यज्ञपुरुष के अवयव

 

यज्ञ पुरुष के अवयव
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधाव्यकल्पयन् ।
मुखङ्किमस्यासीत् किं बाहू किमूरूपादा उच्येते ।। पुरुष सूक्त मंत्र१०।।

         अर्थात् जिस पुरुष के द्वारा यह सब (जागतिक अहंकार पर्यंत) कल्पना की गई है वह कितने प्रकार की है ? इस पर आगे विचार होगा । किन्तु यहाँ मंत्र का उत्तरार्ध द्रष्टव्य है -----
         (मुखङ्किमस्यासीत् ) मुखम्+ किम् + अस्य + आसीत् अर्थात उस (विराट) पुरुष का मुख क्या था ? किं बाहू अर्थात भुजाएं क्या थीं ? किं उरू + पादा: अर्थात उसकी जांघें और पैर किसे कहा गया थे ? 

         अब इस मंत्र में जो प्रश्न हैं उनको अगले मंत्र के साथ हम जोड़ते प्रश्नोत्तर का दृष्टिकोण रखकर जिससे समझ में आ सके ....
पहले अगला मंत्र फिर प्रश्नोत्तर ----

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत: ।
उरूतदस्य यद्वैश्य: पद्ब्भ्यां शूद्रोऽअजायत ।। पु.सू.११ ।।

          यहाँ अजायत शब्द है जिसका अर्थ होता है उत्पन्न न होने वाला अर्थात अजन्मा । अब आगे ----

             जिस अजन्मा विराट पुरुष ने यर संपूर्ण सृष्टि अहंकार पर्यंत उत्पन्न की वह कितने प्रकार की है ? इसी व्याख्या इन्हीं पुरुष सूक्तों में आगे है लेकिन जो विराट पुरुष के शरीर को लेकर प्रश्न हैं उन पर विचार करते हैं । प्रश्न मंत्र १० से और उत्तर मंत्र ११ से ---

             प्रश्न---- अस्य मुखं किं आसीत् अर्थात इस विराट पुरुष का मुख क्या था ? 
          उत्तर--- ब्राह्मणोऽस्य मुखं आसीत् इस विराट पुरुष का पूर्व काल में ब्राह्मण ही मुख कहा गया था । (ब्राह्मण अर्थात वह ब्रह्मत्व स्थिति जो अपने मूल भाव में स्थित रखता है । ब्रह्म जानाति स ब्राह्मण: ।)

            प्रश्न----किं बाहू ? अर्थात विराट पुरुष की भुजाएं क्या थीं ?
       उत्तर----राजान्य: कृत: अर्थात क्षत्रिय कृत (किया जाने वाला कर्म) अर्थात रक्षा कर्म करने वाले क्षत्रिय है भुजाएं थीं । (भगवान ही सबके रक्षक हैं।)

           प्रश्न--- किं उरू ? किं पादा ? अर्थात जंघा क्या थी ? पैर क्या थे ?
         उत्तर---तत् अस्य उरू वैश्य: अर्थात उस विराट पुरुष की ये जंघाएं वैश्य थीं एवं पद्ब्भ्यां शूद्र: अर्थात पैरों में शूद्र अर्थात विराट पुरुष में शूद्र ही पैर रूप से कल्पित होने से शूद्र ही पैर कहे गये है ।

          अब स्वाभाविक प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि विराट पुरुष में चारों वर्णों को शरीर के चार प्रधान अंग कहे हैं तो उसके शरीर के अन्य अवयव भी तो हैं । जैसे --मन , श्रोत्रादि । इस पर आगे दो श्लोक "चन्द्रमा मानसा जात: ...." मंत्र १२ एवं " नाब्भ्याऽसीदन्त..." मंत्र १३ की पहले व्याख्या कर चुका हूँ । 

              अब एक और प्रश्न उठेगा कि जब विराट पुरुष शरीर वाला है तो बिना खाये तो कोई शरीरधारी रह नहीं सकता ? तो इसका उत्तर मंत्र दो में यद्यपि पहले से उपस्थित है तथापि एक विचित्र यज्ञ का वर्णन करते हैं । अन्त में सोलहवें मंत्र में इस प्रकार के अवयवों वाले हवि का मानस यज्ञ का सर्वप्रथम देवताओं द्वारा उस विराट पुरुष की आराधना की बात कही गई है ।

            यहाँ यज्ञ में संख्याओं का बडा महत्वपूर्ण यज्ञ के माध्य से किया गया है । 

           रुद्राष्टाध्यायी का शरीर के अवयवों का देवार्पण यज्ञ का सातवें अध्याय में भी दिग्दर्शन करान चाहिए ।

              एक बार किसी का लेख पढ़ा था कि सनातन धर्मी नौ के अंक से आगे गिनती ही नहीं गिन पाये जबकि जैनियों ने ही सबसे पहले २४ तक गिनती गिनी ( तीर्थंकरों के रूप में) ।  चूंकि उस समय मुझे रुद्री का पाठ भले करता था किन्तु शिक्षा के अभाव में समझ में कुछ आता नहीं था/है । किन्तु अब जब मैं यहाँ देखता हूँ तो रुद्राष्टाध्यायी जो कि शुक्ल यजुर्वेद ही है में हर अध्याय में संख्याओं की अद्भुत तिकड़ी है । समझना ही कठिन है । इससे लगता है वह कोई जैनी रहा होगा जो हमारे सनातन वैदिक ग्रंथों से पूर्ण अपरिचित रहा है तभी ऐसा मनमुखी लेख लिख डाला । मेरा उद्देश्य ही है ऐसे सनातन धर्म पर अतिक्रमण करके सनातन धर्म का नाश करने वाले लोगों से सबको सावधान किया जाये और सभी को वैदिक पढ़ाई के लिए जाति पांति से ऊपर उठकर पढ़ना और पढ़ाना चाहिए ताकि हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकें । ओम् !

       सूचना :--- हम पुरुष सूक्त की समीक्षा एक साथ नहीं लिख सके । कारण कि जैसा जब भाव मन में स्वाध्याय के समय समझ पाया वैसा ही लिख दिया । जहाँ पृष्ठ खुल गया वहीं के विचार आगे पीछे का क्रम देख कर लिख दिया । उद्देश्य मात्र इतना कि जितने लोग वैदिक व्यवस्था को समझ सकें उतना ही अच्छा है । हमारी संस्कृति हमारी धरोहर हो और किसी न किसी बहाने संरक्षण देना ही है । लोगों का नेट पर लगाव भी है अतः अगर पुस्तक आदि नहीं तो यहाँ पढ़कर कुछ समझें फिर रुचि बनेगी तो ग्रंथ संग्रह करके भी पढ़ सकते हैं  ।
ओ३म्

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