगी फिर संपूर्ण प्राणियों स्थित ‘मैं’ के अर्थभूत आत्मा की परानिष्ठा को प्राप्त जायेगा । अर्थात अब ‘मैं ही ब्रह्म हूं’ का संशय-विपर्यय रहित साक्षात्कार हो जायेगा । क्यों जब तक अपरोक्षानुभूति नहीं होती है तब तक परोक्ष ज्ञान में संशय-विपर्यय का स्थान बना रहता है जिसकी स्वयं गीता साक्षी है । अतः जो प्रथम श्लोक में परासिद्धि और १८/४९ नैष्कर्म्य सिद्धि कहा गया है वह परोक्ष ज्ञान है और यह अपरोक्ष ज्ञान है । यह जो ब्राह्मीभाव है शरीर रहते यही ब्राह्मी अनुभूति ब्राह्मसाधर्म्य नाम से कही गई है और शरीर रहते रहते तत्त्वतः मेरे अभिन्न स्वरूप का निश्चय करके उसमें प्रवेश करते हुए जीव-ब्रह्म की सत्ता को मिटा देना ही अभिन्नता को प्राप्त करना है ।
            इसी बात को और स्पष्ट करने के लिए तीनों गुणों से अतीत होकर जन्मादि की निवृत्ति के हेतु अमृतस्वरूप नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है १४/२० । यह अव्यभिचारिणी आत्मनिष्ठा से ब्रह्मस्वरूप होने की सामर्थ्य प्राप्त करता है १४/२६, क्योंकि अनन्त सृष्टि की प्रतिष्ठा ‘मैं’ के अर्थ में ही संनिहित है १४/२७ । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि ममसाधर्म्यमागताः का अर्थ समानता को लेकर भेद दर्शन नहीं है बल्कि भेद का उन्मूलन करने के लिए एकत्व से पूर्व की पूर्णता की अनुभूति श्लोक के उत्तरार्ध में और उत्तरार्ध में पूर्णता का वर्णन किया गया है जिसे विवेक चक्षु ही देख/जान सकते हैं— पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषा १५/‌१० ॥१४/२॥ ओ३म् !

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