आज का संन्यास विचारणीय है



आज का संन्यास विचारणीय है

सत्यं परं धीमहि 
           इस लेख को कई दिन के ऊहापोह के बाद साझा करा रहा हूँ; कारण कि कुछ वर्षों पूर्व किसी अपने आत्मीय महापुरुष से प्रश्न किया था शास्त्रीय संन्यास को लेकर तो उत्तर में कहा कि स्वामी जी उसकी बात न करो नहीं तो शास्त्र की चर्चा करते करते हम स्वयं अशास्त्रीय हो जायेंगे ।मेरा वर्तमान दृष्टिकोण कहता है कि इसके पालन न कर पाने में कलियुग नहीं हमारी भोगलिप्सा युक्त मानसिकता ही प्रधान कारण है । अतः कई दिन लेख के विचार विमर्श के मानसिक ऊहापोह में आज साझा कर रहा हूँ । वह मैं आत्मीय महात्माओं से क्षमा प्रार्थी एवं मार्ग दर्शीय हूँ । 
            आज संसार का हर प्राणी तर्कशील एवं ज्ञानी है; ये ज्ञान कहीं वंध्या पुत्र, शश विषान, आदि की तरह तो नहीं ? हम तर्क इस तरह देते हैं कि हमारे सामने ऋषि-मुनि भी किस खेत की मूली हैं/थे । विशेषकर हमारा संन्यासी समुदाय तो वेदान्त पढ़कर तर्कों का सम्राट हो जाता है; विभिन्न प्रकार के तपों एवं सिद्धांतों का निषेध करता है । आत्मस्थिति को सर्वोपरि मानता है । तर्क उत्तम एवं सत्य है; किन्तु कभी किसी काषाय वस्त्रधारी संन्यासी ने अपने हृदय पर हाथ रखकर अपने आप से ये पूछा कि वो अपने आपके ही तर्कों पर कितने दृढ़ हैं ? क्या हमारा संन्यास वैदिक है ? जहाँ हर प्रकार के अपरिग्रह एवं तप का वर्णन किया गया है । उन वैदिक ऋषियों के साथ आपका सामंजस्य कितना बैठता है ?
             आज हम सहन शक्ति और तप को तिलाञ्जलि दे चुके हैं । जहाँ आज बड़े-बड़े मठों और स्त्री, धन संग्रह में एवं तथाकथित समाज कल्याण में भी लगे हैं । जहाँ हमने मूर्ति पूजा को ही जीविका का आधार बना लिया है; वहीं सामवेदीय संन्यासोपनिषद ऐसे लोगों की भर्त्सना करता है । वहाँ विभिन्न प्रकार के आहारों का तेल, घृत, पुआ, उड़द आदि का निषेध किया है ; वहीं हमारा वही आहार बना हुआ है । विस्तार प्राप्त न हो अतः अत्यंत संक्षेप में सामवेदीय संन्यासोपनिषद का अत्यल्प अंश का अवलोकन करते हैं ------------
        चरेन्माधुकरं भैक्षं यतिर्म्लेच्छकुलादपि । एकान्न न तु भुञ्जीथ बृहस्पतिसमादपि । याचितायाचिताभ्यां च भिक्षाभ्यां कल्पयेत्स्थितम् ।। यहाँ एक ही व्यक्ति का अन्न खाने का निषेध किया गया है भले ही म्लेच्छ कुल से ही भिक्षा क्यों न ग्रहण करनी पड़े । भिक्षा चाहे मांगे मिले या बिना मांगे दोनों को प्राप्ति कर अपने आप में स्थित रहे । "नैकान्नाशी भवेत्क्वचित्" नारद.प.उ.३५।। कभी भी एक व्यक्ति का अन्न खाने वाला कदापि न हो । "अभिशस्तं च पतितं पाखण्डं देवपूजकं" । वर्जयित्वा चरेद्भैक्ष्यं सर्ववर्णेषु चापदि ।। ७४ ।। यहाँ मूर्ति पूजा ही जिसकी वृत्ति है उसकी भिक्षा का निषेध करके चारों वर्णों की भिक्षा ग्रहण करने का आदेश है । "शक्लोत्सर्गो दिवास्वापो भिक्षाधारस्तु तैजस:" ८८।। भिक्षाधारी के दिन में सोने से उज्जवल तेज नष्ट हो जाता है । "सुजीर्णोऽपि सुजीर्णासु विद्वान्स्त्रीषु न विश्वसेत ।९०।। अत्यंत जीर्ण अर्थात अत्यंत वृद्धावस्था को प्राप्त विद्वान अत्यंत जीर्ण अर्थात वृद्धा स्त्री पर भी विश्वास न करे ।
समीक्षा——
             जो तेल आदि वर्जित किये गये हैं वह मधुकरी में मिलने वाली भिक्षा नदी में धोकर ग्रहण करने पर विद्वानों ने निर्दोष एवं पवित्र मानी है । इसके अतिरिक्त मैं स्वयं दिवास्वापी अर्थात दिन में सोने वाला हूँ । जो शास्त्रीय दृष्टि में निंदनीय है । हम अधिकांश एक ही व्यक्ति के धन का इतना संग्रह रखते हैं कि दूसरों की आवश्यकता ही नहीं; फिर भी जितना आये उतना कम । बैंक जो खाली है न ....., ! स्त्रियों का तो आश्रमों में बोलबाला ही है । चाहे संन्यास लेकर या सेवा करके । कुछ % छोड़कर अन्त में बनना तो सबको पत्नी ही है । धिक्कार है ऐसे कलियुगी संन्यास को ..... । दयनीय एवं निदनीय है आज का कुछ % छोड़कर संन्यास । ये सार्वजनिक सूत्र नहीं है । दिव्य महापुरुष भी संन्यासी हैं सौभाग्य से ऐसे महापुरुष की संगति करके मैं धन्य हूँ । और धन्य वे भी हैं जिन्हें ऐसे दिव्य महापुरुषों के दरस परस एवं संभाषण का लाभ प्राप्त हुआ ।
ओ३म्

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