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दुधमुंहे बच्चों का झगड़ा

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मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥७/७॥               इस श्लोक की व्याख्या प्रश्नात्मक रूप से—  यदि सूर्य कहे मेरा प्रकाश सारे संसार को प्रकाशित करता है तो क्या सूर्य और उसका प्रकाश परस्पर भिन्न हैं ? दूसरी बात यदि आपके मन में शंका है कि परतरं कहकर भिन्न दो पदार्थों की तुलना क्यों ? तो क्या आप यह नहीं जानते कि इसी श्लोक में जब यह कह रहे हैं कि मुझसे भिन्न यत्किंत् जगत अर्थात जो कुछ देखने सुनने और समझने में आ रहा है जो जो देखने सुनने समझने में नहीं आ रहा है, वह सब कुछ मैं ही हूं । तो यहां पर कहने का तात्पर्य यह है कि जब मुझसे भिन्न और कुछ है ही नहीं तो मुझसे बढ़कर और कोई श्रेष्ठ कैसे हो सकता है ? क्या परतरं का यह अर्थ समझने का प्रयत्न किया ?                    इसके अतिरिक्त इससे पहले आपने यह नहीं पढा क्या ? 👉 अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ७/६ जो स्वयं ही स...

परां सिद्धिमितो गताः

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परं भूयः प्रवाक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । यज्यात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥१४/१॥            भगवान कृष्ण पिछले अध्याय में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन करके अब पुनः सभी ज्ञानों में श्रेष्ठ उस ज्ञान को कहते हैं जिसके मनन करने मात्र से मुनि जन परासिद्धि को प्राप्त करते हैं ।             कभी कभी यह समझ में नहीं आता है कि गीता के इस भाव को वहां लिखूं या उस भाव को यहां लिखूं । अध्याय १८/४९ में बनी अटक जहां पर नैष्कर्म्य सिद्धि के साथ दिया गया ‘परमां’ शब्द विद्वानों को मोहित करता है । वे कहते हैं कि इसी में ब्रह्म प्राप्ति का उल्लेख किया गया है । वे इस बात पर ध्यान ही देना पसंद नहीं करते हैं कि आगे सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध’ १८/५० भी लिखा गया है । उसी का स्पष्टीकरण हम यहां देंगे ताकि यहां से पढ़कर आगे समाधान की आवश्यकता न पड़े । अतः यहां के दो श्लोक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं ।           ...

वेद और गीता में जाति ?

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       निवेदन— गीता मनुष्य जीवन का उत्कर्ष है । मनुष्य मात्र के कल्याण का एकमात्र साधन है गीता । जैसे आज के मशीनरी युग में आप मशीनों (Computer) मैं दुनिया की प्रत्येक जानकारी है तथापि उसमें मस्तिष्क न होने से वह विचार नहीं कर, कोई निर्णय नहीं कर सकता है और न ही आचारण करके अपना कल्याण कर सकता है । जैसा उसमें भर दिया गया है वैसा का वैसा ही सम्मुख प्रस्तुत कर देता है । इसी प्रकार मनुष्य परंपरागत भाष्य,टीका आदि को वैसा का वैसा ही रट लेने वाला विद्वान नहीं बल्कि एक Computer (कम्प्यूटर) से अधिक कुछ नहीं हो सकता है ।           परंपरागत हमें सिद्धांत की प्राप्ति होती है, मार्गदर्शन मिलता है किन्तु चलना स्वयं ही पड़ेगा । उसके लिए अपना विवेक चाहिए । हम देख रहे हैं कि हठधर्मिता ने मानव समाज को मनुष्य से असुर बना दिया है । जिसका परिणाम आज समाज भुगत रहा है । समाज के पतन का एकमात्र कारण है धर्माचार्यों का हठपू्र्वक अपनी बात मानने को बाध्य करना । वेदों में वर्ण व्यवस्था तो मिलती है लेकिन वहां जाति और वर्ण को ...

अथातो कृष्णजिज्ञासा

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अथातो कृष्ण जिज्ञासा            यदि मुझसे मेरे अन्तिम अनुभव के बारे में कोई पूछे तो मैं निम्न मंत्र दूंगा ।          ब्रह्मसूत्र का प्रारंभ "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" से होता है और उस ब्रह्म का लक्षण किया "जन्माद्यस्य यतः" । ठीक श्रीमद्भगवद्गीता को ब्रह्म सूत्र ही समझें । यहाँ का ब्रह्म कृष्ण है । उसे समझना सर्वसामान्य नहीं क्योंकि "अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं" ७/२४ हम उसे साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला मानते हैं, जन्मने मरने वाला मानते हैं और मंदिर में पत्थर की मूर्ति मानते हैं । यह भाव बुद्धिहीनों का है "मन्यन्ते मामबुद्धयः" ७/२४ । इनके लिए कहा "माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ।" अर्थत ये असुर हैं जो कृष्ण को एकदेशीय मानते हैं । इतना ही नहीं — “मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः ।  राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ।।९/१२।।”                 ये मोहनी माया के द्वारा मोहित व्यर्थ के ज्ञा...

अन्न की महिमा

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अन्न की महिमा अन्नं ब्रह्मेति व्यजानत् ।अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि जीवन्ति ।अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति ।(तैत्तरीय उपनिषद वल्ली ३ अनुवाक २)           अन्न ब्रह्म है ऐसा जानें । क्योंकि संपूर्ण प्राणी अन्न से ही उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न होने के बाद अन्न से ही जीते हैं । प्रयाण काल (मृत्यु के समय) में अन्न में ही लीन हो जाते है । अतः ---- अन्नं न निंद्यात् । तद् व्रतम् । प्राणो वा अन्नम् । (तै.उ.व.३अ.७)           अर्थात अन्न की निंदा न करो । यह व्रत है । क्यों प्राण ही अन्न है । अन्नं न परिचक्षीत । तद् व्रतम् ।आप आपो वा अन्नम् । अप्सु ज्योति: प्रतिष्ठितम् ।(तै.उ.व.३अ.८)            अर्थात अन्न कात्याग न करे न करे । यह व्रत है । जल ही अन्न है , क्योंकि जल में ही ज्योति अर्थात तेज प्रतिष्ठित है । अन्नं बहु कुर्वीत । तद् व्रतम् । पृथ्वी वा अन्नम् । पृथिव्यामाकाश: प्रतिष्ठित: । (तै.उ.व....

जातिवाद और वेद

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जातिवाद और वेद           हम लोग आज सबसे अधिक खतरे में किसी कारण को लेकर हैं तो जातिवाद को लेकर । आज अगर हम पौराणिक पद्धति को त्याग कर दें और वैदिक पद्धति को अपनाएं तो समस्याएं हजारों कोश दूर तक नहीं दिखेंगी । इसका हम एक प्रमाण देते हैं ------           वैदिक कालीन राजा जनक, राजा अश्वपति आदि बहुत से राजा हैं । स्वयं महाराज दशरथ भी इनके समय में भी जातीय व्यवस्था मिलती है, तथापि हम विचार करेंगे कि क्या ये जातीय द्वेष उस काल में भी था ?               तो इनके राज्य के लोगों का वर्णन मिलता है कि कोई भी ऐसा नहीं था जो अग्निहोत्री न हो । वर्णन तो बहुत है पर संक्षेप से विचार करते हैं । अगर उस समय शूद्रों को वेद पाठ वर्जित था तो आप "ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड" को उठाकर देखें राजा जनक और अश्वपति सहित कितने ही ऐसे राजा मिलेंगे जिन्होंने यज्ञ में ब्राह्मणों की कमी देखकर अन्य ऐसी जातियों के लोगों को ब्राह्मणों के स्थान प...

आज का संन्यास विचारणीय है

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आज का संन्यास विचारणीय है सत्यं परं धीमहि             इस लेख को कई दिन के ऊहापोह के बाद साझा करा रहा हूँ; कारण कि कुछ वर्षों पूर्व किसी अपने आत्मीय महापुरुष से प्रश्न किया था शास्त्रीय संन्यास को लेकर तो उत्तर में कहा कि स्वामी जी उसकी बात न करो नहीं तो शास्त्र की चर्चा करते करते हम स्वयं अशास्त्रीय हो जायेंगे ।मेरा वर्तमान दृष्टिकोण कहता है कि इसके पालन न कर पाने में कलियुग नहीं हमारी भोगलिप्सा युक्त मानसिकता ही प्रधान कारण है । अतः कई दिन लेख के विचार विमर्श के मानसिक ऊहापोह में आज साझा कर रहा हूँ । वह मैं आत्मीय महात्माओं से क्षमा प्रार्थी एवं मार्ग दर्शीय हूँ ।              आज संसार का हर प्राणी तर्कशील एवं ज्ञानी है; ये ज्ञान कहीं वंध्या पुत्र, शश विषान, आदि की तरह तो नहीं ? हम तर्क इस तरह देते हैं कि हमारे सामने ऋषि-मुनि भी किस खेत की मूली हैं/थे । विशेषकर हमारा संन्यासी समुदाय तो वेदान्त पढ़कर तर्कों का सम्राट हो जाता है; विभिन्न प्रकार के तपों ...

हमारी संकीर्णता

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हमारी संकीर्णता              हमारी शिक्षा पद्धति आज इतनी कमजोर है कि हम अपनी विद्वत्ता के अहं सदैव अर्थ का अनर्थ करने में पीछे नहीं रहते उदाहरण के लिये---- ब्राह्मणोस्य मुखमासीद्बाहूरान्न्य: कृत: । उरूतदस्य यद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रोऽजायत ।।             यहाँ अधिकांश लोग अर्थ करते है उस विराट के मुख, हाथ, जंघा और पैर से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र उत्पन्न हुए ।              किंतु इसके पूर्व श्लोक में जो प्रश्न उठाया गया है उस पर ध्यान दें--- यत्पुरुषं व्यदधु:कतिधाव्यकल्पयन् । मुखङ्किमस्यासीत्किम्बाहूकिमूरूपादाऽउच्यते ।।            यहाँ स्पष्ट विराट यज्ञपुरुष के मुख , बाहु , जंघा एवं पैर क्या हैं ? कहा गया है । इस प्रश्न के बाद "ब्राह्मणोस्य मुखमासीत्....." कहा गया है । इस दृष्टिकोण से अर्थ ही बदल जाता है ।ज...

हम ऐसे विराट पुरुष को जानते हैं

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हम ऐसे विराट पुरुष को जानते हैं चन्द्रमामनसोजात: चक्षो: सूर्योऽजायत । श्रोत्रात् वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।                चन्द्रमा विलासिता का अधिष्ठातृ देवता है । इसका प्रमाण देखिए रूप में रोहिणी को ही मात्र चयन करके अपना नाश कर लिया फिर भी माना नहीं । इसी प्रकार मन भी विलासी है कोई न कोई रूप को ही देखकर आकर्षित हो जाता है । अतः विलासी का देवता विलासी ही होगा । तो यहाँ पर कहा ----  मनस: चन्द्रमा जात: मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ अथवा (सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात) जिस अजात पुरुष का चन्द्रमा ही मन है । चक्षो: सूर्यो: अजायत अर्थात् सूर्य से नेत्र उत्पन्न हुए अथवा जिस आजात विराट पुरुष का सूर्य ही नेत्र है ।   👆यहाँ शंका हो सकती है कि लोक में दो नेत्र प्रसिद्ध हैं और विराट पुरुष एक नेत्र वाला कैसे हो सकता है ?             इसका उत्तर मात्र इतना होगा कि--- १-- वह अपने जैसा कभी किसी को देखना नहीं चाहता अतः सबसे अपनी ...

तो हम निर्बाध होंगे

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तो हम निर्बाध होंगे सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात् । सभूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।। श्वेताश्वरोपनिषद अ.३/१४।            यहाँ सहस्र का अर्थ अनन्त से लिया जयेगा अर्थात् जिसके अनन्त सिर, नेत्र,पैर हैं वह भूमि सहित सभी को आवृत अर्थात ढक कर/अपने अन्दर समाहित करके भी उससे दस अंगुल ऊपर स्थित है ।                यहाँ शुक्ल यजुर्वेदीय पुरुष सूक्त में थोड़ा पाठ भेद है । "सभूमिं"के पश्चात "सर्वतस्पृत्वा" है अर्थात सबका स्पर्श करता हुआ । अर्थ वही होगा आवृत या ढक कर ।            पूर्वोक्त और इस ऊपरोक्त मंत्र का अर्थ ये मंत्र स्पष्ट करेगा ----- विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुख:विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् । श्वे.उ.अ.३/३।         अर्थात विश्व ही जिसके नेत्र, मुख, भुजा और पैर हैं । विश्व.....! अर्थात सब ओर से अतः पूर्वोक्त सहस्र का इस मंत्र को ...