विकर्म ?


कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । 
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥4–17॥

भावार्थ : कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है॥17॥

व्याख्या— पूर्व श्लोक में श्रीभगवान् ने “किं कर्म किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः” में मात्र कर्म और अकर्म में विद्वानों का मोहित होना बताते हुए उन्हीं दोनों को बताने की प्रतिज्ञा करते हैं जिसका फल होगा अशुभ संसार के आवागमन से मुक्ति । 
          किन्तु इस श्लोक में कर्म, अकर्म और विकर्म ये तीन विभाग करते हुए कर्म की गति अत्यंत गम्भीर बताते हैं । जबकि अगले श्लोक में भी “कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः” के द्वारा मात्र कर्म और अकर्म की व्याख्या की गई । फिर मध्य में “विकर्म” जिसका आगे कहीं वर्णन ही प्रतीत नहीं हो रहा है तो बीच में किस प्रयोजन से विकर्म का उल्लेख करते हुए उसे भी गम्भीर अर्थात गोपनीय अर्थात विकर्म का स्वरूप से क्रिया रूप में जैसा देखा जाता है वैसा होता नहीं है और जैसा होता है वैसा दिखता नहीं है, ऐसी विचित्रता का वर्णन क्यों किया ? 
             तो जब हम गीता के अनुसार विमर्श करते हैं तो कर्म को परिभाषित किया गया है— “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । 
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥ 
अर्थात जिस कर्म का गीता प्रतिपादन करती है वह फलापेक्षा रहित,अनासक्त एवं कर्तृत्वाभिमान रहित कर्म को ही कर्म की संज्ञा दी गई है, जबकि अकर्म के लिए कहते हैं— “सर्वकर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते” अर्थात कर्म और उसके फल का स्वरूप से त्याग कर देना ही कर्मत्याग अर्थात अकर्म कहा गया है । 
          अब जबकि गीता के अनुसार “विकर्म”  पर विचार करते हैं । गीता के अनुसार सबसे अधिक निंदनीय कर्म माना गया सकाम कर्म, मूल अधिष्ठान से भिन्न फालाकाङ्क्षा को ध्यान में रखकर भिन्न भिन्न कामनाओं के लिए भिन्न भिन्न देवताओं की उपासना पर भगवान जगह जगह पर खेद प्रकट करते हैं । अतः गीता के अनुसार ऐसा जो सकाम कर्म है, अध्याय सोलह के अनुसार जो दूसरों को प्रताड़ित करने के लिए मारण, मोहन इत्यादि को दृष्टिकोण में रखकर समाजिक विक्षोभ, विनाश के लिए किया जाने वाला कर्म ही विकर्म कहा गया है । 
                अब प्रश्न उठता है कि इसमें गम्भीरता क्या है ? जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं ? तो इस पर भगवान कहते हैं कि चूंकि सबके मूल में मैं ही हूँ एवं उन उन देवों के लिए की गई उपासना आदि का भी फल देने वाला मैं ही हूँ, इसलिए जो सकाम भाव से भी केन्द्र में मुझे ही रखकर कर्म करता है वास्तव में वह सकाम कर्म (विकर्म) भी विकर्म नहीं रह जाता है, इसीलिये भगवान ने— “आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च” इन चार प्रकार के भक्तों का उल्लेख किया है । भगवान कहते हैं कि मनुष्य बिना कर्म किये तो रह नहीं सकता है, कर्म तो करेगा ही अतः 
“नियतं कुरु कर्मत्वं कर्मज्यायो ह्यकर्मणः । 
शरीर यात्रापि च ते न प्रसिद्येदकर्मणः ॥ 
माना कि चाण्डाल आदि का हिंसा कर्म निंदत कर्म है किन्तु कर्म का त्याग भी संभव नहीं है, अतः ऐसे कर्म का त्याग करने की अपेक्षा जो आपका प्रकृति नियत कर्म है उसे अनवरत करते रहना ही श्रेष्ठ है क्योंकि शरीर की यात्रा (निर्वाह) भी बिना कर्म के नहीं होती है तो ईश्वर की प्राप्ति भी बिना कर्म के कैसे संभव है अतः वह निन्दित विकर्म भी कर्म ही हो जाता है, इस बात की समझ ही अत्यन्त गम्भीर अर्थात गोपनीय है । जिसको लेकर बड़े बड़े विद्वान भी मोहित अर्थात भ्रमित हो जाते हैं । जो कर्म एक के लिए विहित है, वही कर्म दूसरे के लिए निन्दित विकर्म है । अतः कर्म की पहचान अपने पूर्वजों के चरित्र के द्वारा करके तदनुसार ईश्वरार्पित कोई भी कर्म विकर्म नहीं हो सकता है और वह चित्तशुद्धि पूर्वक मोक्ष का हेतु निश्चित ही बनता है । यही इस श्लोक में विकर्म की गंभीरता अर्थात गोपनीयता कहने का अभिप्राय है । ओ३म् !
                            स्वामी शिवाश्रम

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