वेदान्त का सूखा ज्ञान
वेदान्त का सूखा ज्ञान
प्रिय साधकों एवं जिज्ञासुओं मैं कोई भी बड़ा निबंध नहीं लिखना चाहता हूँ तथापि कभी कभी बड़ा हो ही जाता है, पढ़ने में आने वाली असुविधा के लिए खेद है ।
ईश्वर सर्वभूतमय अहई, तुलसीदास जी के इस वाक्य को “ईशावास्यमिदं सर्वम्” इत्यादि करके उपनिषद वर्णन करते हैं । मोक्ष प्राप्ति में वेदान्त को ही प्रमाण माना गया है, किन्तु वेदान्त क्या है, इस विषय में विचार कभी कोई करना पसंद करता है ? वेदान्त का अधिकारी कौन है, क्या इस विषय में कभी विचार किया है ?
वेदान्त का अधिकारी वह है जिसके संपूर्ण कल्मषों का नाश हो गया हो, जिसने गृहस्थाश्रमादि में ही अहं ब्रह्मास्मि का दृढ़ निश्चय कर लिया हो—
अहमेव परं ब्रह्म वासुदेवाख्यमव्ययम् ।
इति बोधो दृढ़ो यम्य तदा भवति भैक्यभुक् ॥
तब वह भैक्यभोजी सर्वकर्मसंन्यास का अधिकारी होता है । इसके पहले नहीं । यह स्थिति कब प्राप्त होती है?
यही बताने के लिए ही वेदों के कर्मकाण्ड क्षेत्र को निष्काम कर्मयोग के स्वरूप में समझना आवश्यक है, तभी ईश्वर सर्वभूमय अहई, अथवा ईशावास्यमिदं सर्वम् का लक्ष्यभूत “अयमात्मा ब्रह्म” का ठीक ठीक बोध होगा । इसी बोध को कराने के उद्देश्य से ही गीता में "विद्याविनयसम्पन्ने....... ” कहा गया है, किन्तु इतने संक्षेप से समझ में मन्दबुद्धि को आने वाला कहाँ ? तब उसका स्वरूप समझाया “आत्मौपम्येन सर्वत्र” सर्वत्र आत्मस्वरूप में एक उसी चिन्मय का दर्शन करना पड़ेगा । कैसे सर्वत्र चिन्मय स्वरूप का सबमें एक ही आत्मा का दर्शन होगा ? इसी बात को समझाने के लिए गीता अध्याय सात से लेकर अध्याय पन्द्रह तक विभूतियों का वर्णन किया गया है ।
इसे यदि हम वेदों की दृष्टि से देखें तो यजुर्वेद के अध्याय सोलह या रुद्री के पंचम अध्याय में जो भगवान रुद्र की विभिन्न विभूतियों का वर्णन किया गया है उनका चिंतन करना और उन उन रूपों में चिन्मय परम सत्ता का अनुभव करना ही संपूर्ण प्राणियों के प्रति आत्मीय संवेदना के जागरण का स्रोत है । जिसके अन्दर कर्मकाण्ड में आत्मीय चेतना का जागरण नहीं होता है उसका वह कर्म निष्फल हो जाने से वेदान्त पर उसका अधिकार ही समाप्त हो जाता है ।
यहीं पर “अहं ब्रह्मास्मि” का निश्चय हो जाता है और संसार से अशेष वैराग्य प्राप्त हो जाने पर ही वह सर्वकर्मसंन्यास का अधिकारी होता है, तब उसके जीवन में एक और कर्म को समाप्त कर देने वाला कर्मकांड आता है विरजा होम का । इसके लिए यजुर्वेद का ३९ (उनतालीस) वां अध्याय आता है जिसका प्रारंभ— “स्वाहा प्राणेभ्यः से लेकर द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा” तक तेरह मंत्रों तक पूर्ण होता है जिसे रुद्री में “उग्रश्च भीमश्च...” इत्यादि से मात्र सात श्लोकों में सप्तम अध्याय के रूप में संपन्न कर दिया जाता है । इतनी प्रक्रिया के बाद चालीसवाँ अध्याय आता है जो हमारे वेदान्त क्षेत्र का पहला उपनिषद है जिसे हम “ईशावास्योपनिषत्” के नाम से जानते हैं, जो वेद के अन्त में पूर्व कर्मक्षेत्र का रहस्य बोध कराते हुए अन्तिम लक्ष्य को निर्धारित करता है ।
कुछ तथाकथित विद्वानों में मान्यता है कि भगवान आदि शंकराचार्य प्रच्छन्न (छुपे हुए) बौद्ध थे, कारण कि उन्होंने भी वेदों के कर्मकाण्ड को कोई महत्त्व नहीं दिया और सर्वकर्मसंन्यास पर ही बल दिया था । इस विषय में मैं मात्र इतना ही कहूँगा कि उनके द्वारा आचार्य जी को पढ़ पाना उनकी बुद्धि की पहुँच से बाहर था इसलिए उन लोगों ने ऐसा कहा है किन्तु उन्होंने इस बात पर विचार बिल्कुल नहीं किया कि श्रीविद्या की उपासना, सौंदर्य लहरी इत्यादि उनकी ही देन है, देवी मुकाम्बिका की भी प्रतिष्ठा दक्षिण भारत (शायद कर्नाटक) में स्वयं उन्होंने ही की थी । मात्र यह बताने के लिए कि मात्र वेदान्त पढ़ने सुनने और सुनाने से कुछ होने वाला नहीं है उसे पचाने के लिए उपासना की आत्यन्तिक आवश्यकता है ।
किन्तु आज के नव वेदान्तियों के लिए यह अवश्य कहा जा सकता है कि वेदान्ती का मतलब बौद्धिस्ट या नास्तिक ही है, जहाँ संवेदना से रहित शुष्क ज्ञान का मात्र उपदेश दिया जाता है, संवेदनाएं तो मानो मर ही गई हों, उपासना से तो मानो वैर ही हो गया हो, यही कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांशतः लोगों की प्रवृत्ति बन गई है, यह कहने में मुझे थोड़ा भी संकोच नहीं होगा ।
वेदान्त कोई गाजर मूली नहीं है जो कोई भी आकर खा ले । आप अपने तर्क से रात को दिन और दिन को रात्रि सिद्ध करके दूसरे का मुख बन्द करके एक अद्वितीय विद्वान तो बन सकते हो लेकिन इस रहस्य को जानने वाले के हृदय को भी मनवा सकते हो क्या ? यदि नहीं तो सामने वाले के उस मौन से ही तुम्हारा सारा ज्ञान धराशायी हो गया फिर बोलने की आवश्यकता ही क्या ? जिस समय तुम झूठ को सत्य सिद्ध कर रहे हो उस समय भी तुम्हें यह पता है कि मैं झूठ बोल रहा हूँ, इससे अधिक तुम्हें झूठ सिद्ध करने में अन्य प्रमाण की क्या आवश्यकता है ?
यह नव वेदान्तियों का अनधिकारियों को वेदान्त का उपदेश ही आज गृहस्थ और विरक्त के बीच भेद को मिटाकर मर्यादाहीन बना दिया है । उन्हें यह पता भी नहीं है कि विरक्त भले ही हमारे तर्क का उत्तर न दे सके लेकिन वास्तविक जीवन में मुझसे आगे त्याग में तो है और जहाँ त्याग है वहीं वास्तविक ज्ञान और वैराग्य भक्ति के सहित निवास करते हैं । इस विषय में मेरे महाराज श्री कहते थे (शायद करपात्री जी के विषय में) —
एक बार एक महात्मा मुंबई से ट्रेन से वाराणसी जा रहे थे, उसमें एक कोई सेठ जी थे उनका महात्मा जी से शास्त्र चर्चा शुरू हो गई, अन्त में सेठ ने कहा महाराज आपने भी उपनिषद पढ़े और हमने भी पढ़े है फिर हममें और आपमें अन्तर ही क्या है ? महात्मा जी चुप रहे । संयोग से आगे जंगल में ट्रेन में कुछ खराबी आ जाने से रुक गई, महात्मा जी और सेठ जी उतर कर थोड़ी दूर पर एक पेड़ के नीचे सतसंग करने लगे और इतने में ही ट्रेन ठीक हो गई और चलने के लिए सीटी बजी । सेठ जी उठकर चलने लगे तो महात्मा जी ने हाथ पकड़ कर रोक लिया और कहा अभी सतसंग और हो जाये फिर चलेंगे, सेठ तड़प गया, तब महात्मा जी ने समझाया कि आपने पूछा था कि हममें आपमें क्या अन्तर है ? समझ में आया अब ? मेरे पास जितना सामान था वह सब मेरे साथ ही है और ट्रेन के चले जाने पर कुछ बचने वाला भी नहीं है और आपका तो घर जाकर अपनी सभी आवश्यकताएं पूर्ण ही होने वाला है तो भी आप कितने तड़प रहे हो थोड़े से सामान के लिए । सेठ को अब समझ में आ गया था क्षमा मांगी, इस खींचातानी को गार्ड ने देख लिया था अतः उसने ट्रेन को रोक लिया था और आगे की यात्रा पूर्ण हुई ।
अतः किसी भी गृहस्थ को किसी वीतरागी को नीचा दिखाने और अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने से पहले अपना स्थान और मर्यादा पर अवश्य ध्यान देना चाहिए, वेदान्त का सूखा ज्ञान उस सूखे पेड़ की तरह है जो न तो स्वयं छाया में रह सकता है और न ही दूसरे को छाया दे सकता है, जबकि वैराग्ययुक्त यति वेदान्त ज्ञान से रहित किन्तु संवेदनशील उस हरे वृक्ष की तरह है जो स्वयं आनन्दित है और दूसरे को भी आनन्द प्रदान करने में समर्थ है । अस्तु । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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