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वर्णमाला (मातृकाओं) की महिमा एवं अनुस्वार प्रयोग

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वर्णमाला (मातृकाओं) की महिमा  ===================== हमारी सनातन संस्कृति की महिमा तो देखिए कि हमारे यहां वर्णाक्षरों को भी मातृका (देवी) कहते हैं । यह वर्णाक्षर ही वैखरी कहलाते हैं । इन मात्रिकाओं का प्रारंभ अकार से होता है । यह अकार ही संपूर्ण सृष्टि की सृजनात्मक जननी है । इसके आगे से माया प्रपञ्च शुरू हो जाता है और जब माया प्रपञ्च जहां से समाप्त होता है वहाँ ज्ञकार की प्राप्ति होती है अर्थात अकार से उत्पन्न होकर जब प्राणी माया में फंसकर कर अत्यन्त क्षरण को प्राप्त हो जाता है अर्थात क्षकार मातृका ठीक ठीक अपनी गोद में ले लेती है तब आता है त्रकार मातृका की याद । वह त्राहि त्राहि करने लगता है । त्राहि त्राहि करने पर ज्ञकार मात्रा की बड़ी कृपा हो जाती है और वह अपनी अहैतुकी कृपा वशीभूत होकर अपनी गोद में लेकर ज्ञानी बना देती है और वह संसार एवं आत्मा/परमात्मा के यथार्थ तत्त्व को जानकर समस्त मातृकाओं के त्रास से त्राण (रक्षा) प्राप्त कर लेता है । यह हमारे सनातन संस्कृति की महानतम् महिमा है । परन्तु जब तक प्राणी क्षकार को प्राप्त होकर त्रकार की शरण नहीं लेता है सीधे ज्ञकार को ग...

वेदों में प्लुत एवं गुं शब्द का उच्चारण

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      शङ्का - प्लुत क्या होता है ? प्लुत का प्रयोग शास्त्रीय है या नहीं ? एवं वेदों में जो ये गुं  होता है वह क्या होता है। जैसे गणानां त्वा गणपति गुं हवामहे। समाधान : —  (१) प्लुत : — पूर्णत: शास्त्रसम्मत है, किन्तु प्रारम्भ में। ओमभ्यादाने ८.२.८७ अधिकारः - पदस्य८.१.१६ , पूर्वत्रासिद्धम्८.२.१ , वाक्यस्य टेः प्लुतः उदात्तः८.२.८२ काशिका - अभ्यादानं प्रारम्भः, तत्र यः ओंशब्दः तस्य प्लुतो भवति। ओ३म् अग्निमीळे पुरोहितम्। अभ्यादाने इत् किम्? ओम् इत्येतदक्षरम् उद्गीथम् उपासीत। सिद्धान्तकौमुदी (३६०६) - ओंशब्दस्य प्लुतः स्यादारम्भे । ओ३मग्निमीळे पुरोहितम् (ओ३म॒ग्निमी॑ळे पु॒रोहि॑तम्) । अभ्यादाने किम् । ओमित्येकाक्षरम् । स्वाध्याय या लेखनादि के आरम्भ में ओम् का प्लुत होता है।  प्लुत को ३ से प्रदर्शित किया जाता है।                (२) अब गुं  बताते हैं क्या होता है। एक सूत्र है मोऽनुस्वारः ८.३.२३ जिसके अनुसार पदस्य अन्ते विद्यमानः यः मकारः, तस्य हल्-वर्णे परे संहि...

कर्म का स्वरूप

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कर्म का स्वरूप ========== कर्म की परिभाषा भगवान स्वयं देते हैं— “यज्ञार्थाकर्मणः” ३/९ अर्थात कर्म वह है जो ईश्वर के निमित्त किया जाये, क्योंकि वह मोक्ष का हेतु है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिन क्रियाओं द्वारा मोक्ष की प्राप्ति हो उस क्रियामात्र को कर्म नाम से परिभाषित किया गया है, इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए स्वयं श्रीभगवान् कहते हैं— “भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म सञ्ज्ञितः” ८/३, अर्थात प्राणियों की उन्नति का जो श्रोत त्याग है वही कर्म नाम से कहा गया है । गीता के अनुसार प्राणियों की उन्नति मोक्ष में ही मानी गई, अन्य सांसारिक उन्नति उन्नति नहीं बल्कि पतन है ।                इससे यह तो स्पष्ट हो गया है कि निरपेक्ष एवं कर्तृवाभिमान से रहित होकर की जाने वाली क्रिया मात्र कर्म ही है (निरपेक्ष कर्तृवाभिमान को समझने के लिए #गीता_में_सहजावस्था नामक शीर्षक पढ़ना चाहिए) । यही बात न्याय प्रस्थान (ब्रह्मसूत्र) में पुरुषार्थ रूप से परिभाषित की गई है, इससे भिन्न अन्य कोई पुरुषार्थ है ही नहीं ।              ...

गीता में भगवान प्रणव और सामवेद ही क्यों ?

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गीता में भगवान प्रणव और सामवेद ही क्यों ? =========================== गीता में भगवान कहते हैं कि प्रणवः सर्व वेदेषु अर्थात संपूर्ण वेदों में प्रणव मैं हूँ, तथा वेदानां सामवेदोऽमि अर्थात वेदों में साम वेद मैं हूँ । परन्तु इनकी विशेषता क्या है जो भगवान इन्हें साक्षात स्वयं के रूप में प्रतिपादित करते हैं । तो देखिए —           प्रणव ही एक ऐसा मंत्र है जिसका उच्चारण चार प्रकार से किया जाता है — (१) ह्रस्व (२) दीर्घ (३) प्लुत और (४) नाद अथवा तार ध्वनि । ये चार प्रकार उच्चारित होने पर भी वेदों में मात्र तीन ही स्वरों का वर्णन आता है — (१) उदात्त (२) अनुदात्त (३) स्वरित अर्थात मिला जुला । इन तीनों ही स्वरों में चारों प्रकार के प्रणव भेदों को गया जाता है । परन्तु स्वर तो सात होते हैं उनका ज्ञान कौन बतायेगा ? चारों विभागों को तीनों स्वरों में एवं सातों स्वर भेदों में गायन की विधि सामवेद बताएगा । जो निम्न दिये गये हैं । जिनके गायन का फल परमार्थ के साथ ही लोक में स्वास्थ्य रक्षा भी है ।                 इस प्रकार एकमा...

क्या निष्काम शास्त्र का उपदेश व्यर्थ है ?

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क्या निष्काम शास्त्र का उपदेश व्यर्थ है ?  -------------------------------------------- प्रयोजनम् अनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते ।           उक्त अर्ध श्लोक ही प्रचलन में है, यह श्लोक कहां का है ? पूर्ण श्लोक क्या है ? अभी तक सामने नहीं आया है । उस स्थानीय इसका क्या प्रयोजन होगा यह भी कहना कठिन है तथापि उसका — “बिना प्रयोजन के, बिना उद्देश्य के मूर्ख भी किसी कार्य प्रवृत्त नहीं होता” यह जो अर्थ है उसमें अपि शब्द का प्रयोग हुआ है, जिससे स्पष्ट किया गया है कि जब मूर्ख भी बिना प्रयोजन, बिना उद्देश्य किसी कर्म में प्रवृत्त नहीं होता है तो ज्ञानी कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं ।          इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि शास्त्रों का निष्काम कर्म के लिए किया गया उपदेश व्यर्थ हो जाता है, कारण कि जैसे बिना धुंवा के अग्नि संभव नहीं है वैसे ही बिना पाप-पुण्य रूप दोष के कर्म भी संभव नहीं है, ऐसी स्थिति में ज्ञानी जिसे मोक्ष चाहिए, जिसके लिए सभी कर्मों का निषेध किया गया है वह कर्म कैसे कर सकता है ? यह प्रश्न उठाना स्व...

भक्तियोग का अद्वैत सिद्धांत एवं तत्त्व निश्चय

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भक्तियोग का अद्वैत सिद्धांत   आगे भगवान कहते हैं कि जो कुछ भी इस जगत में दिखाई दे रहा है वह मुझसे भिन्न अणु मात्र भी नहीं है, क्योंकि दिखाई देने वाला जगत मुझमें वैसे ही स्थित है जैसे धागे में पिरोई हुई धागे की मणियां, अर्थात धागे की मणियों में धागे (या रुई) के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और धागा तो धागा है ही । वैसे ही संपूर्ण जगत रूप नाना प्रकार की मणियां हैं और मैं धागा रूप हूं जिसमें ये मणियां (जगत) पिरोई (स्थित) हैं ।        अब भक्तियोग में विचारणीय तथ्य यह है कि संपूर्ण जगत भी भगवान ही है और जिसमें यह जगत स्थित है वह भी भगवान ही है । अर्थात बाहर भीतर ऊपर नीचे मध्य, दिशा विदिशा इत्यादि में जो कुछ भी है वह भगवान ही है,स्वयं मैं भी । सब स्वयं भगवान है परन्तु किस प्रकार ? उसकी अनुभूति क्यों नहीं होती है ? इस पर भगवान आगे उदाहरण सहित बताते हैं……          परन्तु इतना अवश्य समझ कर रखना चाहिए कि भक्तियोग में ठोस अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है जबकि सांख्य योग में ठोस द्वैत सिद्धांत । इसील...

आसुरी तन्त्र

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आसुरी तन्त्र          परमात्मा को तीन रूपों में भारतीय संस्कृति में पूजा जाता है । वे तीन स्वरूप हैं — सगुण-साकार, सगुण-निराकार तथा निर्गुण-निराकार । परमात्मा का यही तीसरा स्वरूप निर्विशेष कहलाता है ।         इसमें पहले स्वरूप सगुण साकार की उपासना कही गई है । यह उपासना प्राणियों के तमोगुण से ऊपर उठने के लिए होती है, रजोगुण में स्थिरता प्रदान करती है । ऐसा उपासक लाखों प्रयत्न के बाद भी मूर्ति आदि पूजा, यज्ञ आदि से तब तक ऊपर नहीं उठता है जब तक उसके आराध्य की उस पर कृपा न हो जाये । आराध्य की कृपा से संत मिलन होता है और तब उसके सगुण-निराकार की उपासना का सोपान प्रारंभ होता है ।  पहले जिस परमात्मा को किसी मूर्ति आदि बाह्य पदार्थों में अनुभव करता था, अब उसे हृदय में अनुभव करेगा, यह स्वरूप सबके हृदय में यद्यपि विद्यामान है — हृदि सर्वस्य विष्ठितम्   श्रीमद्भ. गी. १३/१७, हृदि सन्निवाष्टः १५/१५, हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति २८/६१ । तथापि बिना ईश्वर कृपा और संत के उपदेश के प्रत्यक्ष नहीं होता है ।   ...

पुराण लेखन पर प्रश्नचिह्न

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पुराण लेखन पर प्रश्नचिह्न (१)           यहां पद्मपुराण के उत्तर खण्ड अध्याय २३६ के अनुसार तामस (असत्) शास्त्रों का प्रतिपादन करने वाले आचार्यों के नाम दिये गये हैं जो बड़े बड़े ज्ञानियों के भी पतन का हेतु कहे गये हैं । शीर्षक का लक्ष्य दूसरे भाग में स्पष्ट होगा । ओ३म् ! ================================== पार्वतीं प्रतीश्वरवाक्यम्  शृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि तामसानि यथाक्रमम् ।  येषां श्रवणमात्रेण पातित्यं ज्ञानिनामपि ॥१॥     पार्वती के प्रति ईश्वर (शिव) का वाक्य है — देवि ! मैं क्रमशः तामस-शास्त्रों को बताऊँगा जिनके श्रवण मात्र से ही बड़े-बड़े ज्ञानियों का भी पतन हो जाता है ॥१॥ प्रथमं हि मयैवोक्तं शैवं पाशुपतादिकम् ।  मच्छत्यावेशितैर्विप्रैः संप्रोक्तानि ततः परम् ॥२॥ मैंने ही प्रथमतः पाशुपतादि शैवशास्त्र को बताया है । पश्चात् मेरी शक्ति से ही आविष्ट हुए ब्राह्मणों ने अन्यान्य शास्त्रों को कहा है ॥२॥ कणादेन तु सम्प्रोक्तं शास्त्रं वैशेषिकं महत् ।  गौतमेन तथा न्यायं साङ्ख्यन्तु कपिलेन वै ॥३॥ कणाद महर्षि ने तो महान् वैशेषिक श...

जीव की नित्यता एवं अभिन्नता

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जीव की नित्यता एवं अभिन्नता  समझ में भले अन्तर हो किन्तु विरोध गीता और वेदान्त में बिल्कुल नहीं है । वेदान्त प्रतिपाद्य जो ज्ञान की पराकाष्ठा है वह अन्त में भगवती गीता ने न सत्तन्नासदुच्यते १३/१३ द्वारा कह दिया है । इसमें कोई विरोध नहीं है । तथापि वेदान्त वाक्य कहते हैं — “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” “ईशावास्यमिदं सर्वम्” । इन वाक्यों का चिन्तन करना है कि वह यदि प्रकृति से परे है तो सर्वम् कैसे हो सकता है ? और यदि वह सर्वम् नहीं हो सकता है तो फिर एकमेद्वीय कैसे हो सकता है ? इस प्रकार श्रति वाक्य और हमारे विचारों में असंगति बैठ जायेगी, किन्तु जब श्रति वाक्य और हमारे विचार एक वाक्यता को प्राप्त हो जाते हैं वही प्रमाण है । अतः श्रुति के साथ अपने विचारों में कितना तालमेल है इसका अनुसंधान करना चाहिए । विरोध दूर हो जायेगा ।  अब गीतोक्त — “नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः” कहा गया है वह किस लिये कहा गया है ? इसके लिए इससे पूर्व का प्रसंग देखना चाहिए । यहां अर्जुन को मरने मारने का भय व्याप्त है जिसके निवारण हेतु पहले शरीर और आत्मा (जीवात्मा) को भिन्न दिखाकर शरीरों की अनित्य...