वेद और गीता में जाति ?
निवेदन— गीता मनुष्य जीवन का उत्कर्ष है । मनुष्य मात्र के कल्याण का एकमात्र साधन है गीता । जैसे आज के मशीनरी युग में आप मशीनों (Computer) मैं दुनिया की प्रत्येक जानकारी है तथापि उसमें मस्तिष्क न होने से वह विचार नहीं कर, कोई निर्णय नहीं कर सकता है और न ही आचारण करके अपना कल्याण कर सकता है । जैसा उसमें भर दिया गया है वैसा का वैसा ही सम्मुख प्रस्तुत कर देता है । इसी प्रकार मनुष्य परंपरागत भाष्य,टीका आदि को वैसा का वैसा ही रट लेने वाला विद्वान नहीं बल्कि एक Computer (कम्प्यूटर) से अधिक कुछ नहीं हो सकता है ।
परंपरागत हमें सिद्धांत की प्राप्ति होती है, मार्गदर्शन मिलता है किन्तु चलना स्वयं ही पड़ेगा । उसके लिए अपना विवेक चाहिए । हम देख रहे हैं कि हठधर्मिता ने मानव समाज को मनुष्य से असुर बना दिया है । जिसका परिणाम आज समाज भुगत रहा है । समाज के पतन का एकमात्र कारण है धर्माचार्यों का हठपू्र्वक अपनी बात मानने को बाध्य करना । वेदों में वर्ण व्यवस्था तो मिलती है लेकिन वहां जाति और वर्ण को लेकर झगड़ा नहीं है । जैसा कि महाराज अश्वपति के पास जब ऋषिगण ज्ञान प्राप्ति के निमित्त जाते हैं तो राजा के द्वारा दिये गये अर्घ्य,पाद्य को वे स्वीकार नहीं करते हैं, इस पर राजा कहता है—
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपो।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।
अर्थात— न मेरे जनपद अर्थात् राज्य में कोई चोर है, न कंजूस स्वामी और वैश्य है, न कोई शराब पीने वाला है न कोई अग्निहोत्र से रहित है, न कोई अविद्वान् है। न कोई मर्यादा का उल्लंघन करके स्वेच्छाचारी है, स्वेच्छाचारिणी तो हो ही कैसे सकती है ।
विचारणीय तथ्य यह है कि क्या राजा अश्वपति के राज्य में शूद्र नहीं थे ? क्योंकि कोई भी अग्नि रहित अर्थात अग्निहोत्र से रहित न होना यह इसी बात की ओर संकेत करता है कि या उस राज्य में शूद्र थे ही नहीं,या फिर शूद्र को भी वैदिक अग्निहोत्र पर अधिकार था और वे करते थे । इसके बाद कहते हैं कि कोई अविद्वान अर्थात मूर्ख या अनपढ़ अशिक्षित नहीं है । इसका अर्थ हुआ कि वे सभी वेदाध्ययन करके वेदों के तात्पर्य को जानने वाले थे ।
इसके अतिरिक्त राज दशरथ के राज्य में प्रजा में चारों वर्णों की व्यावस्था तो मिलती है साथ ही वहां भी यह कहा गया है ऐसा कोई नहीं था जो अग्निहोत्री न हो, यह वाल्मीकीय रामायण में स्पष्ट वर्णन मिलता है । इस प्रसंग को देखने से स्पष्ट होता है कि शम्बूक नामक शूद्र की कथा में शम्बूक के तप के कारण ब्राह्मण बालक का मरना, राम जी को उकसाना और शम्बूक वध काल्पनिक है और बाद के कुछ सामाजिक आतंकियों ने उसमें प्रक्षेपण करके समाज में विद्रोह करने का कुटिल खेल खेला गया है । जिसका परिणाम आज सामने दिखाई दे रहा है ।
यद्यपि गीता से भिन्न हमारा यह लक्ष्य नहीं है कि ब्राह्मणादि पर हम आक्षेप कर रहे हैं बल्कि हम यह बताना चाहते हैं कि समाज को साजिशों से सावधान होकर अपना कर्म करना चाहिए । वेदों के अनुसार गीता में भी वर्ण व्यवस्था है, किन्तु हठधर्मी भाष्यकारों एवं टीकाकारो ने इतना जातिवाद घुसा दिया है कि गीता का मूल उद्देश्य ही जातिवाद परक बना दिया है । श्रुति विरुद्ध वैश्य को पापयोनि कहकर उनका भी वेदों से अनधिकार घोषित कर दिया गया है । तो फिर शूद्र किस खेत की मूली हैं ?
एक उदाहरण है— सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् १८/४८ अब यदि श्लोक में सहज का अर्थ संस्कार किये जाने के बाद ब्राह्मण आदि होता है, तब उसका जो सहज कर्म है वह सहज कर्म यहां कहा गया है तो, जन्म से व्याध आदि का हिंसित कर्म भी सहज नहीं है और उसका भी कोई संस्कार होता होगा जिसके बाद उसका कोई सहज कर्म होता होगा ? और यदि नहीं तो फिर सहज का अर्थ ब्राह्मण का सहज स्वाभाविक ब्राह्मणत्व कर्म और व्याध का व्याधत्व कर्म इसी प्रकार जो जिस जगह खड़ा है उसके अनुसार उसका स्वाभाविक सहज कर्म श्वास से लेकर खान-पान और कर्म तक ही होगा तभी तो गीता मनुष्य मात्र का कल्याण करने वाली होगी ? क्योंकि ठीक इससे पहले कहा है कि— स्वाभाव नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषं १८/४७ अर्थात जो स्वभावाकि प्रकृति द्वारा निश्चित कर्म है उसको करने से पाप नहीं लगता । तभी तो सदन कसाई, धर्मव्याध, जैसे हिंसा युक्त और तुलाधार वैश्य जैसे लोभी प्रवृत्ति वाले लोक भी कल्याण को प्राप्त हुए । यही स्वाभाविक और सहज कर्मों हैं जिन्हें करने से मनुष्य आत्मसिद्धि को प्राप्त करता है— स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्विं विन्दति मानवः १८/४६ इसका कारण बताया कि आत्मसिद्धि में कारण कर्म नहीं है बल्कि—
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः ।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति ।।१८/४९
अर्थात सभी चौदह इन्द्रियों की एक इन्द्रिय हो जाने के कारण उसकी स्पहा समाज हो गई है इसलिए संपूर्ण अनात्पदार्थों से हटकर निक्रिय आत्मा में विवेक-विचार द्वारा क्रियमाण प्रकृति का त्याग करके परम अर्थात दृढ़ निश्चय को प्राप्त हो जाता है । अर्थात कर्म में कर्तापन का अहं और फल की स्पृहा जिसमें नहीं है ऐसा अपने स्थानीय हिंसित या अहिंसित कर्मों को करने वाला भी आत्मभाव को प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार यह सिद्ध होता सामाजिक वैमनस्यता और हठधर्मिता टीकाओं और भाष्यों में कूट कूट कर भरी गई है जिसका विवेकपूर्वक निवारण करके अपना कल्याण मनुष्य मात्र करना चाहिए । यही गीता का परम लक्ष्य है ।
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