हाँ निर्गुण निराकार उपास्य है

       अधिकांश ज्ञानयोगियों को भ्रम होता है कि ज्ञानयोग में उपासना होती ही नहीं है किन्तु यदि पूछा जाये तो उन्हें उपासना के स्वरूप की जानकारी भी नहीं है, जिसका कारण है शब्दजाल, इसीलिए आचार्य शंकर कहते हैं—
शब्दजाजं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम् । 
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञानमात्मनः ॥ 
प्रश्न यह है कि निर्गुण निराकार की उपासना की जा सकती है क्या ? इसका कोई श्रौत स्मार्त प्रमाण है ?                          
          इस विषय में मैं इतना ही कहूँगा कि मैं उपनिषद जानता नहीं, वहाँ तो उपासना आदि का विवरण यद्यपि स्पष्ट है तो भी उपासना नामक शब्द के स्पष्ट अभाव में वह आपको मान्य नहीं है किन्तु मैं मुठ्ठी बाँध कर कहूँगा कि हाँ! निर्गुण-निराकार की उपासना उसके स्वरूप के चिन्तन (निश्चय) के अनुसार तदारूढ़ता ही उसकी उपासना है जैसा कि गीता के प्रमाण से आगे बता रहा हूँ—
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम् । 
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥१४/१॥ 
        यहाँ पर स्पष्ट कहा गया है कि जिस ज्ञान को जानकर मुनिजन परा सिद्धि को प्राप्त करते हैं, तात्पर्य यह है कि तू भी परा सिद्धि को उसी ज्ञान से प्राप्त कर लेगा, तो यहाँ पर परा सिद्धि है क्या ? क्या अभिन्नता रूप मोक्ष सिद्धि कहा गया है? क्योंकि मानव जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि मोक्ष ही मानी गई है । यदि यहाँ पर परा सिद्धि का अर्थ मोक्ष है तो— 
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः । 
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ॥१४/२॥ 
यहाँ पर किस “इदं” नामक किस ज्ञान की उपासना बताते हुए स्पष्ट अभिन्नता की प्राप्ति अर्थात मोक्ष प्राप्ति की बात कही गई है ? यदि यहाँ मोक्ष की प्राप्ति है तो ऊपर परा सिद्धि मोक्ष हो भी कैसे सकती है ? 
      इसका समाधान आगे करते हुए परा सिद्धि का लक्षण बताते हैं— “नैष्कर्म्यसिद्धिं परमाम्” १८/५९ इसके बाद यहाँ भी बताते हैं कि यह सिद्धि कैसे मिलेगी— 
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोऽति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥१८/५०॥ 
       परा सिद्धि को प्राप्त करके फिर किस प्रकार ज्ञान की परा निष्ठा प्राप्त होगी यह बताते हुए उसके साधनों का चार श्लोकों में वर्णन करते हैं और वहाँ पर बताते हैं कि किस प्रकार उपासना ज्ञानयोग में भी अपेक्षित है उसी ज्ञाननिष्ठ उपासना के लिए परा ज्ञाननिष्ठा की प्राप्ति होकर क्रमशः पराभक्ति १८/५४ की प्राप्ति बताते हुए उसी पराभक्ति के द्वारा ही अशेष स्वरूप को जानकर तदनन्तर उसी परमतत्त्व में प्रवेश (अभिन्न) कर जाता है । ये है गीता के उपासना का स्वरूप, और जो उपास्य नहीं है वह है स्वरूप में अभिन्न स्थिति, क्योंकि अपनी उपासना कोई नहीं करता है और न ही उसकी विधि कहीं वर्णित और न ही हो सकती है । यद्यपि उपासना परक गीता में और भी बहुत से वाक्य हैं किन्तु मेरी दृष्टि में यदि इतना पर्याप्त नहीं है तो फिर संपूर्ण धर्मग्रंथ पर्याप्त नहीं हैं फिर अकेली गीता की बात ही क्या है । ओ३म् !
                   स्वामी शिवाश्रम

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