गीता में सहजावस्था


कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । 
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥2–47॥

भावार्थ : तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥

         विचार— कर्मण्येवाधिकारस्ते द्वारा मनुष्य के कर्तव्य का बोध कराया गया है, कारण कि कर्तव्य बोध ही नवजात बच्चे की तरह निष्कपट और निश्छल एवं सहज होता है, किन्तु जिस समय कर्तव्य बुद्धि होने पर भी किये गये कर्म में फलाकांक्षा हो जाती उस समय स्वार्थ सामने उपस्थित हो जाता है जिससे कर्तव्य बोध ढक जाता है फलस्वरूप छल, कपट आदि संपूर्ण विकारों के आवरण मनुष्य को ढ़क लेते हैं और उसके द्वारा किये जाने वाले सभी कर्म अकर्तव्य अर्थात निषिद्ध कर्म की ओर अग्रसर हो जाते हैं । इसी अकर्तव्य पर अंकुश लगाने के लिए ही कहते “मा फलेषु कदाचन” कृत कर्म से क्या फल सिद्धि होगी इस पर विचार भी करने का तेरा अधिकार नहीं है फल प्राप्ति के लिए सोचना तो दूर की बात है । 
           अब बात आती है कि चलो हम बिना कर्मफल की इच्छा के समाज सेवा आदि कर्म करेंगे, इससे मेरा नाम, यश होगा, लोग मेरी जयजयकार करेंगे । इन विचारों का उदय होना भी एक प्रकार से कर्मासक्ति और कर्मासक्ति आज नहीं तो कल फलासक्ति का कारण बनेगी जो पुनः अकर्तव्य बोध की ओर खींचेगा और हर बार मन में यही विचार उत्पन्न होगा कि मैं न होता तो अमुक कार्य न होता, तमुक कार्य न होता इत्यादि, मनुष्य के पतन कारक इन विचारों पर भी अंकुश लगाने के लिए भी कहते हैं “मा कर्मफलहेतुर्भूः” तू फल भी नहीं चाहता है इतने मात्र से ही निष्काम नहीं हो जाता है तेरे मन में जो कर्म निमित्तक भाव है उस कर्म निमित्तक का भाव का भी परित्याग कर दे, अर्थात कर्तृत्वाभिमान का परित्याग कर दे ।
               प्रश्न उठता है कि जब कर्तव्य कर्म करने की प्रेरणा दी गई है और अकर्तव्य का त्याग बताया जा रहा है तब यदि कर्तृत्व का हेतु भी शेष नहीं रहेगा तो कोई भी कर्म करेगा ही क्यों ? इसके लिए कहते हैं कि अकर्म अर्थात निष्काम कर्म में भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि निष्कामता की आसक्ति भी एक प्रकार का कर्म ही है अतः “मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” अकर्म अर्थात सर्वकर्मत्याग में भी आसक्ति का त्याग कर दे, फिर कर्म कर । 
              भावार्थ— यहाँ पर सीधे सीधे कर्तव्य और अकर्तव्य दोनो भावों से ऊपर उठकर पूर्णतः सहजावस्था का वर्णन किया गया है । जैसे एक अबोध बच्चा है, वह कर्म करता है किन्तु उसे इस बात का बोध नहीं होता है कि वास्तव में वह कर्म करना चाहिए या नहीं करना चाहिए ? वह उस कर्म का परिणाम भी नहीं जानता है फिर भी कुछ न कुछ करता ही रहता है, जब निद्राधीन हुआ तब कितना सोना या जागना है कब सोना जागना है, इससे उसका कोई संबन्ध नहीं होता है, जो कर्म प्रारंभ किया वह पूरा हुआ या अधूरा छूट गया, इससे भी उसका कोई प्रयोजन नहीं होता है । ठीक इसी प्रकृति से परमार्थ का साधक बिल्कुल सहज भाव से कर्तव्याकर्तव्य से ऊपर उठकर कर्म करने मात्र से सभी कल्मषों से ऊपर उठकर समता रूप ब्राह्मीभाव को अर्थात जीते जी मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, इसी बात को संन्यासोपनिषद में इस प्रकार कहा गया है—
त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज। 
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तत् त्यज॥ संन्यासोपनिषद १२अर्थात् संन्यासी को धर्म-अधर्म, धर्माधर्म, सत्य-असत्य, सत्यासत्य का त्याग कर देना चाहिए एवं जिस बुद्धि से इनका त्याग किया गया है उस बुद्धिवृत्ति का भी त्याग कर देना चाहिए । यही समता है, यही योग है जिस योग और समता का अगले दो श्लोकों द्वारा कथन किया जायेगा । ओ३म् !
                        स्वामी शिवाश्रम

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