ज्ञान और भक्ति की अभिन्नता

ज्ञान और भक्ति क्या है ? ये दोनो एक हैं या भिन्न ? इस पर आचार्य शंकर और भगवान श्रीकृष्ण के दृष्टिकोण का अवलोकन करते हैं—
     आचार्य शंकर कहते हैं—
मोक्षकारणसामग्र्यं भक्तिरेव गरीयसी ।
स्वरूपानुसंधानं भक्तिरित्यभिधीयते ॥
स्वात्मतत्त्वानुसंधानं भक्तिरित्यपरे जगुः । विवेक. चूड़ा ३२-३३। 
       यहाँ पर आचार्य शंकर ने मोक्ष के समस्त साधनों में सर्वश्रेष्ठ साधन भक्ति को ही माना है, और भक्ति का स्वरूप बताते स्व-स्वरूपानुसंधान को अर्थात “स्वात्मतत्त्वानुसंधान ही “भक्ति” है यह कहा गया है । 
       अब कोई कह सकता है कि भक्ति तो हमेशा स्व से भिन्न किसी शिव, विष्णु आदि की होती है स्वात्मानुधान तो ज्ञानयोग के अन्तर्गत आता है भक्ति में नहीं, तो आचार्य शंकर की इसी बात की पुष्टि भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार करते हैं—
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥गी.४/३५॥ 
     अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा संपूर्ण प्राणियों को पहले अपने में और फिर अपने को मुझमें देखेगा, उस ज्ञान को कहूँगा, जब संपूर्ण प्राणियों को अपने में देखा जायेगा तब वह आत्मरूप हो जायेंगे या नहीं ? फिर उन सब आत्माओं को अपने में अभिन्न स्वरूप जानकर जब स्वयं को परमात्मा में देखेगा तब वह परमात्मा भी आत्मरूप होगा या नहीं ? यही है आत्मानुसंधान, इसी आत्मानुसंधान को संक्षेप में कहते “आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन” ६/३२
        इस प्रकार यहाँ अभिन्न भाव में ही जिसे ज्ञान कहा गया है उसे ही आचार्य भक्ति कहते हैं क्योंकि भगवान जिसे अनन्य भक्ति कहते हैं वही तो अभिन्न भक्ति अर्थात आत्मानुसंधान है । 
      शेष आगे जिसे पहले मैं आज ही बता चुका हूँ कि जिस ज्ञान को जानकर मुनिजन परमसिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं ४१/१, इसी परमसिद्धि को ही आगे “नैष्कर्म्यसिद्धिं परमाम्” कहा गया है १८/४९, जिसे “इदं ज्ञानमुपाश्रित्य” १४/२ कहा गया है उसी को आगे ब्रह्म को प्राप्त कराने वाली “ज्ञान की परा निष्ठा” अर्थात ज्ञान की पराकाष्ठा १८/५० कहा गया है उसकी प्राप्ति के कहे गये साधन ही इस ज्ञान की उपासना है, और आगे जिस साधन से ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके फिर उसी में प्रवेश करने को कहा गया है वह साधन “पराभक्ति” ही है १८/५५ । 
          पराभक्ति अर्थात जिसे पहले “ज्ञान की परानिष्ठा” अर्थात ज्ञान की पराकाष्ठा कहा था उसी को यहाँ पराभक्ति अर्थात भक्ति की पराकाष्ठा कहा है क्योंकि पहले ही जिस ज्ञान की पराकाष्ठा से ब्रह्म की प्राप्ति होगी उस ज्ञान को कहने की प्रतिज्ञा की और जब ब्रह्म की प्राप्ति का समय आया तो पराभक्ति कह दिया । इसका अर्थ यह हुआ ज्ञान की पराकाष्ठा और भक्ति की पराकाष्ठा दोनो ही अभिन्न हैं, इनमें किसी भी प्रकार का कोई भी भेद नहीं । यही आचार्य शंकर और भगवान श्रीकृष्ण का मत स्पष्ट होता है । ओ३म् !
                             स्वामी शिवाश्रम

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