तुलना क्यों ?
तुलना क्यों ?
मैं विभिन्न समूहों आदि में देखता हूँ कि साधना आदि के क्रम में या सामाजिक व्यवस्था को लेकर वे चाहे साधु-संत हों या गृहस्थ, स्त्री शब्द का प्रयोग करते ही उसके लक्ष्य को बिना समझे समानता के अधिकार और स्त्री के अपमान का आरोप लगाकर पता नहीं किन किन उपाधियों से अलंकृत किया जाता है ।
ठीक है मैं कभी भी न तो स्त्री विरोधी हूँ और न ही निंदा का कोई प्रयोजन रखता हूँ, तथापि मैं आपसे प्रश्न करना चाहूंगा कि समानता का अधिकार शरीर को लेकर करना चाहिए या व्यवहार को लेकर ? यदि शरीर को लेकर समानता की बात करते हैं तो यह युक्तिसंगत नहीं हो सकता है क्योंकि शारीरिक रचना जन्मजात भेदभाव से युक्त यहाँ तक कि स्त्री-पुरुष की आवाज तक में प्राकृतिक भेद है जिसे कोई भी मिटाने में सक्षम नहीं है । अब यदि व्यवहार को लेकर समानता की जाये तो यह भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि एक ही स्त्री पति के साथ कुछ अन्य व्यवहार करती है पुत्रादि के साथ कुछ और, यह भी प्राकृतिक ही है, अतः शरीर और व्यवहार दोनो ही दृष्टि से प्रकृति का उल्लंघन करके समानता का व्यवहार युक्ति संगत नहीं है ।
इसका समाधान गीता बहुत ही अच्छे ढंग से करती है— स्वधर्म के रूप में, जो जिस स्थान या पद पर स्थित है उसका व्यवहार उसी जगह से सुनिश्चित होता है । इसके अनुसार सभी व्यवहार विषम होगा किन्तु अनुभव समान व्यवहार का किया जाता है और उसी में सभी संतुष्ट हो जाते हैं । इसी विषमता में समता का व्यवहार कैसे करना चाहिए, इसके लिए और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं— “आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति यो” अर्थात आपका अपना शरीर है, उस शरीर के प्रत्येक अंग भिन्न भिन्न क्रिया करते हैं तदनुसार हम भी उन उन अंगों के संरक्षण हेतु वैसा ही भेदपूर्ण व्यवहार करते हैं तथापि उन सभी अंगों में एक ही आत्मा (स्वयं) का अनुभव होता है । यह विषमता ही समता है । जब आप एक अपने ही शरीर से भिन्न भिन्न व्यवहार करते हैं तो समाज में व्यापक रूप से विषमता में भी समता का व्यवहार क्यों नहीं हो सकता है । यही व्यवहार पुरुषों का स्त्रियों के प्रति और स्त्रियों का पुरुषों के प्रति समान रूप से होना युक्तिसंगत एवं भेदभाव से रहित है ।
अब उन गालीगलौज करने वालों के लिए पहले मैं अपने जीवन की घटना प्रस्तुत करता हूँ—
सन् १९९२-९३ ई. में मैं ब्रह्मसरोवर तीर्थ में गया था, यह तीर्थ शायद हरियाणा/पंजाब के कैथल/करनाल जिले में पड़ता है । मैं शाम के समय स्नान कर चुका था अतः कुछ इस प्रकार कपड़े गीले थे और कुछ पहले धो दिये थे वे गीले थे । इसी बीच मेरा पैर विष्ठा (टट्टी) पर पड़ गया अतः कपड़े सहित स्नान करना पड़ा, सूखे कपड़े नहीं थे ।
एक बहराइच की विधवा स्त्री थी उसने कहा ब्रह्मचारी जी मेरी साड़ी पहन लो । मैनै कहा मैं स्त्री के कपड़े पहनना तो दूर छूना भी पसंद नहीं करता । वह चिढ़ गई और बोली कि माँ कहते हो और माँ के कपड़े स्त्री के कपड़े बताते हो । तो मैने कहा कि मैं माँ ही मानता हूँ यह मेरा धर्म है, किन्तु क्या आप मुझे अपना पुत्र मानती हो ? अगर हाँ, तो यहीं सबके सामने अपना स्तनपान करा दो तो मैं आपकी साड़ी ही नहीं पहनूंगा बल्कि अगर कहोगी तो मैं आपकी गोद में ही सो जाऊँगा । उसने स्तनपान कराने को मना कर दिया । मैंने कहा कि माँ-बेटे के बीच इतनी दूरी नहीं होती भले ही दोनो बूढ़े हो गये हों । अतः मैं भले तुम्हें माँ स्वधर्म से मानूं लेकिन आप माँ बिल्कुल नहीं हो सकती हो, अतः आप सामान्य स्त्री होने के कारण आपकी साड़ी कैसे पहन सकता हूँ ?
यह शारीरिक भेद सहज और स्वाभाविक है, इसमें कोई स्त्री विरोधी कहकर गालियाँ दे सकता है, किन्तु क्या कोई गृहत्यागी तो क्या कोई गृहस्थ भी अन्य और अपरिचित कौन कहे परिचित महिला की भी साड़ी पहन सकता है, वह स्वयं भी जो बात बात में किसी को भी स्त्री विरोधी ठहराते रहते हैं, फिर मुझे या मुझ जैसे साधकों को गालियां क्यों देना ?
अब कोई प्रश्न कर सकता है कि पुत्र जब बड़ा हो गया तो उसे कोई माँ भी अपना स्तनपान कैसे करा सकती है ? तो मेरा प्रश्न यह होगा कि जब पुत्र बड़ा हो जायेगा तब कोई माँ उसे पुत्र रूप से ही देखेगी या पुरुष रूप में ? यदि पुत्र रूप से देखेगी तो स्तनपान कराने में क्या आपत्ति, विवाह आदि की रश्में पूरी करने में जब माँ स्तनपान कराती है तब भी पुत्र जवान ही होता है । और यदि वह पुरुष रूप से देखेगी तो पुत्र भी अपने को जवान और माँ को स्त्री ही देखेगा परिणाम अत्यंत वैकारिक सिद्ध होगा । अतः साड़ी कैसे पहनी जा सकती है ?
इन सभी परिस्थितियों को देखते हुए यह विचार करो कि मुझमें विकार है या नहीं, इसकी जगह पर यह देखो कि यदि मैं आपको माँ, बहन और बेटी के रूप में समझता हूँ तो क्या आप स्वयं भी मुझे पिता, पुत्र और भाई के रूप में निर्विकार रूप से ही स्वीकार करती हैं या नहीं ? मध्यम पर पति देखइ कैसे । भ्राता पिता पुत्र निज तैसे ॥ यदि नहीं तो वैकारिक भावना के रहते हम आपको अपनी साधना/बाधा को ध्यान में रखते हुए आग के समान अपना हित साधन करके अग्नि के समान ही दूर रखते हैं तो आपत्ति क्यों ? मैं सुरक्षित, आप सुरक्षित और समाज सुरक्षित ।
अतः विचारहीन स्त्री-पुरुष थोड़ा सद्विचारों का भी आश्रय लें और गीता का अध्ययन करें कि समता और विषमता क्या है ? व्यर्थ में तुलना करके समाज को आतंकित न करें । ओ३म् !
स्वामी शिवाश्रम
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