प्रज्ञानं ब्रह्म
प्रज्ञानं ब्रह्म
(यू ट्यूब पर चलाये जा रहे आध्यात्मिक तथाकथित आचार्यों वेदान्तियों और सिद्धांतियों द्वारा चलाये जा रहे भ्रमक दुष्प्रचार के शिकार होने से बचें ।)
#आपका_कथन_है कि जो कहते हैं कि मैं स्त्री का स्पर्श नहीं करता वह पाखंडी है, जब सब कुछ ब्रह्म है तो स्त्री ब्रह्म क्यों नहीं ? आप स्त्री का तिरस्कार करके ब्रह्म का खंडन करते हैं । तो इस पर मैं इतना कहूँगा कि ब्रह्म गाजर मूली जितना कमजोर नहीं है जो इस प्रकार खंडित हो जायेगा, आप तो वेदान्ती हो उस पर भी वीतरागी संन्यासी, तो क्या आपने “प्रज्ञानं ब्रह्म” पढ़ा ? “आत्मौपम्येन सर्वत्र” पढ़ा ? नहीं पढ़ा तो पढ़िए, तथापि कुछ विचार दे रहा हूँ, बुद्धिमान क्षमा करेंगे, जो मूर्ख होंगे उनसे मूर्खता के अतिरिक्त और कोई भी अपेक्षा नहीं करता हूँ ।
#व्यष्टि_रूप_मैं—
मैं हाथ हूँ, मैं पैर हूँ मैं आंख हूँ, मैं कान हूँ, मैं गुदा हूँ इत्यादि प्रत्येक अंग मैं स्थूल शिवाश्रम से भिन्न नहीं हैं, ये सभी अंग मिलकर एक शरीर बनता है जिसमें संपूर्ण अंगों से ऊपर उठकर मैं शिवाश्रम नामक देहधारी हो गया । अतः यह शरीर सत्य है क्योंकि मैं यही शिवाश्रम हूँ । फिर भी यह सत्य होते हुए भी असत्य एवं असत्य होते हुए भी सत्य सा प्रतीत हो रहा है, अतः यह शिवाश्रम नामधारी न सत्य है और न असत्य किन्तु अंगों सहित इस शरीर का प्रकाशक मैं इससे भिन्न हूँ जिसे शिवाश्रम नाम के माध्यम से ही जाना जा सकता है । किन्तु वह शिवाश्रम इस शरीर से भिन्न होते हुए भी अभिन्न है । अतः वह सत्य भी है और असत्य भी ।
अब आपके अनुसार आप ही अंगों सहित संपूर्ण शरीर में समान रूप से व्याप्त हो तथापि आपका शरीर में कैसा समत्व ? गुदा से कोई और कार्य करवाते हो, लिंग से कुछ और तो मुखादि से कुछ और, क्यों ? फिर आपकी शरीर में समता का खंडन नहीं होता ? आप अन्य अंगों को तो खुला रखते हो किन्तु गुदा और लिंग को एकान्त में भी बंद रखते हो, क्या वे आपके अन्य शरीरांग जैसे अंग नहीं हैं ? उन्हें छू जाने पर हाथ धोते हो क्यों ? उनसे इतना भेद क्यों ? मुख को तो बहुत प्रकार का भोजन कराते हो किन्तु अन्य अंगों को क्यों नहीं ?
यदि इतना करने पर भी भेद नहीं है तो फिर समाज रूप समष्टि शरीर में समता रखते हुए यदि मैं स्त्री का या स्त्री के द्वारा मुझे छूना पसंद नहीं है तो इसमें समता या “सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म” का खंडन कैसे हो गया ?
#समाष्टि_रूप_मैं—
संपूर्ण सृष्टि एक ही चैतन्य सत्ता का विर्वत (भ्रामक का परिणाम) है, जैसे स्वप्न जगत निद्रा का परिणाम है । इस प्रकार से स्वप्न की ही भांति स्त्री रूप में पति की कामना करती हूँ, तो पति रूप में उस स्त्री का पाणिग्रहण करके उसके साथ सहवास और संतानोत्पत्ति करता हूँ, मैं ही पुत्री रूप में पिता रूप पुरुष की गोद में बैठकर उनका प्यार पाती हूँ तो मैं ही पिता होकर गोद में उठाकर उसे दुलारता हूँ, बहन होकर रक्षा की कामना करती हूँ तो भाई होकर उसकी रक्षा करता हूँ । इतना ही नहीं मैं ही ज्ञानी हूँ, मैं ही अज्ञानी हूँ और उन दोनो को सत्ता देने वाला भी मैं ही हूँ, मैं ही त्यागने योग्य हूँ और मैं ही ग्रहण करने योग्य हूँ, इस अशेष संसार में जितनी भी विभूति जड़-चेतन रूप में दृष्ट-अदृष्ट हैं वह मैं ही हूँ ।
मैं ही मैं ही अपना मल त्याग करता हूँ, और वह त्यागा हुआ मल भी मैं ही हूँ, फिर उस मल रूप स्वयं को शूकर रूप धारण करके मैं ही ग्रहण करता हूँ, और उस शूकर विष्ठा को अन्य कीट आदि के रूप में ग्रहण करता हूँ । मैं ही व्यास रूप धारण करके माँ, बहन, बेटी के साथ एकान्त में न बैठने का विधान करते हुए लोक शिक्षा के लिए जैमिनि मुनि को भी दंड़ित करते हुए यह बताता हूँ कि देखो एकान्त में बेटी आदि के साथ भी बैठने का क्या परिणाम होता है, मैं ही शंकराचार्य रूप में यह बताता हूँ कि नरक का एकमात्र द्वार पुरुष के लिए स्त्री ही है— “द्वारं किमेकं नरकस्य नारी” । योगी बनकर त्याग और भोगी बनकर ग्रहण करता हूँ ।
इस प्रकार मेरी अनन्त विभूतियों और अनन्तता को अनन्त होकर ही जाना जा सकता है, मात्र बौद्धिक ज्ञान के अहंकार से नहीं, क्योंकि मैं मन बुद्धि का अविषय हूँ, मन बुद्धि को आनन्दित करने वाला भी मैं ही हूँ ।
इस प्रकार मैं इस समय एक यति के चरित्र का पालन करता हूँ, तथा अज्ञानी और विषयी भी हूँ, अतः स्त्री के द्वारा छुवा जाना और मेरे द्वारा उसे छुवा जाना दोनो का निषेध करने पर भी किसी भी मेरी आत्मरूप व्यापकता का कोई खंडन नहीं होता है क्योंकि उन उन रूपों में मैं ही हूँ, किन्तु इस शरीर का चरित्र यह इस प्रकार का ही श्रुति-शास्त्र संमत है । इस रहस्य को स्वप्न निर्मित अपनी ही चराचर सृष्टि और उससे भिन्न, अभिन्न रूपता का सर्वेक्षण करके समझा जा सकता है ।
अब आपके द्वारा लगाये गये आक्षेप पर मैं आपसे प्रश्न करता हूँ कि यदि मेरे द्वारा स्त्री स्पर्श के निषेध से आपके ब्रह्म का खंडन हो जाता है तो आपका ब्रह्म कैसा है ? जो इतनी सी मामूली बात में आपके सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म का खंड-खंड हो गया । फिर भी यदि स्त्री का स्पर्श ब्रह्म है तो क्या स्त्री सहवास ब्रह्म नहीं है ? यदि इससे आपके ब्रह्म का खंड़न स्वतः हो गया, फिर स्त्री स्पर्श का निषेध करने वाला मैं पाखंडी हुआ या आप ? शास्त्र कहता है “अन्नं वै ब्रह्म” अतः आप छप्पन प्रकार का भोजन करते हो वह ब्रह्म है तो क्या उस स्त्री की टट्टी ब्रह्म नहीं है ? वह भी तो आहार है, भले कूकर-शूकर का हो किन्तु है तो अन्न ही, फिर क्या उसे आप ग्रहण करते हैं ? यदि नहीं, तो क्या आपके ब्रह्म का खंडन नहीं हुआ ? अब यह पाखंड मेरा है या आपका ? क्या आश्रमों में रखी जाने वाली स्त्रियों को ब्रह्म मानकर रखा जाता है या साधिका ? यदि ब्रह्म मानकर रखा जाता है तब तो उन्हें रखैल बनाकर और उनकी विष्ठा खाकर ही ब्रह्म की अखंडता की पूर्ति की जाती होगी ? और यदि साधिका बनाकर रखा जाता है तो सहज ही कहा जा सकता है कि या तो आप भ्रष्ट हो गये हो चुके हो इसलिए ऐसी बातें करते हो या फिर पूर्णतः नपुंसक हो अतः मन को समझाने के लिए इस प्रकार के साधकों पर आरोप लगाते हो । अतः आप वेदान्ती हो या सिद्धांती, गृहस्थ हो या विरक्त अपनी अपनी सीमा में रहो, दूसरे को पाखंडी कहने से पहले अपने पाखंड का निरीक्षण करो । तुम्हारे ही निर्बल और खंड़ित ब्रह्म के पाखंड ने ही हमारे आध्यात्मिक क्षेत्र में आतंक मचाकर भोलीभाली और शास्त्र एवं सिद्धांत से अनिभिज्ञ जनता को मूर्ख बनाकर आज इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है कि आज लोगों में सन्तों के प्रति अश्रद्धा इतनी अधिक हो गई है कि देखते ही गालियाँ देते हैं, कोई प्रत्यक्ष तो कोई अप्रत्यक्ष रूप से । कम से कम “प्रज्ञानं ब्रह्म” या गीता का एक ही श्लोक #आत्मौपम्येन_सर्वत्र भी पढ़ लिया होता तो भी कल्याण हो जाता । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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