विभिन्न मतों की पोषक श्रीमद्भागवत एवं लक्ष्य

श्रीमद्भागवत महापुराण
         मैं जब नवीं-दसवीं कक्षा में पढ़ता था उस समय सतपालमहाराज एवं बालयोगेश्वरमहाराज की संस्था का साप्ताहिक सतसंग लंबी दूरी तय करके भी सुनता था । उस समय एक कहानी सुनी थी कि एक हाथी जा रहा था, कुछ अन्धे थे उन्होंने जब सुना कि कोई हाथी जा रहा है तो हाथी कैसा होता है यह जानने की इच्छा से हाथी को सभी ने पकड़ा । जिसने कान पकड़े थे वह सूप जैसा, पैर वाले ने खंभे जैसा, पूछ वाले ने झाड़ू जैसा, सूँड़ वाले ने सांप जैसा, पेट वाले ने नगाड़े जैसा हाथी का स्वरूप कथन करते हुए परस्पर कलह करने लगे । इस कलह को शान्त करते हुए किसी आंख वाले ने कहा कि तुम सब सही कह रहे हो, लेकिन वे एक एक अंग मात्र हैं, वे सभी अंग मिलकर ही वह एक हाथी है । ठीक ऐसा ही कुछ श्रीमद्भागवत महापुराण में देखने को मिला ।
          श्रीमद्भागवत महापुराण में चतुर्व्यूह का बहुत वर्णन मिलता है । इस चतुर्व्यूह की उपासना का जहाँ तक मेरी स्मृति है तो श्रीवल्लभ संप्रदाय में बहुत महत्व है । वहीं जब संन्यास का वर्णन आता है तो वहाँ पर त्रिदण्डी संन्यासी का ही वर्णन मिलता है, जो ईश्वर, माया और जीव तीनों को सत्य मानते हैं, यह त्रैत (त्रिदण्डी) परंपरा स्वामी रामानुजाचार्य जी की परंपरा के अन्तर्गत है । दसवें स्कंध में जो नाम आदि की महिमा का गोपियों आदि के माध्यम से वर्णन मिलता है वह गौड़ीय संप्रदाय में भलीभाँति देखा जा सकता है । इसी प्रकार से बारहवें स्कंध में स्पष्ट रूप से वैष्णवों के तांत्रिक पांचरात्र आदि विभूतियों की उपासना संबंधित संप्रदायों का उल्लेख करते मिलता है । जिसका स्वयं शंकराचार्य जी ने भी खंडन किया था ।
        इस प्रकार यह महाभागवत विभिन्न मतों का एकांग पोषक भी है । तथापि इन सभी उपासनाओं से साधक के जीवन की न तो पूर्णता होती है और न ही उसके जीवन की समस्या और प्रश्नों का समाधान ही होता है, इसके लिए श्रीमद्भागवत में भक्ति ज्ञान और वैराग्य को परस्पर अभिन्न माना गया है । इनमें से एक की भी कमी होने से अन्य दो टिकने वाले नहीं हैं, इनमें भी वैराग्य की ही बड़ी प्रशंसा की गई है जिसके बिना न तो ज्ञान और न भक्ति का ही कोई अस्तित्व बचता है ।
           इन तीनों का आश्रय लेकर ही भागवत महापुराण में वर्णित एकमेद्वितीय परमतत्त्व का साक्षात्कार आत्मस्वरूप में किया जा सकता है । उपरोक्त विभिन्न मतों पर भगवान श्रीशुकदेव जी कुठाराघात करते हुए अपने अन्तिम उपदेश में कहते हैं—
अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परं पदम् ।
एवं समीक्षन्नात्मानमात्मन्याधाय निष्कले ॥१२/५/११॥
       अर्थात “मैं ही सभी का अधिष्ठान परब्रह्म हूँ, सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ” इस प्रकार अनुसंधान करते हुए स्वयं को अपने निष्कल आत्मस्वरूप में स्थिर करो । इस प्रकार जब वेदान्तवेद्य परंतत्त्व का अन्तिम उपदेश देकर श्रीशुकदेव जी ने परीक्षित से पूछा कि और क्या सुनना चाहते हो ? इस पर परीक्षित जी कहते हैं—
प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया॥१२/६/५॥
        अर्थात भगवन् ! आपने अभय पद का, ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार करा दिया है ।  अब मैं (परम शान्ति स्वरूप) ब्रह्म में स्थित हूँ । अब मुझे तक्षकादि का भय नहीं है क्योंकि—
अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया ।
भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः परम् ॥१२/६/७॥
         अर्थात आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञान में परिनिष्ठित हो जाने के कारण मेरा अज्ञान सर्वदा के लिए नष्ट हो गया है आपने मुझे भगवान के परम कल्याणमय स्वरूप का दर्शन करा दिया है ।
            इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण में विभिन्न वैष्णव मतों का भलीभाँति पोषण अवश्य किया गया है, किन्तु हमारे जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान है वेदान्त प्रतिपाद्य “अहं ब्रह्मास्मि” का अनुसंधान, जिसका बड़ी ही कुशलतापूर्वक भागवत में वर्णन किया गया है । इस कुशलता में से इस रहस्य को जानने वाले कोई कुशल विचारक ही उस एकमेवाद्वितीय तत्त्व को ग्रहण कर सकता है अन्यथा किसी एकांग में ही विमूढ़ होकर कलह प्रिय हो सकता है ।
             अब आती है बात कि श्रीमद्भागवत में साधना के स्तर पर किस नाम की प्रधानता दी गई है ? तो इसके लिए वीतरागी के लिए तो संपूर्ण भागवत में प्रणव की ही महिमा का गान किया गया है और वही ज्ञानयोग के अधिकारी हैं तथापि प्रणव की व्याख्या को वेदों की उत्पत्ति के कथन के अन्तर्गत १२/६/३९-४५ तक देख जा सकता है । जबकि जीव के स्वरूप के वर्णन के अन्तर्गत माण्डूक्योपनिद तथा छान्दोग्योपनिषद की छवि १२/७/१९-२१ तक देखी जा सकती है जहाँ सीधे आयमात्मा ब्रह्म, एवं तत्त्वमसि का दिग्दर्शन प्राप्त होता है ।
            वस्तुतः भक्तियोग उन अधिकारी पुरुषों का प्रधान आश्रय है जिनकी रुचि न तो कर्म करने में है और न ही परंतत्त्व का ज्ञान ही हुआ है, अतः कर्म की निवृत्ति और अभेद ज्ञान की प्राप्ति का साधन भक्ति की प्रधानता में ही होती है, जबकि जबकि ज्ञानयोग की सिद्धावस्था स्वरूप स्थिति है जिसके लिए भक्ति का आश्रय आवश्यक है ।
             कर्मयोग पर उन्हीं का अधिकार है जो कर्म में रसास्वादन करते हैं, ऐसे कर्मयोगी के लिए विशेषतः ब्राह्मण के लिए गायत्री मंत्र का आश्रय लेना आवश्यक है जिसके स्वरूप का वर्णन १२/६/६७-६९ तक किया गया है । सबका सारांश अगर देखा जाये तो......
            श्रीमद्भागवत महापुराण में जो प्रतिपादन किया गया है उसके अनुसार जब तक वेदान्त प्रतिपादित “अहं ब्रह्मास्मि” में प्रतिष्ठा नहीं हो जाती है तब तक जीवन में कोई समाधान नहीं हो सकता है, यही इस दिव्य ग्रंथ का बोधक लक्ष्य है और अशेष वैराग्य ही इसका श्रेष्ठ साधन है । अस्तु । ओ३म् !
                         स्वामी शिवाश्रम

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