सगुण उपासना
सगुण उपासना
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सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥
हे कौन्तेय ! सहज कर्म दोषयुक्त दिखने पर भी नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि सभी सकाम कर्म धुंवे से अग्नि के समान ढके हुए हैं ।
पहले कहा था ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः ३/३५, ऐसा कहने का कारण यहाँ— सर्वारम्भा हि दोषेण, सभी सकाम कर्मों का आरम्भ जितना गुणयुक्त रमणीय दिखता है उससे अधिक उस कर्म के विज्ञान के अभाव में ठीक वैसे ही भयाकारी क्लेश भी हैं, जैसे ईंधन के अधिक गीला होने पर अग्नि तो ठीक से जलती नहीं है किन्तु धुंवा आंखों को अत्यन्त पीड़ित करता है, इसीलिये कहा था— परधर्मो भयावहः ३/३५, हम जब भी दूसरे के धर्म या कर्तव्य को अपनायेंगे उस समय कोई न कोई कामना ही हमें उस ओर खींचती है जिस कारण से हमें भय उपस्थित हो जाता है किन्तु हमारे सहज और परंपरागत प्रप्त कर्म जिनका मात्र परंपरा निर्वाह से अतिरिक्त और कोई प्रयोजन ही नहीं है ऐसे स्वभाव से ही प्राप्त निःस्वार्थ कर्मों को सहज ही इस गुणमय जगत में व्याप्त गुणमय परमेश्वर की गुणमय पूजा करके ज्ञाननिष्ठा रूप परमसिद्धि प्राप्त करने में यदि मृत्यु भी हो जाती है तो वह भी कल्याणकारी है — स्वर्धमे निधनं श्रेयः, क्योंकि यदि ज्ञाननिष्ठा सिद्धि से पहले मृत्यु भी हो जाती है तो पुनर्जन्म उसी निष्ठा के आधार पर होकर— पूर्वाभ्यासेन तेनैव ६/४४ पूर्वाभ्यास के कारण अपनी शेष साधना को पूर्ण करके श्रेय अर्थात मोक्ष को प्राप्त ही कर लेंगे । अतः जन्म से हो या पद से, निर्भय होकर अपने कर्तव्य का पालन अवश्य करना चाहिए । यही परमेश्वर की सगुण उपासना है ॥ १८/४७॥ ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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